मैं एक औरत, अधूरी नहीं, पर पूरी भी नहीं : शालिनी बरनवाल
एक औरत होने की व्यथा
शालिनी बरनवाल
मैं एक औरत,
अधूरी नहीं, पर पूरी भी नहीं,
दुनिया की नज़रों में,
बस एक मूरत, एक पहचान,
लेकिन मेरी पहचान ,
कभी मां, कभी बहन,
कभी बेटी, कभी पत्नी,
अपने ही अस्तित्व की तलाश में,
खो जाती हूं कहीं।
हर सुबह की किरण में,
नई उम्मीद तो जगाती हूं,
पर कदम-कदम पर,
अपनी इच्छाओं को दबाती हूं।
सपने देखती हूं मैं भी,
पर उन सपनों की डोर,
कभी समाज के बंधनों में,
कभी रिश्तों की जिम्मेदारी में,
और कभी शारीरिक दर्द में ,
उलझ जाती है।
कभी मुझे सिखाया गया,
क्या सही है, क्या गलत,
कभी मुझे बताया गया,
कि मेरी हदें हैं कहां,
मैं उड़ना चाहूं तो पंख बांध दिए जाते हैं,
चलना चाहूं तो राहें मोड़ दी जाती हैं।
और फिर कहा जाता है कि हमारे कंधे से कंधा मिलाओ ।
9 महीने कोख में किसी और के नाम को रखने के बाद,
दर्द, तकलीफ और संशय को सहने के बाद
जब फिर होता है एक बेटी का जन्म
तब हम सोचती हैं
क्या फिर से हुआ
एक औरत की व्यथा का आरंभ
बचपन में गुड़ियों से खेली,
फिर समाज के नियमों से,
सपनों को घर की दहलीज पर छोड़,
अपनी पहचान गढ़ने चली।
पर हर कदम पर सवालों की दीवारें,
मेरे हौसलों को चुनौती देती हैं,
क्या मैं सही हूं?
क्या मैं बस इतनी ही हूं?
हर रिश्ते में खुद को खोते-खोते,
कभी खुद से सवाल करती हूं,
क्या मुझे भी हक नहीं,
कि मैं अपने लिए जी सकूं?
औरत हूं, सहनशीलता मेरी शक्ति है,
पर क्या ये शक्ति ही मेरी सीमा है?
क्या मेरे आंसू सिर्फ कमजोरी हैं,
या फिर ये मेरा साहस भी हो सकते हैं?
दुनिया मुझे गढ़ती है अपने हिसाब से,
पर मेरे दिल के अरमान,
कभी किसी ने सुने ही नहीं,
क्योंकि मैं एक औरत हूं,
जिसकी व्यथा कहने से पहले ही,
दबा दी जाती है।
पर मैं जानती हूं,
मेरी हर सांस में है एक आग,
जो बदल सकती है कायनात,
मैं खामोश नहीं,
मेरे शब्द मेरे अस्तित्व की पहचान हैं,
मैं उठूंगी, फिर से उड़ूंगी,
क्योंकि मैं एक औरत हूं,
और यही मेरी सबसे बड़ी ताकत है।
दिल्ली