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मधेश की जनता ने एक अदम्य साहस का परिचय दिया है : श्वेता दीप्ति

डा.श्वेता दीप्ति, काठमांडू ,१० , अक्टूबर | नए संविधान की प्रतीक्षा देश का हर नागरिक कर रहा था । क्योंकि इससे उनकी उम्मीदें जुड़ी हुई थीं । कड़े संघर्ष और शहादत के बाद विगत के हुए समझौतों को जो अन्तरिम संविधान मे शामिल था उसके कार्यान्वयन का इंतजार था मधेश की जनता को । किन्तु अप्रत्याशित रूप से मधेशी दलों को दरकिनार करते हुए चार दलों के बीच समझौता होना और उसके बाद जो मसौदा आया उसने मधेश को एक बड़ा झटका दिया । मधेशी जनता खुद को ठगा महसूस कर रही थी । मधेश की जनता ने पूरे तौर पर मसौदे को नकार दिया था । अगर सत्तापक्ष में दूरदर्शिता होती तो वह समय की चाल को जरुर पहचान जाते । किन्तु उन्होंने स्थिति की गम्भीरता को नहीं समझा, या फिर यूँ कहें कि समझना नहीं चाहा । उन्हें शायद यह लगा था कि थोड़ी बहुत खलबली मचेगी और सब शांत हो जाएँगे । किन्तु इस बार मधेश की जनता ने एक अदम्य साहस का परिचय दिया है, जिसका अन्दाजा किसी ने नहीं किया था । बिना किसी नेतृत्व के जन सैलाब उमड़ा और अपनी जनशक्ति का प्रदर्शन किया । जब जब गोलियाँ चली तबतब और भी जोश और अधिक संख्या के साथ लोग सामने आए । अपना कारोबार, अपने बच्चों का भविष्य और अपनी जिन्दगी सब दाँव पर लगा दिया । मधेश आन्दोलन के ५५ दिनों तक प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या कोई सरकारी अधिकारी किसी ने भी मधेश की जनता को सम्बोधन करने की जरुरत महसूस नहीं की ।
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टीकापुर घटना के ३३ दिनों के बाद प्रधानमंत्री को वहाँ की जनता की सुध आई । किन्तु यहाँ भी वो सफल नहीं हुए, उनके कार्यकर्ताओं और क्षत्री, ब्राह्मणों के अलावा कोई मिलने नहीं आया । सत्तापक्ष की हर सोच विफल होती गई । उन्हें यह लगा था कि चंद लाशों का गिरना कोई मायने नहीं रखता । एक बार संविधान लागू हो जाएगा तो सब शिथिल हो जाएँगे । किन्तु ऐसा नहीं हुआ । संविधान जारी होने से पहले भी एमाले अध्यक्ष के.पी ओली के सामने मधेशी और थारु नेताओं ने जाकर कहा कि इतने लोग मारे गए हैं ऐसे में संविधान जारी करना उचित नहीं होगा । किन्तु उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और कहा कि ये चंद लोगों की गतिविधि है जो शांत हो जाएँगे । बाबूराम भट्राई भी समय समय पर अपना असंतोष व्यक्त करते रहे । किन्तु बहुमत के मद में मस्त सत्ता ने ह्विप जारी कर के, जो विश्व इतिहास में अनूठा और अवैज्ञानिक है, संविधान को लागू किया गया । संविधान का लागू होना और पड़ोसी राष्ट्र भारत का असंतोष व्यक्त होना, इसने अचानक नेपाल की राजनीति की शिथिलता जो मधेश आन्दोलन को लेकर बनी थी उसे दूर कर दिया । मधेश का आन्दोलन तो शिथिल नहीं हुआ हाँ सत्तापक्ष की शिथिलता जरुर दूर हो गई । मधेश के प्रत्येक सीमा पर मधेशी जनता की नाकाबन्दी ने सत्ता के गलियारों में हलचल मचा दिया । अब स्थिति ऐसी नहीं थी कि सेना परिचालन कर के और गोलियाँ बरसा कर नाका से गाड़ियों को ले आया जाय क्योंकि सीमा पर गोली बारी की नहीं जा सकती और मधेश की जनता दिनरात सीमा पर डटी हुई है ।

महज एक सप्ताह में देश की या यूँ कहें कि काठमान्डू की गति बदल गई है । अधैर्य और असंयमित पहाड़ी समुदाय अपने शासकों की कमी को न देखकर भारत को लगातार गालियाँ देती आ रही है । सवाल उनको अपने शासकों से पूछना चाहिए था कि किसी भी आपातकालीन अवस्था से लड़ने के लिए उनकी नीति क्या है ? क्यों दो चार दिनों में ही देश की अवस्था इतनी लड़खड़ा गई ? क्यों सरकार ने देश के एक हिस्से को नजरअंदाज किया ? खरबों का घाटा किस आधार पर सरकार ने होने दिया ? पर नहीं, जो जनता डेढ महीने से खामोश थी अचानक मुखर हो गई, किन्तु अफसोस कि यह मुखरता सिर्फ गालियों और असंयमित व्यवहार तक ही सीमित रह गई । अभाव ने अधैर्य को इस कदर जन्म दिया है कि अपनी कमजोरियाँ ही नजर नहीं आ रही है । राजधानी में मधेशी मूल के नेताओं को पीटना, गाड़ियों में सफर करती मधेशी लड़कयों को अपशब्द कहना, दुकानों में मधेशियों को भारतीय कहकर सामान नहीं देना और चन्द्रनिगाहपुर में दो समुदायों के बीच द्वन्द्ध होना आखिर इन सबका जिम्मेदार कौन है ? मधेश आन्दोलन के डेढ़ महीनों में मधेश की जनता ने अपने धैर्य की परीक्षा दी है । कहीं से कोई ऐसी घटना सामने नहीं आई जहाँ मधेशियों ने किसी समुदाय विशेष के साथ कुछ गलत किया हो । अगर कुछ गलत हुआ भी है तो वह प्रहरी और सेना की संलग्नता में समुदाय विशेष की ही ओर से ।

 



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