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बीआरआई समझौता अनुदान, कर्ज या सहयोग ? – डॉ. श्वेता दीप्ति

डॉ श्वेता दीप्ति, हिमालिनी अंक दिसंबर 024। प्रधानमंत्री ओली दो से पांच दिसंबर तक चीन की आधिकारिक यात्रा पर थे । प्रधानमंत्री बनने के बाद इस बार उनकी यह पहली आधिकारिक यात्रा थी । यात्रा से पहले और बाद में पूर्व की ही भांति कई कयास भी लगे और कई दावे भी किए गए । प्रधानमंत्री के द्वारा भारत यात्रा से पहले चीन की यात्रा ने जाहिर तौर पर उनकी दिलचस्पी और प्राथमिकता को पहले ही स्पष्ट कर दिया था । वैसे ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है कि कोई प्रधानमंत्री ने भारत से पहले चीन की यात्रा की हो । ऐसा करने वाले ओली दूसरे प्रधानमंत्री हैं । इससे पूर्व २००८ में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ भी अपनी पहली आधिकारिक यात्रा पर चीन ही गये थे । लीक से हटकर ऐसी यात्राओं का एक सांकेतिक महत्व होता है, जिसमें यह बताने का प्रयास किया जाता है कि आपकी प्राथमिकता में कौन, कहाँ और किस रूप में शामिल है ।

इस यात्रा के दौरान चीनी पक्ष के साथ द्विपक्षीय वार्ता और कई समझौते भी किए किन्तु चर्चा में सिर्फ और सिर्फ बीआर आई है । प्रधानमंत्री ओली के दौरे से पहले इस बात पर व्यापक बहस हुई थी कि चीन के साथ किस तरह की डील की जाए और किस तरह की नहीं । यह बहस विशेष रूप से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत परियोजनाओं के चयन और निवेश के तौर–तरीकों पर केंद्रित थी । सत्तारूढ़ कांग्रेस शुरू से इस बात पर कायम थी कि बीआरआई परियोजना को ऋण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता । यात्रा से पहले ओली ने भी यह घोषणा की थी कि वह कर्ज के रूप में कभी भी इस परियोजना को स्वीकार करेंगे । ऐसा कहने के पीछे प्रधानमंत्री की बाध्यता यह थी कि वर्तमान सरकार की सहयोगी पार्टी कांग्रेस है और गठबन्धन पर कोई आँच ना आए यह दोनों की पार्टी की संयुक्त सोच है । यात्रा से पहले यह भी समझ में आ रहा था कि इस यात्रा से देश के आर्थिक परिवहन और उत्तरी पड़ोसी देशों के साथ कनेक्टिविटी पर प्रभाव पड़ेगा या फिर यह यात्रा केवल सामान्य वित्तीय और तकनीकी सहायता तक ही सीमित रह जाएगी । काफी हद तक यही हुआ भी है क्योंकि बीआरआई के अतिरिक्त जो भी समझौते हुए हैं उनमें नया कुछ भी नहीं है । ऐसे समझौते होते रहे हैं किन्तु वास्तविक धरातल पर इसका कार्यान्वय रसातल में ही है ।

