महात्मा गांधी और रामराज्य : प्रेमचन्द्र सिंह
प्रेमचन्द्र सिंह, लखनउ । आज भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की जन्मदिन है, भारत के लोग उन्हे बहुत ही प्रेम और श्रद्धा से बापू कहते हैं। उनका चरित्र इतना विराट और बहुआयामी है कि उन सभी आयामों पर चर्चा करना यद्यपि बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक हो सकता है, लेकिन समयाभाव के कारण उन सभी आयामों पर यहां समग्रता से चर्चा करना संभव नहीं है। उनके जन्मजयंती के इस यादगार अवसर पर बापू की ‘स्वराज’ की संकल्पना को इस लेख में समझने का प्रयास मात्र है। महात्मा गांधीजी का स्वराज का सिद्धांत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। स्वराज का अर्थ है “स्व-शासन” या “स्वयं का राज”। गांधी जी ने स्वराज को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि इसे आत्म-निर्भरता और आत्म-शासन के रूप में भी परिभाषित किया है। मनुष्य की कल्पना में जो सबसे सुन्दर जीवन पद्धति हो सकती है, उसी को स्वर्ग कहा जाता है। आधुनिक वैचारिकी या जिन्हे भारतीय ऋषियों की परंपरा ज्ञात नही है, वे कहते है कि स्वर्ग मात्र एक कल्पना है, स्वर्ग कोई जगह नहीं होती है। इस सिलसिले में उनकी और से अक्सर अपने तर्क के पक्ष में एक शेर प्रस्तुत की जाती है –
‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये खयाल अच्छा है’
यह स्वर्ग के प्रति अविश्वास है क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति भारतीय ऋषियों की परंपरा से अपने को संबद्ध नही पाता है। भारतीय ऋषियों की परंपरा से अपने को जो संबद्ध पाता है, वह हैं इस राष्ट्र के राष्ट्रपिता कहलाने वाले महात्मा गांधी। इस दुनियां को खासकर इस भारत देश को जिस महापुरुष ने आधुनिकता के सबसे संस्कारित रूप से परिचय कराया है, वह हैं महात्मा गांधी। इस पूरे विश्व ने आधुनिकता की एक विरूपित संस्कृति का स्वरूप पाया है, जिसकी जड़ें केवल भोग और भौतिकता में स्थित है। महात्मा गांधी जी इस पूरे दुनियां के एक ऐसे अनूठे व्यक्ति हैं जिन्होंने आधुनिकता को भी संस्कार से जोड़कर विश्व के समक्ष समग्रता में प्रस्तुत किया और वह संस्कार गुजरात का नही है, वह संस्कार बंगाल का नही है, वह संस्कार पंजाब का नही है, बल्कि वह संस्कार देश और काल को लांघकर वैदिक ऋषियों के स्वप्न में जो विद्दमान था वहां से उत्प्रेरित है।
गांधीजी एक शब्द का उपयोग करते हैं ‘स्वराज’। उनसे पूछा गया कि इसका तात्पर्य क्या है। गांधीजी ने राष्ट्र में इसे प्रतिष्ठित किया था, लेकिन राजनीतिज्ञों ने इसे राजनीति में प्रतिष्ठित कर दिया। जब गांधी जी को स्वराज्य की व्याख्या करने के लिए विवश किया गया, तो गांधीजी ने ‘नवजीवन’ समाचार पत्र में इसकी व्याख्या करते हुए एक लेख लिखा जिसमे उन्होंने कहा कि ‘स्वराज’ का मतलब है ‘रामराज्य’ और जिनको ‘रामराज्य’ सुनकर अच्छा न लगता हो, वे इसको ‘धर्मराज्य’ कह सकते हैं। गांधीजी इस बात से समझौता करने को तैयार नहीं थे कि ‘रामराज्य’ को किसी भी तरह श्रीराम से पृथक करके पहचाना जाए, इसलिए जब उन्हें इसका शब्दांतरण करना पड़ा तो उन्होंने इसे ‘धर्मराज्य’ की संज्ञा दी। सबको मालूम है कि श्रीराम और धर्म एक दूसरे का पर्याय हैं। महर्षि बाल्मीकि कहते हैं –
“रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः॥”
