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त्रिपक्षीय कूटनीतिक व्यूह और नेपाल : अजय कुमार झा

अजयकुमार झा, हिमालिनी अंक जनबरी 025। नेपाल, २०२६ तक मध्यम आयवाले देश की श्रेणी मे खुद को स्थापित करने की आकांक्षा से अभिप्रेरित होकर संयुक्त राष्ट्र के ३२ पृष्ठीय ‘भविष्य के लिए समझौता’ को नेपाल ने अनुमोदन किया । बढ़ती वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों द्वारा अपनाई गई ‘भविष्य के लिए संधि’ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सतत विकास के प्रति एक नई प्रतिबद्धता का आधार स्थापित करती है । इस महत्वाकांक्षी समझौते को ऐसे समय में अपनाया गया है जब विश्व में गंभीर परिवर्तन हो रहे हैं तथा विनाशकारी जोखिम बढ़ रहे हैं । इसके साथ ही तीव्र परिवर्तनों के साथ तालमेल बनाए रखने तथा सतत विकास लक्ष्यों की दिशा में प्रगति में तेजी लाने के लिए एक मजबूत बहुपक्षीय प्रणाली की आवश्यकता है । नेपाल ने २०१५ से सतत विकास लक्ष्यों को अपनाया है । इन लक्ष्यों की समीक्षा के दौरान, देश ने महत्वपूर्ण प्रगति की है, तथा अपने मध्यम–अवधि (२०२२) लक्ष्य का ५८.६ प्रतिशत और अपने दीर्घकालिक (२०३०) लक्ष्य का ४१.७ प्रतिशत हासिल किया है । यह प्रगति सरकार के सभी स्तरों पर देखी जा सकती है क्योंकि नेपाल का संघीय ढांचा, जिसमें इसके ७ प्रांत और ७५३ स्थानीय सरकारें शामिल हैं, सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन और स्थानीयकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । नेपाल को २०३० तक सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए १६३ बिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता है । यह राशि २०२४ से २०३० की अवधि के लिए नेपाल के सकल घरेलू उत्पाद के कम से कम ११ प्रतिशत के बराबर है ।

 

किसी भी देश के लिए भू–आर्थिक व्यवस्था को भू–राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है और उसी के अनुसार भावी रणनीति और योजनाएं बनाई जाती हैं । विश्वव्यापीकरण के इस आधुनिक युग में आंतरिक हो वाह्यनीति; उसे विश्व परिप्रेक्ष्य के आधार पर ही सफल बनाया जा सकता है । वैश्वीकरण द्वारा निर्मित वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में कोविड–१९ के कारण उत्पन्न गंभीर व्यवधान, तथा एक देश पर अत्यधिक निर्भरता के संकट ने भू–राजनीतिक विभाजन की स्थितियाँ पैदा कर दी । चीन, जो अपनी निर्माण सामग्री और अन्य औद्योगिक उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है, पर निर्भरता के कारण कोरोनावायरस महामारी जैसे संकट के दौरान आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान उत्पन्न हुआ । जब विश्व एक अप्रत्याशित संकट का सामना कर रहा था, तो अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया, जिससे उसकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मित्रवत और साझेदार देशों में स्थानांतरित होने या देश के भीतर बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के लिए मजबूर होना पड़ा, ताकि ऐसी स्थिति से बचा जा सके । परिणामस्वरूप, १९८० के दशक में शुरू हुई वैश्वीकरण की उन्मुक्त यात्रा समाप्त हो गई ।
वैश्वीकरण, जो अमेरिकी नेतृत्व में तीन दशकों से निर्बाध यात्रा पर था, अंततः अमेरिकी नेतृत्व को उखाड़ फेंका गया । चीन, जो २१वीं सदी की शुरुआत में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ, ने बहुत ही कम समय में बहुत लाभ उठाया । इससे नाराज होकर, संयुक्त राज्य अमेरिका चीन के वैश्विक प्रभाव पर अंकुश लगाना चाहता था । अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी, सस्ते श्रम और कच्चे माल के कारण, चीन में उत्पादित माल दुनिया में सबसे सस्ता और उपयोगी है, जिससे विकसित देशों के लिए भी प्रतिस्पर्धा करना असंभव हो गया । इससे अमेरिकी उद्योगों को भी बंद करना पड़ा । व्यापार युद्ध के नाम से जाना जाने वाला यह युद्ध धीरे–धीरे प्रौद्योगिकी क्षेत्र तक फैल गया । चीन के तेजी से विकसित हो रहे तकनीकी क्षेत्र, जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), सुपरकंप्यूटिंग, क्वांटम कंप्यूटिंग इलेक्ट्रिक वाहनों (ई.वी.), सौर पैनलों और लिथियम बैटरी और अंतरिक्ष अन्वेषण में चीन किसीसे पीछे नहीं है । अमेरिका और यूरोप ने चीन के उत्पादों को नजरअंदाज करते हुए अपने घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए नीतियां आगे लाई हैं । अमेरिका के तात्कालीन ट्रम्प सरकार ने भूत के गलतियों को सुधारते हुए सुरक्षित भविष्य को ध्यान मे रखकर चीन से आयातित वस्तुओं पर १० प्रतिशत तथा मैक्सिको और कनाडा से आयातित सभी वस्तुओं पर २५ प्रतिशत कर बढ़ा दिया है । परंतु हमारी मूढ़ सरकार ने स्थापित उद्योगों को भी बंद करा दिया और पार्टी के गुलाम उनके स्वागत मे हिजड़ों की भाति ताली पीटते रहे ।