दोनों देशों ने संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति जारी की है जिसके अनुसार चीन के द्वारा नेपाल के लिए आश्वासनों की एक पूरी गठरी लेकर जम्बो टोली आई है । यात्रा पश्चात् जारी संयुक्त बयान का सार कुछ इस तरह का है– दो बिंदुओं में बीआरआई का जिक्र है । पहले बिंदु में कहा गया है कि दोनों पक्ष अपनी विकास रणनीतियों के समन्वय को मजबूत करने के लिए ठोस और उच्च गुणवत्ता वाले बेल्ट एंड रोड सहयोग को आगे बढ़ाने पर सहमत हुए हैं । एक अन्य बिंदु में, यह उल्लेख किया गया है कि दोनों पक्ष ट्रांस–हिमालयी बहुआयामी कनेक्टिविटी नेटवर्क और दोनों सरकारों के बीच बेल्ट एंड रोड सहयोग की रूपरेखा पर जल्द से जल्द समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हैं । संयुक्त बयान में बंदरगाहों, सड़कों, रेलवे, विमानन, पावर ग्रिड और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच कनेक्टिविटी को मजबूत करने की प्रतिबद्धता जताई गई है । बयान के मुताबिक, दोनों पक्ष चीन की मदद से अरनिको राजमार्ग रखरखाव और हिल्सा–सिमकोट सड़क परियोजना के चौथे चरण और काठमांडू रिंग रोड सुधार परियोजना के दूसरे चरण को संयुक्त रूप से पूरा करने पर सहमत हैं । स्याफ्रुबेसी–रसुवागढ़ी राजमार्ग की मरम्मत के दौरान दोनों पक्ष वहां मौजूद बाधाओं को हटाने और उसके बाद के निर्माण कार्य में तेजी लाने पर सहमत हैं ।

नेपाल और चीन तीन उत्तर–दक्षिण गलियारों– कोशी आर्थिक गलियारा, गंडकी आर्थिक गलियारा और करनाली आर्थिक गलियारा– के निर्माण में तेजी लाया जाएगा । संयुक्त बयान में यह भी कहा गया है कि नेपाल और चीन बंदरगाह विकास को मजबूत करने, सीमा शुल्क निकासी और दो–तरफा यात्रा की सुविधा देने, द्विपक्षीय आर्थिक और व्यापार सहयोग को बढ़ावा देने और सीमावर्ती क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने पर भी सहमत हैं । जिलॉन्ग–केरुंग–रसुवागढ़ी बंदरगाह, झांगमु–कोडारी बंदरगाह, पुलान–यारी बंदरगाह और लिजी–नेचुंग बंदरगाह की सुचारू और व्यवस्थित संचालन के लिए दोनों पक्षों द्वारा प्रशंसा की गई । २०२४ में, १४ पारंपरिक नेपाल–चीन सीमा व्यापार बिंदुओं का स्वागत किया गया है, जो द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने और दोनों देशों के सीमावर्ती निवासियों की आजीविका को सुविधाजनक बनाने के लिए महत्वपूर्ण हैं ।
जारी बयान में कहा गया है कि दोनों पक्ष हवाई उद्यमियों को चीनी शहरों और पोखरा और लुम्बिनी जैसे नेपाली शहरों के बीच हवाई उड़ानें संचालित करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे । नेपाल और चीन ऊर्जा सहयोग को और बढ़ाने पर सहमत हुए हैं । बयान के मुताबिक, दोनों पक्ष चीन की मदद से गीलॉन्ग–केरुंग–रसुवागढी–चिलीमें २२० केवी क्रॉस–बॉर्डर पावर ट्रांसमिशन लाइन की व्यवहार्यता अध्ययन में तेजी लाने के लिए तैयार हैं । दोनों पक्ष दोनों देशों के दूरसंचार ऑपरेटरों के बीच सहयोग, सीमा पार तारों की मरम्मत और उन्हें भूमिगत करने पर सहमत हुए हैं । साझा विकास को बढ़ावा देने के लिए, नेपाल और चीन अर्थव्यवस्था और व्यापार, कनेक्टिविटी, बुनियादी ढांचे, निवेश, कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य, आपदा और गरीबी उन्मूलन जैसे क्षेत्रों में व्यावहारिक सहयोग को और मजबूत करने पर सहमत हुए हैं ।