अर्थात राम ही मूर्तिमान धर्म हैं, वह सद्गुण स्वरूप हैं, सत्यवादी हैं और अमोघ पराक्रमी हैं। वह संपूर्ण मानवता के शासक हैं, वैसे ही जैसे इंद्र देवताओं के शासक हैं। गांधीजी का तात्पर्य वही है जो धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी का है। ये दोनो महापुरुष इस देश में थोड़ा आगे पीछे होकर एक ही चिंतन पर एक साथ काम कर रहे थे। भारतवर्ष अपने को ऋषियों का बंशज कहता है, फिर क्यों न यह देश ऋषियों के मूल्यों, ऋषियों के आदर्शों को आत्मसात करे। स्वामी करपात्री जी महाराज ‘मार्क्सवाद और रामराज्य’ नामक पुस्तक लिखते है और उसमे वह कहते हैं कि ‘रामराज्य’ का अर्थ है धर्म नियंत्रित तथा धर्म सापेक्ष राज्य। गांधी जी के ‘स्वराज’ का मतलब है ‘रामराज्य’ और ‘रामराज्य’ का अर्थ है ‘धर्मराज्य’। ऐसे में भारत अपनी व्यवस्थाओं और अपनी प्रबंधन के लिए ‘धर्म निरपेक्ष’ सत्ता और शासन का प्रयोग करता है, जो इस देश के राष्ट्रपिता का अपमान करता है और श्रीराम का भी निरादर करता है। गांधीजी इस बात के आग्रही हैं कि उनका ‘रामराज्य’ विशुद्ध रूप से धार्मिक है, वह राजनीतिक भी नही है, आर्थिक भी नही है और भौगोलिक भी नही है। वह केवल और केवल धार्मिक है क्योंकि गांधीजी स्वयं कहते हैं कि मेरे लिए ‘स्वराज’ का तात्पर्य ‘रामराज्य’ है और ‘रामराज्य’ का तात्पर्य ‘धर्मराज्य’ है।
प्रश्न किया जा सकता है कि गांधीजी ‘रामराज्य’ की जगह ‘स्वराज’ ही क्यों कहा ? उन्होंने ‘स्वराज’ की व्याख्या करते हुए ही ‘रामराज्य’ क्यों कहा? इसका कारण है कि गांधीजी जिस समय इस देश में काम कर रहे थे उस समय इस देश में ईश्वर उपासना की अन्य पद्धतियां भी विकसित हो चुकी थी, जो राम को ईश्वर स्वीकार नहीं करती थी। उन धर्माबलांबियों को भी गांधीजी राष्ट्र का अभिन्न अंग मानते थे, इसीलिए गांधीजी ने रामराज्य को ‘स्वराज’ कहा। गांधीजी की ‘रामराज्य’ का अर्थ है एक ऐसा देश जो अपनी जड़, अपनी जमीन, अपने जल, अपने जंगल और अपनी संस्कृति को पहचानकर उसीमें विकसित होना चाहता है, वह संक्रमित तथा शंकर नही होना चाहता है। उनके अनुसार ‘रामराज्य’ का तात्पर्य है अपने मूल चरित्र में बने रहकर अपने को विकसित करने का संकल्प।
कुछ लोगों का मानना है की ‘रामराज्य’ की संकल्पना अवध की राजधानी अयोध्या पर आधारित है। इस धारणा का विरोध करना उचित नहीं है, लेकिन इसका विस्तार आवश्यक है। ,’रामराज्य’ की संकल्पना के केंद्र में अगर राजधानी अयोध्या है तो वह ‘रामराज्य’ नही है, बल्कि वह मनु का राज्य है, वह इक्ष्वाकु का राज्य है, वह रघु का राज्य है और वह दशरथ का राज्य है। इतने प्रख्यात राजा लोग श्रीराम के पूर्वज है और वे सब के सब इतने महान हैं कि भारत का कण- कण उनके उपकार से दबा हुआ है, भारत के हर कण में उनके त्याग और बलिदान का अमृत सींचा हुआ है, इस सब के बाबजूद रामराज्य की बात क्यों हैं? यह समस्त मानव जाति अपने को जिस महापुरुष का बंश कहती है उस मनु का ही राज्य पृथ्वी का आदर्श राज्य क्यों न हो, उस प्रतिमान राज्य का नाम ‘मानवराज्य’ क्यों नही कहा जाए, उस उत्कृष्ठ राज्य को ‘रामराज्य’ ही क्यों कहा जाए। राम ने कहा कि सिंहासन की सुदृढ़ीकरण ही जब शासक का केंद्रीय लक्ष्य बन जाए, अपनी सिंहासन की सुरक्षा ही उसका परम मकसद बन जाए, तो वह शासक ‘रामराज्य’ की स्थापना नही कर सकता है। श्रीराम ने पहले अयोध्या का राज्य कायम नही किया था, बल्कि ‘रामराज्य’ कायम होता है ‘लंका’ से, ‘रामराज्य’ कायम होता है ‘किष्किंधा’ से, ‘रामराज्य’ कायम होता है ‘केवट’ से और रामराज्य कायम होता है ‘जटायु’ से। राम ने पहले अयोध्या की गद्दी सुरक्षित नही की, राम ने पहले किष्किंधा