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बी.पी. कोइराला केवल १८ महीने तक प्रधानमंत्री रहे, फिर भी वे पड़ोसी देश चीन और भारत के साथ, किस प्रकार संचालित किए जाने चाहिए, इस बारे में महत्वपूर्ण सबक सिखाने में सफल रहे । बीपी के दौर में नेपाल की विदेश नीति ने हमें सिखाया है कि भौगोलिक दृष्टि से बड़ा, दुनिया में मौजूदगी और प्रभाव के मामले में शक्तिशाली और संसाधन संपन्न देश भी दूसरों के मामलों में बेवजह नहीं बोल सकता । नेपाल और चीन के बीच सीमा समझौते पर १९६० में हस्ताक्षर हुए थे तथा सीमा संधि पर एक वर्ष बाद, १९६१ में हस्ताक्षर हुए थे । जब दोनों देश अपनी सीमाओं के निर्धारण हेतु संधि पर हस्ताक्षर करने की तैयारी कर रहे थे, तब चीन ने माउंट एवरेस्ट पर अपना दावा किया । इस बीच, भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने १९५० में राणाओं के साथ हस्ताक्षरित नेपाल–भारत शांति और मैत्री संधि के प्रावधानों पर अपनी टिप्पणी को आधार बनाते हुए कहा कि नेपाल में हस्तक्षेप भारत में भी हस्तक्षेप है । यह महसूस करते हुए कि नेहरू के बयान से स्थिति और बिगड़ सकती है, बी.पी. ने नेहरू को संदेश भेजा कि चीन और नेपाल के मामले में किसी अन्य देश, भारत, का समर्थन आवश्यक नहीं है । दूसरी ओर, प्रधानमंत्री के रूप में, बीपी ने चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई के साथ गहन वार्ता की, जिसमें उन्होंने ठोस तर्क और तथ्यों का उपयोग किया, बिना यह आभास दिए कि वे किसी छोटे या कमजोर राष्ट्र के प्रतिनिधि हैं । झोऊ एनलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह घोषणा करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि उन्होंने नेपाल द्वारा प्रस्तुत किए गए आधारों और दस्तावेजों के आधार पर माउंट एवरेस्ट पर चीनी दावे को त्याग दिया है । प्रधानमंत्री के रूप में बी.पी. खम्पा विद्रोह को दबाने के नाम पर चीनी सेना नेपाल में घुस आई और एक नेपाली सैन्य अधिकारी की हत्या भी कर दी । बीपी ने स्वयं पहल करके चीनी प्रधानमंत्री को पत्र लिखे, और लंबी खींचतान के बाद चीन ने मृतक सूबेदार बाम प्रसाद के परिवार को ५०, ००० रुपए देने पर सहमति जताई ।

 