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दोनों पक्ष यथाशीघ्र चीन–नेपाल औद्योगिक पार्क परियोजना विकास समझौते पर हस्ताक्षर करने और औद्योगिक पार्क के निर्माण और संचालन की प्रारंभिक शुरुआत को बढ़ावा देने पर भी सहमत हुए हैं । दोनों पक्ष बीपी कोइराला मेमोरियल कैंसर अस्पताल में चीनी सहायता से बोन मैरो ट्रांसप्लांट सेवा परियोजना को गति देने पर सहमत हुए हैं । बयान के मुताबिक, दोनों पक्ष कैंसर रोगियों के इलाज के लिए काठमांडू के सिविल सर्विस अस्पताल में चीनी समर्थन से एक नई प्रयोगशाला स्थापित करने पर सहमत हैं । दोनों पक्ष भूकंप के बाद पुनर्निर्माण परियोजना को तेज गति से लागू करने पर सहमत हुए हैं । दोनों पक्ष गरीबी उन्मूलन, विकास, आजीविका सुधार और ग्रामीण पुनरुद्धार पर ध्यान केंद्रित करते हुए सहयोग का और विस्तार करने के लिए तैयार हैं । संयुक्त बयान में कहा गया है कि दोनों पक्ष नेपाल–चीन सीमा का संयुक्त रूप से निरीक्षण करने और चीन और नेपाल के बीच सीमा प्रबंधन प्रणाली पर समझौते के शीघ्र कार्यान्वयन के लिए काम करने पर सहमत हुए हैं । ये उधार के आश्वासन की लम्बी सी दास्तान है ।

नेपाल में कार्यान्वयन की प्रतीक्षा में चीन की परियोजनाएँ

चीन ने २०७२ से लेकर अब तक नेपाल के साथ कई समझौते किये हैं । खासकर भूकंप के बाद नेपाल और चीन के बीच कई समझौते हुए हैं । भारत के प्रतिबंध के बाद चीन के साथ पेट्रोलियम उत्पादों पर समझौता भी हुआ, लेकिन अभी तक इसे लागू नहीं किया जा सका है । उसी वर्ष, चीन के साथ एक पारगमन परिवहन समझौते पर हस्ताक्षर किए गए । माना जा रहा था कि इस समझौते से नेपाल को राहत मिलेगी, जो सिर्फ भारत के रास्ते का इस्तेमाल कर तीसरे देशों के साथ व्यापार करता रहा है । समझौते के अनुसार, यह निश्चित था कि चीन के सात बंदरगाहों का उपयोग करके तीसरे देशों से सामान लाने के लिए दरवाजा खोला जाएगा । लेकिन उस समझौते पर भी अमल नहीं हुआ । इसी प्रकार, चीन से अनुदान के माध्यम से प्राप्त परियोजनाओं को भी ठीक से क्रियान्वित नहीं किया जा रहा है । एक ओर जहाँ चीन विकास की तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है । वहीं नेपाल में उनसे जुड़े प्रोजेक्ट परवान चढ़ते नजर नहीं आ रहे हैं । कई परियोजनाएं अभी तक शुरू नहीं हुई हैं । उदाहरण के लिए नारायणगढ़–बुटवल सड़क इसका प्रमुख उदाहरण है । सड़क निर्माण के सात साल बाद भी आधा काम पूरा नहीं हो सका है । काठमांडू–पोखरा रोड का भी यही हाल है ।

