श्राद्ध में किया गया हव्य कव्य दान पितृ लोक में कैसे जाते हैं : आचार्य विनोद झा वैदिक
मरे हुए व्यक्ति अपने कर्मानुसार गति प्राप्त करते हैं, तो अपने पुत्र के द्वारा दिए गए पुण्य कर्मो का फल वे कैसे प्राप्त कर सकेगें |
प्रत्यक्ष की अपेक्षा श्रुति का प्रमाण बलवान होता है |
श्राद्ध में उच्चरित पितरों के नाम तथा गोत्र हव्य कव्य के प्रापक हैं|
श्रद्धा से पढ़े गए मंत्र श्राद्ध के प्रापक हैं||
ये मंत्र कैसे उस श्राद्ध कर्म के प्राप्त करा सकते हैं?
इस विषय में संशय नहीं करना चाहिए|
इस से समझ ने के लिए दूसरा प्रापक बता रहे हैं |
अग्निष्वात्त आदि पितृ गण उन पितरो के राज पद पर नियुक्त हैं |समय आने पर विधिवत प्रतिपादित अन्न जल अभीष्ट पितृ पात्र में पहुंच जाता है|| जहां वह जीव रहता है, वहां ये अग्निष्वात्तआदि पितृ देव ही अन्न लेकर जाते हैं |नाम गोत्र और मन्त्र ही उस दान दिये गए अन्न कॊ ले जाते हैं |शतशः विविध योनियो में जॊ जीव स्थित रहता है उस योनि मेँ उसे नाम गोत्र के उच्चारण से तृप्ति प्राप्त होती है|
पितर जिस योनि में, जिस आहार वाले होते हैं, उन्हें श्राद्ध के द्वारा वहां उसी प्रकार का आहार प्राप्त होता है| गायों का झुण्ड तितर बितर हो जाने पर भी बछड़ा अपनी माता को जैसे पहचान लेता है, वैसे ही वह जीव जहां जिस योनि में रहता है, वहां पितरों के निमित्त ब्राह्मण को कराया गया श्राद्ध अन्न स्वयं उसके पास पहुंच जाता है|
*यदाहारा भवन्त्येते पितरो यत्र योनिषु* |
*तासु तासु तदाहार:श्राद्धान्नेनोपतिष्ठति**|
*यथा गोषु प्रनष्टासु वत्सो विन्दति मातरम्* |
*तथान्नं नयते विप्रो जन्तुर्यत्रा वतिष्ठते* |
पितृ गण सदैव विश्वदेवों के साथ
श्राद्ध अन्न ग्रहण करते हैं | ये ही विश्व देव श्राद्ध का अन्न ग्रहण कर पितरों को तृप्त करते हैं |
वसु, रुद्र, देवता, पितर श्राद्ध देवता श्राद्धों में संतृप्त होकर श्राद्ध करने वाले पितरों को प्रसन्न करते हैं| जैसे गर्भिणी स्त्री गर्भावस्था में विशेष भोजन की अभिलाषा के द्वारा स्वयं को और अपने गर्भस्थ जीव को भी आहार पहुंचा कर प्रसन्न करती है, वैसे ही देवता श्राद्ध के द्वारा स्वयं संतुष्ट होते हैं||। आगे भी –