नेपाल, जो दो बड़े देशों के बीच स्थित है, को न केवल दोनों पड़ोसियों की संवेदनशीलता को समझना चाहिए तथा यदि कोई उन्हें नुकसान पहुंचाने या उनसे छेड़छाड़ करने का प्रयास करता है तो उन्हें चेतावनी देनी चाहिए, बल्कि अपनी संवेदनशीलता से भी उन्हें अवगत कराना चाहिए तथा उनकी सहमति और सहयोग प्राप्त करना चाहिए । इस मामले में, बीपी युग की उपरोक्त दो घटनाएं और उनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण उदाहरण हैं । अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अनुभव और संयम से रहित कार्यशैली तथा निर्णय आत्मघाती ही नहीं सर्वनासी भी होता है । इतिहास और विवेक का मजाक उड़ाना विनाश को आमंत्रित करता है । दुर्भाग्यवश, इन शाश्वत बातों की अनदेखी करके नेपाल आंतरिक कलह और विदेशी सामरिक हितों का अड्डा बनता जा रहा है । चिंता की बात यह है कि जिस विदेश नीति ने तीन सौ वर्षों तक दक्षिण एशिया में सत्ता पर काबिज रहे विस्तारवादी मुगलों और साम्राज्यवादी अंग्रेजों से राष्ट्रीय स्वतंत्रता की रक्षा की, वही नीति अब नेपाल के लिए संकट का कारण बन रही है । भारत और चीन के बीच घोषित शत्रुता के बावजूद, जिसने १९६२ के युद्ध के बाद लंबे समय तक सामान्य संबंधों को निलंबित कर दिया था, और अमेरिका और चीन के बीच, नेपाल की कूटनीति, जिसने तीनों देशों के साथ विश्वास और सहयोग के बहुत ही सुखद संबंध बनाए रखे थे, वर्तमान में संकट का सामना कर रही है ।
ध्यान रहे ! राजनीतिक और कूटनीतिक आपदाएं अचानक नहीं आतीं, यह कोई भूकंप नहीं है, लेकिन गैरजिम्मेदाराना बयानों और अनिश्चित व्यवहार ने धीरे–धीरे नेपाल के विदेशी संबंधों में अविश्वास बढ़ा दिया है, जिसका एहसास आने–जाने वालों को नहीं हुआ है । आत्म–केन्द्रित सोच सर्वोपरि हो गयी ।

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चूंकि राजनीतिक नेतृत्व की यह मानसिकता बन गई है कि नेपाली और विदेशी सभी को हमेशा मूर्ख बनाया जा सकता है, इसलिए सभी दलों के प्रति अविश्वास बढ़ गया है । इस अवधि के दौरान हुई उथल–पुथल के कारण कूटनीतिक विफलताएं उत्पन्न हुईं और राष्ट्रीय राजनीति पर दबाव पड़ा । लेकिन जब राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक स्थितियां इतनी विकट होने लगी हैं कि उन्हें यातनाएं देनी पड़ रही हैं, तब भी सत्ता में बैठे लोगों ने एक–दूसरे के सामने दिखावा करने और अजनबियों के प्रति खुले रहने की आदत नहीं छोड़ी है । परिणामस्वरूप, नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों में किसी तीसरे पक्ष के शामिल होने तथा राष्ट्रीय राजनीतिक स्वामित्व नेपाली जनता के हाथों से निकल जाने का खतरा स्पष्ट हो गया है । जी हां, नेपाल इस समय विदेशी मामलों में संकट से गुजर रहा है । यदि इस संकट का तत्काल समाधान नहीं किया गया तो संघर्ष की आग को और भड़काने का दौर शुरू हो जाएगा, जिससे आंतरिक राजनीति, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और तीसरे देशों के साथ संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । संकीर्ण सोच वाला और चमचों की भीड़ से प्रशंसा सुनकर संतुष्ट होने वाला नेतृत्व यह समझने में विफल रहा है कि राजनीतिक अस्थिरता कितनी विनाशकारी है । और कूटनीतिक विफलता जो पहले ही उजागर हो चुकी है, वह देश के लिए कितना घातक सिद्ध होनेवाला है । भारत, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका की रणनीतिक नजर में आने के बाद नेपाल को ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा, जिसका उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था । लेकिन राजनीतिक नेतृत्व इसकी संवेदनशीलता को समझने, खुद में सुधार करने, अपनी कार्यशैली को दुरुस्त करने तथा यह समझने के लिए तैयार नहीं है; कि राज्य चलाने के लिए विशेषज्ञता और अनुभव की आवश्यकता होती है ।