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की नेपाल यात्रा को पांच साल हो चुके हैं । २३ वर्षों के बाद किसी चीनी राष्ट्रपति ने नेपाल का दौरा किया था । भारत के रास्ते नेपाल आये राष्ट्रपति शी ने उस समय घोषणा की थी कि वह तीन साल के भीतर ५६ अरब रुपये का अनुदान देंगे इसके साथ ही काठमांडू–केरुंग रेलवे सेक्शन के तहत तोखा–छारे सुरंग बनाने पर भी सहमति बनी थी । ये समझौते आज तक कागजी ही है । वैसे देखा जाए तो इसके कार्यान्वयन में दोनों ही पक्ष दोषी प्रतीत होते हैं । प्रधानमंत्री ओली की इस यात्रा में भी यह पक्ष गौण ही रहा हाँ तोखा–छारे सुरंग के संबंध में पत्रों का आदान–प्रदान अवश्य हुआ है । काठमांडू–केरूंग रेलवे की डीपीआर का काम २०७९ से चल रहा है । दो अरब की लागत से साढ़े तीन साल में पूरा होने की बात कही जा रही डीपीआर का काम तय समय पर पूरा होगा इसमें आज भी शक ही है । सोचा जा रहा था कि प्रधानममंत्री की इस यात्रा में पोखरा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से संबधित मुद्दे को हल किया जाएगा किन्तु यह भी ना हो सका । नेपाल यह कहता रहा है कि वह पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का वित्तीय बोझ नहीं उठा सकता, इसलिए चीन इस कर्ज को अनुदान में बदल दे । इस हवाई अड्डे को बनाने के लिए नेपाल ने चीन के एक्जÞिम बैंक के साथ २८ अरब रुपये के ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । पोखरा हवाई अड्डा घाटे में है और ऋण का भार नेपाल के कंधे पर बढ़ता जा रहा है ।

चीन की कर्जनीति

चीन के साथ के इतने असफल परियोजनाओं के बाद नेपाल के लिए बीआरआई समझौता कितना हितकर साबित हो सकता है यह चिन्तनीय प्रश्न है । दक्षिण एशिया के अंदर चीन की कर्ज नीति (डेब्ट डिप्लोमेसी) को देखते हुए देखा जाए तो इसके असफल होने की है आशंका अधिक है । ज्ञात है कि श्रीलंका के अंदर चीन ने बहुत से ऐसे इंफ्रास्ट्रक्चर खड़े किए हैं जिसे उसकी अर्थव्यवस्था आज तक उपयोग ही नहीं कर पा रही है ठीक इसी तरह, मालदीव के अंदर चीन ने बहुत से बड़े–बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर बना दिये, जो उनके लिए उपयोगी नहीं रहीं । केवल इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने से कुछ नहीं होता है, इसकी सफलता तभी मानी जाएगी जब इन छोटे देशों की अर्थव्यवस्था भी विकसित हो । इस तरह की परियोजनाएं चीन ने पूरे दक्षिण एशिया में बना रखी है । इस परियोजना की आलोचना भी होती रही है । यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी बीआरआई की आलोचना होती है । ऐसी स्थिति में नेपाल के परिदृश्य में भी इसकी सफलता पर संदेह ही है । अगर स्थिति बदलती भी है तो उस हाल में जब चीन नेपाल को बड़ी रियायत देता किन्तु यह एक दिवा स्वप्न ही है क्योंकि चीन हमेशा से अपने आर्थिक हितों को ही महत्व देता है । चीन की यह एक बहुत बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना है । प्रत्यक्ष तौर पर देखा जाए तो बीआरआई का संबंध सिर्फ रेल लाइन और रोड कनेक्टिविटी से नहीं है । बीआरआई द्वारा नीति और आर्थिक समन्वय, रेलवे और राजमार्ग सहित बुनियादी ढांचे, खुले व्यापार और लोगों से लोगों के संबंधों आदि को मुख्य आधार के रूप में लिया गया है । बीआरआई परियोजना के तहत अब तक १५२ देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके हैं ।