की गद्दी को सुदृढ़ और न्यायसंगत बनाया, जिस किष्किंधा की सीमा से हरण की जा रही स्त्री की पुकार नही सुनी गई उस किष्किंधा की गद्दी बदल दी गई, उसका शासन और शासक दोनो बदल दिया गया। जिस किष्किंधा के राज्य में उसकी पटरानी अपने राजा को दूसरे के स्त्री से प्रणय निवेदन करते देखकर भी उसे रोक नही सकती हो, ऐसे राजा को बदल ही दिया जाना चाहिए। अयोध्या को आक्रमणों ने कभी परास्त नहीं किया है, अयोध्या नगरी की पहचान यही है कि उसे कोई आक्रमण कर पराभूत नही कर सकता है।’अयोध्या एक बार हारी है। जब अयोध्या राजधानी से ‘रामराज्य’ का आगाज नही हुआ, बल्कि गावों से ‘रामराज्य’ आया है। इस संदर्भ में एक संत की लिखी कविता की कुछ पंक्तियां यहां प्रस्तुत है –
‘चाक नचाते रोते गाते मिट्टी मलते पांव पर ……
रामराज्य की नीव रखी है तिलतील गलते गांव पर
अंधियारों की चमक उजियारों पर कभी न भारी थी
अपराजिता अयोध्या बस अपने ही तम से हारी थी
असमय अस्त हुआ था सूरज सिंहासन के साए में
रघुकुल की गौरव गाथा उस पल कितनी बेचारी थी प्यासी मानवता को पहला अर्घ्य दिया एक केवट ने
नंगे बदन भूखा पेट मजदूरी रखकर दांव पर’ …..
श्रीराम अपने पिता द्वारा शासित अयोध्या को छोड़कर वन की ओर जा रहे हैं और एक केवट कहता है कि मेरे घर में पकाने भर का भी अन्न उपलब्ध नहीं है। घर में मछली बासी रखी है, बासी इसलिए रखी है क्योंकि जिस दिन मछली मिली उस दिन पकाने के लिए मसाला नही मिला और अब वह पक भी नही सकती। वह केवट श्रीराम को नदी के पार उतारकर उनसे अपनी मजदूरी नहीं लेता, राम केवट से अनुग्रह करते है कि सीता के हाथ में अंगूठी है और हम तुम्हारी मजदूरी दे सकते हैं। केवट कहता है कि तुम राजा के बेटा हो, तुम इस लोक में धर्म की स्थापना करने के लिए राज्य तक को त्याग दिया और मैं मजदूर हूं और मेरे पास त्यागने के लिए राज्य नही है, लेकिन मैं अपनी मजदूरी त्याग सकता हूं। यह ‘रामराज्य’ की स्थापना का पहला चरण है। रामराज्य की स्थापना श्रीराम नही करते हैं, बल्कि उनके छोटे भाई भरत करते हैं। जब श्रीराम भरतजी को वापस अयोध्या लौटा देते हैं, तो भरत इस दुविधा में पड़े हैं कि मैं पिता का प्रतिनिधि बनकर अयोध्या में शासन करूं या श्रीराम का प्रतिनिधि बनकर अयोध्या की सेवा करूं, क्योंकि मरते हुए पिता राजा दशरथ मुझे राजा बना गए हैं। भरत ने अपने पिता राजा दशरथ के राजज्ञा को अस्वीकार कर दिया, वह चित्रकूट चले गए और वहां श्रीराम ने उनसे कहा कि तुम पिता के प्रतिनिधि बनकर मत रहो, मेरा प्रतिनिधि बनकर अयोध्या में रहो क्योंकि अयोध्याबासी मेरे बिना नहीं रह सकते हैं और तुम मेरे विकल्प हो, तुम रहोगे तो अयोध्यावासी सनाथ रहेंगे। भरत ने कहा कि मैं वनवासी राम का प्रतिनिधि हूं, ऐसे में राजधानी अयोध्या का भोग करके रहूंगा तो अनर्थ हो जायेगा और भरत ने अयोध्या की सीमा में वनवास स्वीकार कर लिया, नंदीग्राम में रहे। आप कल्पना कर सकते है कि भरत 14 वर्ष तक नही तपे और खपे होते तो क्या ‘रामराज्य’ स्थापित हो सकता था? ‘रामराज्य’ की अवधारणा अपना सिंहासन सुदृढ़ करने से नही आती है, ‘रामराज्य’ केवल ‘त्याग और तपस्या’ से आती है।
