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बसंत चौधरी का रचना संसार  मर्म को छूती संवेदनशील दुनिया : श्वेता दीप्ति

डॉ. श्वेता दीप्ति, हिमालिनी फरवरी २०२५ अकं । 
एक शख्शियत, कई रूप चर्चा किसकी करूं, एक समाजसेवी की, एक उदार और भावुक हृदय की, एक सफल उद्योगपति की या अपने मन के सागर में डूबते उतराते और भावनाओं को शब्दों में गुम्फित कर हमारे सामने ‘आँसुओं की सियाही’, ‘मेघा’, ‘वसंत’, ‘चाहतों के साए’, ‘अनेक पल और मैं’ के बाद ‘वक्त रुकता नहीं’ और ‘ठहरे हुए लम्हे’ प्रस्तुत करने वाले कवि एवं साहित्यकार बसन्त चौधरी की ? सच तो यह है कि आपका हर पहलू एक पहचान के साथ यह जरूर बताता है कि आप एक असाधारण व्यक्तित्व के मालिक हैं । बावजूद इसके सामान्य इंसान की तरह आपके दिल में एक मासूम दिल धड़कता है जो हर आम इंसान की तरह हँसना भी जानता है और रोना भी, तड़पना भी जानता है और फिर खुद को समझाना भी, मनाना भी जानता है और रूठना भी । एक प्रेमिल दिल जिसमें अपनों के लिए ही नहीं बेगानों के लिए भी और अपनी जन्मभूमि के लिए अगाध स्नेह और सम्मान भरा है । आपके संग्रहों में सभी रूपों का सम्मिश्रण है । एक ओर जहाँ प्रेम है उस प्रेम में मिलन विरह का एक साथ अवलोकन कराया गया है तो दूसरी ओर राष्ट्र के प्रति स्वयं को समर्पित कर देने का का भाव है, कोई भी कवि अपने मनोभावों के माध्यम से लोगों के साथ एक आंतरिक संबंध स्थापित करता है, जिसमें आप सिद्धहस्त हैं ।

कुछ वर्ष पूर्व आपकी हिन्दी की पहली कविता संग्रह आई थी ‘आँसुओं की सियाही से’ । इसके पूर्व आपकी लेखनी अनवरत नेपाली भाषा में अपनी भावनाओं को व्यक्त करती आई थी । ‘आँसुओं की सियाही से’ के लिए मुम्बई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष एवं आलोचक डॉ.करुणाशंकर ने कहा है कि ये प्रेमिल स्वभाव और सौन्दर्य बोध की कविताएँ हैं जो सच भी है क्योंकि कवि खुद कहता है कि–
जब भी कभी उसे हमारी याद आएगी÷ बीते दिनों की दास्ताँ दिल को तड़पाएगी÷ निकाल फेकेगी पहले तो किताब से तस्वीर मेरी÷ उठकर फिर उसे चूमेगी ÷और दामन भीगने तक आँसू बहाएगी । कभी रोएगी÷ कभी हँसेगी÷ और कभी आँसुओं की सियाही से लिखी÷ मेरी गजल गुनगुनाएगी । क्यों ऐसा नहीं लगता कि ये सब कहीं ना कहीं हमारे ही जज्बात हैं ? बस यही महसूस होना कवि की लेखनी की सार्थकता है ।
बात करूँ अगर वसंत की तो ‘वसंत’! नाम का असर कुछ ऐसा कि, चेहरे पर मुस्कान आ जाय । मौसम की बेरुखी से निजात दिलाता वसंत हर दिल अजीज होता है । जी हाँ ! इस मौसम की तासीर ही कुछ ऐसी होती है कि संयोग या वियोग इन दोनों ही पलों में सहृदयी इस मौसम का भरपूर फायदा उठाते हैं । इस संग्रह की भी हर पंक्तियाँ पूरी तासीर के साथ पाठक के दिलों में उतरती है जब कवि कहते हैं कि–

शून्य कुछ भी नहीं होता
लेकिन वही सत्य है–शाश्वत सत्य है ।
मुझे बोध होता है यही है केवल यही
मेरा अंतिम रूप ।”
तो हम इस सच से वाकिफ होते हैं कि शून्य कुछ भी नहीं होता । पर शून्य के अस्तित्व पर ही ब्रह्माण्ड टिका हुआ है । सृष्टि का सच और जीवन की परिभाषा ही शून्य है । आदि और अन्त शून्य है, पर इसी शून्य को जब विस्तार मिलता है, तो जीवन के कई रूपों को इसमें आकार मिल जाता है और वही सार्थक जीवन शाश्वत सत्य बन जाता है । कवि की रचना और उनकी रचनात्मकता ही उनके व्यक्तित्व की सार्थकता है और वही शाश्वत सत्य भी, जो चिरायु है और अशेष भी ।