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इन सबके बीच एक प्रश्न अक्सर सामने आता है कि आखिर चीन अन्य देशों को इतना कर्ज क्यों देता है ? निम्न और मध्य आय वर्ग के देशों को दिया जाने वाला उसका कर्जÞ पिछले एक दशक में बढ़ कर तिगुना हो गया है । २०२० के आखिर तक यह रकम बढ़ कर १७० अरब डॉलर तक पहुँच चुकी थी । हालाँकि ये आँकड़े पूरे नहीं हैं । चीन ने इससे भी ज्यादा कर्जÞ देने का वादा कर रखा है । अमेरिका की विलियम एंड मेरी यूनिवर्सिटी में मौजूद अंतरराष्ट्रीय विकास संगठन ऐड डेटा की रिसर्च के मुताबिक चीन ने विकासशील देशों को जो कर्ज दिया है उसकी आधी रकम के बारे वहां के आधिकारिक आँकड़ों में कोई जिक्र नहीं है । इस तरह के आंकड़ों को सरकारी बजट में नहीं दिखाया जाता है । यह सीधे सरकारी कंपनियों, बैंकों, सरकार के साझा उद्यमों और निजी संस्थानों के खाते में डाल दिया जाता है । इसका मतलब यह है कि चीन सरकार सीधे किसी सरकार को कर्ज नहीं दे रही है । ऐड डेटा के मुताबिक दुनिया में निम्न और मध्य आय वर्ग वाले ऐसे ४० से अधिक देश हैं, जिनकी कुल जीडीपी में चीनी कर्जÞ की हिस्सेदारी बढ़कर दस फीसदी से भी ज्यादा हो गई है । यह ‘चीन के छिपे हुए कर्जÞ’ का नतीजा है । चीन पर आरोप लगता रहा है कि उससे कर्जÞ लेने वाले देश जब इसे चुका नहीं पाते हैं तो वह उनकी संपत्तियों पर कब्जा कर लेता है । लेकिन वह इस तरह के आरोपों को खारिज करता रहा है । चीन की इस नीति के समर्थन में अक्सर श्रीलंका का उदाहरण दिया जाता है । उसने कुछ साल पहले चीनी निवेश की मदद से हम्बनटोटा में एक बड़ी बंदरगाह परियोजनाओं की शुरुआत की थी । लेकिन चीन के कर्जÞ और कॉन्ट्रैक्टर कंपनियों की मदद से शुरू की गई अरबों डॉलर की यह परियोजना विवाद में फंस गई । परियोजना पूरी नहीं हो पा रही थी और श्रीलंका चीन के कर्जÞ तले दबा हुआ था । आखिरकार २०१७ में एक समझौता हुआ । इसके मुताबिक चीन की सरकारी कंपनियों को ९९ साल की लीज पर इस बंदरगाह की ७० फीसदी की हिस्सेदारी दे दी गई । तब जाकर चीन ने इसमें दोबारा निवेश शुरू किया । श्रीलंका ही नहीं दुनिया के कई इलाकों में चीन की कर्ज नीति विवाद के घेरे में आ चुकी है । पाकिस्तान और मालदीव भी चीन के बड़े कर्जदार हैं । लाओस में छह अरब डालर की लागत से रेल परियोजना के निर्माण में ७० प्रतिशत हिस्सा चीन का है । लाओस का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डालर से भी नीचे पहुंच जाने से मूडीज को उसे एक –जंक स्टेट– घोषित करना पड़ा । इसी प्रकार ६२ अरब डालर की सीपीईसी यानी चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर में बलूचिस्तान के ग्वादर पोर्ट के विकास के नाम पर चीन का कब्जा है ।