गांधीजी की दर्शन को जब देखते हैं और गांधीजी जिस दृष्टि से ‘रामराज्य’ को पहचानने की चेष्टा करते हैं, ऐसे में देखना पड़ेगा कि गांधीदर्शन का मूल क्या है, उनके समग्र दर्शन का प्राण क्या है? वस्तुतः गांधीजी ने कोई पृथक दर्शन प्रतिपादित नही किया है बल्कि भारतीय ऋषि परंपरा से प्राप्त भारतीय दर्शन को ही उन्होंने लोकायित कर दिया है। ऋषियों की परंपरा को लोक में अर्थात आमलोगों के बीच स्थापित करने की अवधारणा हैं। आज जिस राजनीति के सहारे दुनियां संचालित है और उसके प्रतिफल के रूप में दुनियां में त्राहि- त्राहि का शोर हैं, आज राजसत्ताओं के सहारे विकास के नाम पर जगत को नष्ट होते हुए देखते हैं और दूसरी ओर गांधीजी को देखें तो हमे इस बात का पता चलेगा कि विश्व के इतिहास में गांधीजी पहले ऐसे राजनीतिक विचारक थे, जिनके यहां प्रत्येक दिवस प्रार्थनायें होती थी और ‘रघुपति राघव राजा राम’ गाया जाता था। मनुष्यता के कल्याण करने का दावा करने वाले राजनीतिज्ञों द्वारा गांधीजी की ‘रामराज्य’ की ईश्वरीय अवधारणा पर बात करने से मुंह चुराया जाता हैं कि कहीं वे धार्मिक कहे जायेंगे, उनका सेक्युलरिज्म खत्म हो जाएगा और उनकी सार्भौमिकता भंग हो जायेगी। गांधी पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी सारी धारणायें, उनकी सारे विचार श्रीराम से ही शुरू होते हैं और श्रीराम पर ही खत्म होते हैं, गोली लगने पर भी उस व्यक्ति के मुंह से ‘राम राम’ ही निकलता है। यह रामराज्य की स्थापना का चिंतन है। महर्षि व्यास के शब्दों में इसी बात को रखा जाए, तो श्रीमदभागवत पुराण में महर्षि व्यास प्रश्न पूछते हैं कि श्रीराम मानवता को क्या दे गए? जब कोई महापुरुष इस जगत में आता है तो कुछ न कुछ वह संपूर्ण मानवता को देके ही जाता है, श्रीराम क्या दे गए हैं? तब महर्षि व्यास उसके जवाब में लिखते है –
‘स्मार्त विधि विनस्य धर्म दंडक कंटक
सो पद पल्लवम राम आत्मज्योति ततः’
अर्थात अपने चाहनेवालों के अंतःकरण में दंडक वन के कांटों से बिंधे हुए अपने लहूलुहान चरणों की स्थापना करके राम अपने धाम चले गए। एक ओर राम को देखते हैं जिनके चरण दंडक वन के कांटों के कारण खून से लथपथ है और दूसरी ओर महात्मा गांधी को देखते हैं जिनकी लाश खून से लथपथ है, तब समझ में आता है कि गांधी बस्तुतः ‘रामराज्य’ की स्थापना में थे और राम के साथ- साथ चल रहे थे। ‘रामराज्य’ की स्थापना कथाओं से नही होती हैं, ‘रामराज्य’ की स्थापना भोज-भंडारों से नही होती है, बल्कि ‘रामराज्य’ की स्थापना अपने को उत्सर्जित कर देने से होती है, अपना अधिकार छोड़ देने से होती है। अपना अधिकार नही छोड़ना और बराबरी का बटवारा ‘रामराज्य’ की अवधारणा नही है। रूसो का नाम लेलें, कांत, रॉल, रसेल आदि का भी नाम ले सकते हैं जो आधुनिक दार्शनिक माने जाते हैं, उनकी दृष्टि भी कुछ ही किलोमीटर तक ही देख सकते हैं, उन्हें गांधी की ‘रामराज्य’ की अवधारणा पूरी तरह समझ भी नही आयेगी। इसलिए ‘रामराज्य’ को उसकी समग्रता में समझकर ही बापू की ‘स्वराज’ को पूर्णता में समझा जा सकता है।
आज के दिन भारत के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी का भी जन्मोत्सव है, जिन्होंने भारतीय किसानों की हौसला आफजाई की और भारत की ‘हरित क्रांति’ की मजबूत नीव रखी। दूसरी ओर वर्ष-1962 की चीन – भारत युद्ध में भारत की सैन्य शक्ति का भरपूर प्रदर्शन नही होने के कारण हतोत्साहित भारतीय सैनिकों के मनोबल में अपनी कुशल नेतृत्व से 3 वर्ष बाद ही सशक्त ऊर्जा का संचार कर वर्ष-1965 की भारत – पाकिस्तान युद्ध में भारत की विजय की सर्वोत्तम उपलब्धि का परचम लहराया। इन दोनो महापुरुषों के जीवन मूल्य और उनके आदर्श हमेशा मानवता को प्रेरित करती रहेगी और हर मुश्किल की घड़ी में उन्हे मार्गदर्शन करती रहेगी। इन्ही भावनाओं के साथ भारत के इन दोनो महापुरुषों को विनम्र श्रद्धांजलि ….