लेन–देन के माध्यम से सत्ता में आने, फूट के माध्यम से राज्य प्रशासन के तंत्र को विभाजित करने और राज्य के पदों को नीलाम करने की शैली से महत्वपूर्ण राज्य तंत्र कमजोर हो गए हैं । नेपाल ने तब भी इस ओर ध्यान नहीं दिया, जब क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में परिवर्तन शुरू हो गया था, जिसका सीधा असर उस पर पड़ सकता था, और जब भारत, चीन और अमेरिका के बीच संबंधों में रणनीतिक समायोजन और पुनर्संरेखण की नाजुक प्रक्रिया शुरू हो गई थी । रणनीतिक संस्कृति विकसित करने, राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रमुख तंत्रों और उसे निर्देशित करने वाली राष्ट्रीय नीति को सरकार में दलों या व्यक्तियों में परिवर्तन से अछूता रखने का कोई प्रयास नहीं किया गया । परिणामस्वरूप, शासन कौशल और कूटनीतिक कौशल की उपेक्षा की गई । विदेशी संबंधों और विदेश नीति के मार्गदर्शक सिद्धांतों का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति को भी बरी कर दिया गया, जो समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं और नेपाल के लिए लाभकारी साबित हुए हैं । सरकार बदलने के साथ ही विदेश नीति में कभी एक पक्ष तो कभी दूसरे पक्ष का साथ देने की शैली ने आंतरिक सहमति और बाह्य विश्वसनीयता खोनी शुरू कर दी ।
नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका तीन प्रमुख देश हैं । भारत एक उभरती हुई शक्ति है, जबकि चीन एक उभरती हुई शांतिपूर्ण सभ्यता वाला देश है जो संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ प्रतिस्पर्धा करने की कगार पर है । अमेरिका एक वैश्विक पश्चिमी शक्ति है । नेपाल की प्राथमिकताएं हैं– पहले भारत, दूसरे चीन, तथा तीसरे अमेरिका और विकसित देश । भारत, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका नेपाल को अपने प्रभाव में रखने के लिए कूटनीतिक रस्साकशी में लगे हुए हैं । नेपाल विभिन्न विदेशी प्रलोभनों और समर्थन का शिकार होता रहा है । किसी संप्रभु देश के लिए भू–राजनीतिक संकटों और जोखिमों के अलावा, आंतरिक राजनीति में अस्थिरता के कारण राज्य–राष्ट्र या राष्ट्र–राज्य कमजोर स्थिति में होता है । दूसरी ओर, यह व्यापक धारणा है कि स्थायी और अस्थायी सरकारें राजनीति में फंसी हुई हैं । राष्ट्रीय हितों के अनुरूप निर्णय लेने और दबाव, पूर्वाग्रह और मनमानी मानसिकता को न्यूनतम रखते हुए उनके पूर्ण कार्यान्वयन पर जोर देना कोई नया विचार नहीं है । यह सच नहीं है कि राजनीति में कूटनीति सबसे अच्छी है, लेकिन राजनीति में कूटनीति का अपना ही महत्व है । राजनीति और कूटनीति की भी सीमाएं और अंतर्संबंध होते हैं । यदि इसे संतुलित और नियंत्रित नहीं किया गया तो यह महा विनास के कारक बन सकता है ।

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वैश्विक राजनीति और कूटनीतिक युद्ध का वर्तमान परिदृश्य काफी जटिल और गतिशील है । दुनिया भर में कई तरह के तनाव और संघर्ष देखने को मिल रहे हैं ।
८ महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धाः अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा वैश्विक राजनीति का केंद्र बिंदु बन गई है । दोनों देश आर्थिक, सैन्य और तकनीकी क्षेत्र में एक–दूसरे को चुनौती दे रहे हैं ।
८ क्षेत्रीय तनावः कई क्षेत्रों में तनाव बढ Þ, जैसे कि मध्य पूर्व, यूक्रेन, दक्षिण चीन सागर । ये तनाव अक्सर सीमा विवादों, धार्मिक मतभेदों और संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा के कारण होते हैं ।
८ आतंकवाद का खतराः आतंकवादी संगठन दुनिया भर में अस्थिरता फैला रहे हैं । आईएसआईएस जैसे संगठनों ने कई देशों में हमले किए हैं और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा बने हुए हैं । नेपाल भी धार्मिक कट्टरता के चंगुल में फस चुका है । सत्ता लोलुपता के कारण भविष्य में यहाँ कुछ भी संभव होता हुआ दिखाई दे रहा है ।
८ महामारी का प्रभावः कोविड–१९ महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति को गहराई से प्रभावित किया है । महामारी के कारण नेपाल जैसे कई देशों के बीच तनाव बढ़ा है और वैश्विक सहयोग कमजोर हुआ है ।
८ जलवायु परिवर्तनः जलवायु परिवर्तन एक गंभीर वैश्विक चुनौती है, जो नेपाल जैसे कई देशों के लिए खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन और आर्थिक विकास के लिए खतरा पैदा कर रहा है ।

अजय कुमार झा
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