चीन के डेढ़ अरब डॉलर कर्ज के बदले श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह सौंपना पड़ा और हाल में ही कोलंबो बंदरगाह भी चीन को दे चुका है । वर्ष २०१७ में चीन से एक अरब डालर की रकम का कर्ज तथा बेल्ट एंड रोड के तहत ३० अरब डॉलर का निवेश करने से मंगोलिया के लिए इस कर्ज से बाहर निकलना आसान नहीं है । बंदरगाह विकसित करने और यातायात नेटवर्क को बढ़ाने के लिए मोंटेनेग्रो भी चीनी कर्ज के जाल में फंस गया है । तजाकिस्तान कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है जिसमें कुल विदेशी कर्ज में चीन का हिस्सा ८० प्रतिशत है । किर्गिस्तान में वर्ष २०१६ में चीन ने १.५ अरब डालर निवेश किया था । कुल विदेशी कर्ज में चीन का ४० प्रतिशत हिस्सा है । इसी प्रकार आधारभूत ढांचा विकसित करने के नाम पर कांगो, कंबोडिया, बांग्लादेश, नाइजर और जांबिया जैसे देशों को चीन ने उनकी जीडीपी के २० प्रतिशत से अधिक कर्ज दिया है ।
जिबूती में चीन का १० अरब डॉलर का निवेश है । जिबूती का कर्ज उसकी जीडीपी का ८५ प्रतिशत है । इसी प्रकार युगांडा को कर्ज जाल में फंसाकर वहां का एक मात्र अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट को चीन अपने कब्जे में ले चुका है । अफ्रीका में अपनी पैठ और ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए चीन ने कोयला व जिंबाब्वे के प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन किया है फलस्वरूप वहाँ के जंगल, जानवर और जमीन को भारी नुकसान पहुंचा है । अफगानिस्तान में भी कुछ वर्षों से चीन की दिलचस्पी अपने –बेल्ट एंड रोड– को लेकर बढ़ी है । चीन वहाँ के लिथियम भंडार पर एकाधिपत्य चाहता है । चीन के न्यू सिल्क रोड परियोजना में यूरोप के २० से अधिक देश शामिल हैं । इसमें रूस भी शामिल है । ग्रीस में चीन ने एक बंदरगाह को विकसित करने का खर्च उठाया है । वहीं चीन सर्बिया, बोस्निया–हर्जेगोविना और नार्थ मैसिडोनिया में सड़क और रेलमार्गों के निर्माण पर निवेश कर रहा है, जो डेट–ट्रैप का ही हिस्सा है ।

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नेपाल में बीआरआई कितना हितकर ?

आज नेपाल के लिए भी बीआरआई के तहत चिन्ता इसी बात की है । बेहिसाब कर्ज से आत्मनिर्भरता तो खत्म होती ही है, साथ में संप्रभुता भी खतरे में पड़ जाती है । चीन के कर्ज की इस साजिश को दुनिया समझने लगी है कि चीन कोई भलाई का काम नहीं कर रहा है, बल्कि यह सब उसकी विस्तारवादी नीति का हिस्सा है । आज प्रधानमंत्री के चीन यात्रा के दौरान हुए बीआरआई समझौते को लेकर स्थिति बिल्कुल अस्पष्ट है । समझौते में अनुदान की जगह सहायता शब्द जोड़ा गया है । जिसकी सही व्याख्या फिलहाल अस्पष्ट है । कहा जा रहा है कि यह समझौता ‘कुछ सहायता है और कुछ कर्ज’ किन्तु कितनी सहायता और कितना कर्ज है इसकी सही अवधारणा सामने नहीं आ रही है ।

नेपाल द्वारा प्रस्तुत ’बेल्ट एंड रोड सहयोग की रूपरेखा’ पर चीन द्वारा प्रस्तावित बीआरआई कार्यान्वयन योजना के विकल्प के रूप में हस्ताक्षर किए गए हैं । रूपरेखा की भाषा में अनुदान को सहायता शब्द से बदलने पर सहमति बनी है । प्रारंभ में, नेपाली पक्ष ने रूपरेखा के मसौदे में ‘ग्रान्ट फाइनान्सिङ कोआपरेसन मोडालिटी’ शब्द रखा गया था । इसके बाद चीनी पक्ष ने अनुदान शब्द हटा दिया और केवल ‘ग्रान्ट फाइनान्सिङ कोआपरेसन मोडालिटी’ रखकर ड्राफ्ट नेपाल को लौटा दिया था । हालाँकि, अंत में, नेपाली पक्ष ने अनुदान या सहमति के बजाय ‘एड असिन्टेन्स फाइनासिङ’ की पेशकश की । इसके बाद ही चीनी पक्ष समझौते पर हस्ताक्षर करने को तैयार हुआ ।