वसंत की कविताओं में बेचैनी है, विकलता है स्वयं के अस्तित्व को लेकर प्रश्न है क्योंकि जब कवि यह कहता है कि–
“निःशब्द
ऐसा सशक्त शब्द है जो किसी दूसरे शब्द में कभी नहीं ढलता
जीवन भी मुझे ऐसा ही लगता है
न रंग, न रूप, कोई ताना बाना
कभी किसी अर्थ में परिभाषित नहीं होने वाला
अपरिभाषेय ।”
तो जाहिर तौर पर उनकी बैचेनी दिखती है परन्तु तत्क्षण ही एक आशा का संचार भी होता है जब प्रेम का आभास उन्हें अपनी ओर खींचता है और वो उसमें ही जीवन की परिभाषा तलाश कर लेते हैं, यथा–

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“प्रिय !तुम जहाँ कहीं भी होगी
खुश ही होगी
क्योंकि
तुम्हें मालूम नहीं है
कि धूप क्या है ?
धूप से जलने की बात
हरियाली को मालूम नहीं होती
तभी तो तुम में खोते ही
मैं अपने आपको पाता हूँ ।”

और यह पा लेना ही कवि को अपने आप में तुष्ट करता है । कई बार आधे अधूरे प्यार की खलिश जीने नहीं देता तो कई बार वह अधूरापन ही जीने की वजह बन जाता है । प्रेम अकसर अप्राप्य ही होता है परन्तु उसकी अनुभूति जीवन का सबसे बड़ा सुख भी होती है । क्योंकि न तो ख्वाहिशें मरती हैं, न ही वह पहले प्रेम की अनकही चाहते हीं–
तुम आज भी वही हो
मुस्कुराहटें भी वही हैं ।
तुम्हारे वो हाथ चाहे जिसने भी थामे हों
मगर स्पर्श की गरमी मैं ही पाता हूँ ।”

यही तो पहले प्यार की पहली अनुभूति है जो कभी शेष नहीं होती । जो अक्सर हमारी सोच को महका जाया करती है जिसे सोचना सुखद लगता है, जो अनायास ही अकेलेपन में भी चेहरे पर मुस्कान की लकीर खींच लाती है ।
और यही प्रेम पूरी शिद्दत के साथ व्यक्त हुई है ‘चाहतों के साए में’ ।
हो गया मौसम सुहाना चाहतों के साए में
मिल गया दिल को ठिकाना चाहतों के साए में ।”

जी हाँ ! हर दिल में चाहत पलती है, कभी किसी के साथ को पाने की, कभी किसी के स्नेह की, तो कभी किसी के इश्क की और इन सबसे बढ़कर रोटी की, इज्जत की, घर की, मकाँ की । सच कहूँ तो इंसान चाहतों का पुतला ही तो है । चाहत न हो तो जीने का कोई मकसद ना रहे, कोई उम्मीद ना रहे, कोई हौसला ना रहे । हम जीते ही हैं अपनों के लिए, उनके सपनों के लिए और बदले में मिली उनकी चाहतों के लिए । कवि हृदय बसन्त चौधरी ! जिन्हें जितना मैंने जाना, व्यापारी व्यक्तित्व में एक मासूम दिल, जो जीना चाहता है– अपनी ख्वाहिशों के साथ, अपने अहसासों के साथ और अपने जाने– अनजाने रिश्तों के साथ । खुद आपका मानना है कि–
“कोई इंसान भी ऐसा नहीं है
जो दिल की राह से गुजरा नहीं ।”
आपने खुद माना है कि ‘चाहतों के साए में’ प्रेम के प्रति उनका समर्पण है । आपकी जिन्दगी में प्रेम प्रेरक शक्ति रही है । इस परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट है कि ‘चाहतों के साए में’ सिर्फ प्यार है, प्यार है और बस प्यार है । पूरी की पूरी कायनात इसी प्रेम के इर्द गिर्द घूमती है । प्रकृति के कण–कण में प्यार है, और नारी सृष्टि की सबसे खूबसूरत रचना जो प्रेम की पर्याय है । दिनकर की उर्वशी कहती है–
“यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो.
रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर.
ओ गगनचारी ! यहाँ मधुमास छाया है.
भूमि पर उतारो,
कमल, कर्पूर, कुंकुम से,कुटज से
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो ।”
प्रेम जिसकी कोई परिभाषा नहीं है, जो बस एक अहसास है । जो कभी जीने का मकसद देती है तो कभी सब कछ लुटा देने का जज्बा भी । प्रस्तुत कृति एक पूरा का पूरा आकाश समेटे हुए है, जिसमें भावनाओं का गुम्फन कभी कविता, कभी गजल, कभी गीत तो कभी नज्म के रूप में अभिव्यक्त होती चली गई है । एक साथ पाठकगण इन सभी विधाओं का रसास्वादन इस कृति पा सकते हैं । इस मायने में यह निःसन्देह एक अद्भुत कृति है ।
कवि कहते हैं –

