मधेशी मोर्चा निर्माण का औचित्य क्या ? : कैलाश महतो
कैलाश महतो, नवलपरासी, 8 मार्च,025 ।
कहते हैं “ख्वाहिशें बादशाहों को गुलाम बना लेती हैं, पर सब्र गुलाम को भी बादशाह बना देता है।”
कहने बाले ने सत्य के सारे चादरों को समेट ली हैं। मगर सत्य यह भी है क़ि ख्वाहिशों ने ही किसी कंगाल को बादशाह भी बनाया होगा और सब्र के सीमा जब टूट जाता है तो फिर बादशाहत भी चकनाचूर हो जाता है। ख्वाहिशें और सब्रता में तालमेल अगर ना हों तो बड़े बड़े आसमायी इमारतें भी धरमरा जाती हैं।
मधेश के दो सशक्त आन्दोलनों : मधेश जन-विद्रोह २०६३/६४ के स्वायत्त-समानुपातिक-संघीय गणतन्त्रात्मक और स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन के स्वतन्त्रता आन्दोलन में मैं प्रमुख दायित्व के साथ सामेल रहा हूँ। दोनों आन्दोलन के मुखियों को आसमान पर चढ़ते और खाई में गिरते देखा हूँ। आन्दोलन के क्रम में उपेन्द्र यादव जी को लोगों ने मसीहा, गाँधी, मार्टिन लूथर किंग और कृष्ण का अवतार कहा था तो स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन आन्दोलन में सीके को भगवान, बुद्ध, नया अवतार, महानायक, विद्वान महान वैज्ञानिक, त्यागी पुरुष, आदि कहा जाता रहा। लाखों की उनके पीछे भीड़ होती थी। लोग झलक पाने को बेताब होते थे। घर के चावल और दाल बेचकर लोग उनसे मिलने उनके निवास तक छुप छुपकर जाते थे। कइयों ने अपना व्यापार, पढ़ाई और नौकरियाँ छोड़ी थी तो कइयों ने खेतबारी बेचकर अदालतों में लाखों की धरौटियाँ भरी थीं। आज सबका मौसम उलटा है।

आज सीके रेशम चौधरी जी से मिलने नहीं, उनके पार्टी से गठजोड़ करने के लिए गली गली भटकते दिखते हैं। उपेन्द्र जी बार बार मोर्चा बनाने में ऊर्जा खर्च करते हैं। फिर उस मोर्चा का कोई काम नहीं होता। बीच रास्ते में ही मोर्चा धारासायी होता रहा है। हृदयेश त्रिपाठी के पहल में बने मोर्चा का भविष्य हृदयेश त्रिपाठी के डमरु हल्ला से ज्यादा और कुछ भी नहीं होगा, यह तय है।
मधेशी मोर्चा बनते ही राजनीतिक विश्लेषण के कोने कोने में एक आम सवाल उठता दिख रहा है, “मधेशी मोर्चा निर्माण का औचित्य क्या है ?”
वैसे मोर्चा बनना या बनाना मधेश के जेहन में शक्ति स्थापना होता है। मगर इतिहास यही कहता है क़ि मधेश का एक भी मोर्चा कारगर नहीं रहा है। मधेश हमेशा इस चाहत भ्रम में रहा है क़ि उसकी मधेशी पार्टियाँ अगर एक हो जाये तो वह राजनीतिक रूपसे मजबूत हो जायेगा। मगर ठीक इसके उल्टा यह होता रहा है कि शक्ति संचय का भाव मधेश में जो कुछ वर्षों से इकट्ठा हुआ होता है, वह मधेशी मोर्चाओं के बिखरापन से न केवल समाप्त हो जाता है, बल्कि मधेशी दलों के प्रति कुछ वर्षों में जो शक्तिभाव संयोजित हुआ होता है, उसका सर्वनाश होते हुए मधेश में मधेशी दलों के प्रति नफरत और नकारात्मकता बढ़ जाता है। इसका खामियाजा अंततः होता यह है कि मधेशी जन इस निर्णय पर आ जाते हैं कि मधेशी दलों से अच्छा तो काँग्रेस, एमाले, माओवादी और अन्य पहाड़ी दल ही हैं, और लोग चिढ़कर मत मधेश इत्तर के पार्टियों और नेताओं को दे डालते हैं।
समग्र में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हर बार और जब जब मधेश आधारित राजनीतिक चुनावी दलों के बीच मोर्चाबन्दी या सहकार्य होता है, अंततः सावा और ब्याज देकर मधेश के विरोधी दलों और नेताओं को चुनावी लाभ मिल जाता है। आश्चर्य की बात फिर यह है कि ऐसे कामों में मधेशी दल और उसके मोर्चा कम और उसके इत्तर के दल राजनीतिक ऐसा माहौल बना देता है कि मधेशी दलों में मोर्चाबन्दी हो जाये। ऐसे कार्यों में कभी कभी मधेशी दलों को फुलाने बाले अन्तरराष्ट्रीय कुछ शक्ति एजेंसियाँ भी जान अनजान में सामेल होते हैं। क्योंकि उनको भी यह आभास दिलाना रहता है कि वह भी एक शक्ति है जिसके बिना नेपाली राजनीति का पत्ता भी नहीं हिलता है।
इस कार्य में मधेश और मधेश समर्थक माने जाने बाले शक्तियों को भी नेपाली शासक बड़े सूत्रबद्ध होकर चिढ़ाकर रखते हैं। कभी भूमि विवाद, कभी नदी विवाद, कभी 1950 के सन्धि सुधार की बात, कभी नागरिकता विवाद तो कभी सीमा विवाद जैसे मुद्दों को उछाल देते हैं जिसके आधार पर मधेशी मोर्चा बन जाता है या बनवा दिये जाने की शासकीय आरोप लगाया जाता है। लेकिन इसके अन्दर में मधेश में पल रहे एकता भावना को तोड़कर उसका बहुमतीय मत अपने बक्से में डलबाने का सुगम रणनीतियाँ होती रही हैं।
जहाँतक हृदयेश त्रिपाठी जी की मोर्चायी दुर्दशिता की बात है, तो मेरे विश्लेषण में वो कोयल चरित्र के पात्र हैं जो अपने अण्डे को दूसरों के घोंसले में डालकर अपना राजनीतिक वंश चलाने में विश्वास रखते हैं। दुर्भाग्य है कि बड़े बड़े राजनीतिक देशी और विदेशी कूटनीतिज्ञतकों ने इस सत्य संक्रामक को नहीं समझ पाये हैं।
आश्चर्य की बात है कि मोर्चा सहमति कागज पर किये गये सहमतीय हस्ताक्षर का मसीतक सुख नहीं पाया हो और एक नया पार्टी एकीकरण का नाटक किसी पोखरी के किनारतक हो रहा हो। स्मरण हो कि उन्हीं दो पार्टियों और नेताओं के बीच पहले भी सहकार्य और मत प्राप्ति की एकतायें हुईं और देखते देखते टूट गई।
रेशम चौधरी कवि हैं, बड़े किसान हैं, जमींदार हैं, समाजसेवी हैं, मगर वे तिकड़मबाज राजनीतिज्ञ नहीं हैं। फंटूशपन से दूर रहे रेशम जी को यह समझ लेना होगा कि जो शख्स इंसान होनेतक का, पतिव्रता बननेतक का और अपने वादों और मुद्देतक का नहीं हो सकता, उसके स्टंट्स के जालों में फंसना कितना न्यायिक होगा, वह समय ही बतलायेगा।