समझौते पर नेपाल की ओर से विदेश मंत्रालय के सचिव अमृत बहादुर राय और चीन की ओर से नेसनल डेभलपमेन्ट एन्ड विकास रिफार्म कमिसन के उपाध्यक्ष लिउ सुसे ने हस्ताक्षर किए । नेपाल द्वारा प्रस्तावित परियोजनाओं में तोखा–छारे सुरंग, हिल्सा–सिमकोट रोड, किमाथांका–खांडबारी रोड और पुल, गीलॉन्ग–केरुंग–काठमांडू क्रॉस–बॉर्डर रेलवे, ददेलधुरा में अमरगढ़ी सिटी हॉल, गीलॉन्ग–केरुंग–रसुवागढ़ी चिलिमे २२० केवी क्रॉस–बॉर्डर ट्रांसमिशन शामिल हैं ।

विशेषज्ञों के मुताबिक, नेपाल में बीआरआई फ्रेमवर्क लागू होने पर दोनों देशों के बीच इस बात पर सहमति बनी है कि इस प्रोजेक्ट को ‘सहायता’ फ्रेमवर्क के तहत आगे बढ़ाया जाएगा । सहायता का अर्थ विकास सहायता के रूप में समझा जाना चाहिए जिसमेंं वाणिज्यिक दरों और बाजार ब्याज दरों वाले ऋण शामिल नहीं होते हैं । यह अनुदान, सहायता या कर्ज शब्दों का जाल है या सचमुच चीन की नेपाल के लिए सहायता भावना यह तो समय बतायेगा । वर्तमान में तो यह है कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत नेपाल को चीन के कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स से जोड़ा जा रहा है । हालांकि, आलोचकों का मानना है कि यह सहयोग नेपाल को चीन के कर्ज के जाल में और गहराई तक धकेल सकता है । चीन और भारत के रिश्ते को देखते हुए नेपाल के इस निर्णय से तनाव की स्थिति अवश्य बनती है । क्योंकि नेपाल अपने अधिकांश व्यापार और ईंधन आपूर्ति के लिए लंबे समय तक भारत पर निर्भर रहा है । नेपाल का दो–तिहाई व्यापार भारत के साथ होता है, जबकि चीन के साथ केवल १४% का व्यापार है । बावजूद इसके, चीन अब नेपाल का सबसे बड़ा कर्जदाता बन गया है । पोखरा में चीन द्वारा निर्मित अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा इस बढ़ती निर्भरता का प्रतीक है । लेकिन भारतीय हवाई क्षेत्र का उपयोग न कर पाने जैसी चुनौतियों ने इस परियोजना की उपयोगिता पर सवाल खड़े कर दिए हैं ।

ओली की चीन–समर्थित परियोजनाओं को लेकर देश में विपक्षी दल और गठबंधन सहयोगी आलोचना कर रहे हैं । उनका मानना है कि चीन से कर्ज लेकर शुरू की जा रही परियोजनाएं नेपाल को दीर्घकालिक आर्थिक संकट में डाल सकती हैं । २०१६ में भारत द्वारा छह महीने के लिए तेल आपूर्ति रोकने के बाद ओली ने चीन से पेट्रोलियम आयात का समझौता किया था, जिससे भारत पर निर्भरता कम करने का प्रयास शुरू हुआ ।
लेकिन अब विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं कि क्या चीन पर बढ़ती निर्भरता नेपाल के लिए भारत से दूरी बनाने का सही विकल्प है ? कर्ज की बढ़ती मात्रा और परियोजनाओं के स्थायित्व को लेकर बढ़ती चिंताओं ने ओली की नीति पर गहरी बहस छेड़ दी है । नेपाल का यह झुकाव कूटनीति का एक नया अध्याय तो जरूर है, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव नेपाल के आर्थिक और रणनीतिक भविष्य के लिए कितने लाभकारी होंगे यह भविष्य के गर्भ में है ।

डॉ श्वेता दीप्ति
सम्पादक, हिमालिनी

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