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“कोई भी तभी कवि बनता है
जब प्रकृति में सौन्दर्य खिलता है
जब केवल फूलों की डालियों पर ही नहीं
पत्तों तक में भी कविता खिलती है ।”
और इन सबके बीच अगर यौवन हो तो दिल में कविता का जन्म लेना निश्चय ही तय है । फूलों की खुशबू, बारिश की बूँदें, चाँद की चाँदनी, कोयल की कूक या फिर पपीहे की पुकार, आखिर कविता के आलम्बन यही तो बनते हैं कभी मिलन में तो कभी विरह में ।
प्रेम की दुनिया जिसका कोई रूप नहीं, वह तो निराकार है जहाँ दो आत्मा एक होती हैं । जहाँ कोई ‘स्व’ नहीं होता, जहाँ मैं और तुम ‘हम’ में एकाकार हो जाता है–
“कुछ नहीं बचता, रिक्त हो जाता हूँ
तुम में ही एकाकार हो जाता हूँ ।
और इसलिए तो कवि कहते हैं कि–
तुम्हें देखने के लिए
ऐसा नहीं कि तुम्हें देखना होगा ।
जिन्दगी जीने के लिए
ऐसा भी नहीं कि साँसें लेनी होंगी ।
प्रेम करने के लिए
यह भी नहीं कि
तुम्हें बाँहों में भरना होगा….
मैं प्रेम में नहीं
कविता में प्रेम लिखता हूँ ।”
बहुत ही खूबसूरती के साथ वक्रोक्ति का एक सुन्दर उदाहरण कवि की निम्न पंक्तियों में है–
“कीचड़ में कमल है
इसका अर्थ यह नहीं
कि कमल में कीचड़ है,
बल्कि यह है कि
कमल में कीचड़ का सापेक्ष खिला हुआ है ।”
दर्शन की दुनिया से निकल कर कभी–कभी कवि की लेखनी निराशा के बादलों से घिरी नजर आती हैं जब वो अपनी कविता ‘कतरा–कतरा’ में कहते हैं कि–
“अँधेरा टपक रहा है कतरा–कतरा
मन में रात घर कर रही है कतरा–कतरा
जाने उजाला कहाँ है ?
मृत्यु बढ रही है कतरा–कतरा ।”

ऐसी ही निराशा उनकी कविता ‘जिन्दगी का हिसाब–किताब’ में भी उभर कर आती हैं–
“बढ़ता जा रहा है एकाकीपन
डूबता जा रहा है सूरज
कोहरे में घुली हवा लेते–लेते
उफ विरक्त हो रहा है समय ।
मुझे अपनी सुविधा के अनुसार
मेरे भीतर के आकाश में विचरण करने दो ।
जीने के नाम पर दौड़ते–दौड़ते थक कर चूर हो चुका हूँ मैं
सोने से पहले कुछ पल ही सही
जीने की अनुभूति करने दो ।
ऐ गोधूलि मुझे सहजता से साँस लेने दो ।”
परन्तु जल्द ही कवि इस निराशा के भँवर से निकल कर कहता है कि –
“हमारे जिन्दा रहने का आकर्षण है प्रेम
जिन्दगी जीने का मकसद है प्रेम ।”
अब बात करूं उनकी नवप्रकाशित गजल संग्रह ‘ठहरे हुए लम्हें’ की तो उनकी गजलों के लिए उनके ही शब्द–
“हैरां है दिल दिमाग ये क्या बन गई गजल
तेरी नजर पड़ी तो नशा बन गई गजल ।
तनहा हुआ तो बन गई ‘सागर’ की हमनशीं
बेताबियाँ बढी तो दुआ बन गई गजल ।”
जी हाँ इनके गजल की हर पंक्तियों की तासीर कुछ ऐसी है । जहाँ दिल थमता भी है, धड़कता भी है और कई बार सरगोशियाँ भी करता है–
“ये नशा है, बेखुदी है या तसव्वुर
जेहन पर छाया हुआ सा इक धुआं है
आजमा ले दिल है क्या मैं जाँ भी दे दूँ
ये तेरे दीवाने सागर की जÞबाँ है ।”
आपने गजलों की दुनिया में ‘सागर’ उपनाम रखा है । सागर की सार्थकता देखने को मिलती है क्योंकि दिल की कोई भी भावनाएँ ऐसी नहीं हैं जिसे इस कृति में अभिव्यक्ति न मिली हो । यादें हैं, इंतजार है, चाहत है और इन सबके साथ दिल में एक खलिश भी है–
“बेखुदी में क्या कहिए किसको क्या समझ बैठे
इक हसीन पत्थर को हम खुदा समझ बैठे
इनसे क्या गिला करते सब खता मेरी थी
एक बेवफा को बावफा समझ बैठे ।”
मानवता को संबोधित करता आपका शेर है–
“सियासत आदमीयत के उजाले छीन लेती है
बहुत जालिम है ये, मुंह से निवाले छीन लेती है ।”
नेपाल के हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रस्तुत कृति एक मजबूत कड़ी साबित होगी जो निःसन्देह एक सार्थक मकाम हासिल करेगी । कृति की इन पंक्तियों के साथ इतना ही कि –
“जीवन की धूप छाँव से नजरें मिलाए जा
हर गम को, हर खुशी को गले से लगाए जा
क्या होगा कल ये फिक्र न कर, मुस्कुराए जा ।”

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और अब बात ‘वक्त रुकता नहीं’ की । जहाँ कवि कहता है कि–
“अविरल अविचल
बहते वक्त में
मैं आज भी कायम हूँ
उस द्वीप की तरह
जो बहती धार में भी
अपना अस्तित्व कायम रखता है
असंख्य चोट के बाद भी ।”
बसंत चौधरी की कविताओं में विषमताओं, मुश्किलों और जीवन से आबद्ध घटनाओं से हम परिचित होते हैं । जीवन के प्रति उनमें आशा दिखती है, वे उज्ज्वल क्षितिज दिखाती हैं । कविताओं में साधारण बिम्बों, उपमाओं के माध्यम से हमें जिन्दगी के गहरे पहलुओं से पहचान कराने की क्षमता है । ‘वक्त रुकता नहीं’ दो खण्डों में प्रकाशित हुई हैं, जीवन प्रवाह और प्रेम प्रवाह । यहाँ यह अवश्य कहूँगी कि जीवन का प्रवाह प्रेम से ही पूर्ण होता है । संग्रह की हर कविता हमारे मन में प्रवेश करती है । किसी एक क्षण को व्याख्यायित करती आपकी पंक्ति है–
“छोड़ दूं आज जद्दोजहद
बस जहाँ दिलकशी हो, थोड़ा सुकूं हो
प्यार के ऐसे अफसाने की ओर
जिन्दगी को मोड़ दूँ ।”
उनकी स्पष्टवादिता व्यक्त करती है निम्न पंक्तियाँ–
“कर्म तो मनुष्य का अपना दर्पण है
जैसा तू है चित्र भी वैसा ही होगा
खूबसूरत या बदसूरत”
अंततः यही कि एक अद्भुत व्यक्तित्व और लेखन के मालिक हैं बसंत चौधरी । जिनकी रचनाएँ उमंग, सौहार्द, समय के महत्व, आत्म चिंतन, प्रेम, और आत्म चेतना के लिए प्रेरित करती हैं । ‘वक्त रुकता नहीं’ में संग्रहित कविताएँ ताजा हवा के झोंके के समान हैं, जो मन को व्यथित करते विचारों को शांत करती हैं और जीवन में आगे बढ़ने का साहस देती हैं । आपकी कविताओं में मानव मन की स्थिति को समझने का प्रयास किया गया है । आज के समय में मानव मन से खोती जा रही आत्मीयता, प्रेम, ईमानदारी और सहनशीलता को फिर से आशावादी दृष्टिकोण दिया है । मशीनीकरण के युग ने मनुष्य को एक मशीन बना दिया है । जिसके फलस्वरूप समाज से मानवीयता जैसे तत्वों की समाप्ति हो चुकी है । ऐसे विषम परिस्थिति में मानव मन को जागृत करने का प्रयास कवि ने किया है । अपने समय और परिवेश की गहरी पहचान आपको है जो आपके सम्पूर्ण काव्य को एक विशिष्ट पहचान देती है ।

डॉ श्वेता दीप्ति
सम्पादक, हिमालिनी

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