क्रान्तिकारीः रामेश्वर सिंह
बुन्नी लाल सिंह
जब मैं अध्ययनरत था तो पडोस में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भयंकर आँधी चल रही थी। उक्त आन्दोलन ने ब्रिटिस साम्राज्य की चूलें हिला दी। अंग्रेजों को मजबूर होकर बोरिया बिस्तर समेट दिल्ली छोड अपने देश इंगलैड अपमानित होकर जाना पडÞा। इस आन्दोलन से प्रभावित होकर नेपाल के तत्कालीन अन्यायी शासन के विरुद्ध स्वर्गीय विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला के नेतृत्व में आन्दोलन की प्रबल आँधी चली। राणातन्त्र ढÞीला हुआ। उक्त आन्दोलनों का गहरा प्रभाव हमारे जैसे अनगिनती युवकों पर भी पडÞा। गांधी युग की नैतिकता का गहरा प्रभाव हम पर पड।
०१५-७-२७ साल में गठित संल्लाहकार सभा का मैं निर्वाचित सदस्य बन चुका था। मैं अपने आदर्शों पर कायम रहकर तत्कालीन महेन्द्र सत्ता का पृष्ठ पोषक नहीं बना। फिर २९ साल में अपने देश के लिये घातक रही। देश के प्रजातन्त्र पक्षधर नेताओं को देश छोडÞनिर्वासन में जाना पडÞा। मैने पञ्चायत व्यवस्था का जिला सभा को बैठक में लिखित रुपमें विरोध किया। फलस्वरुप कुछ दिनों के लिये हमें भी घर छोडÞ कुटुम्बों के यहाँ शरण लेनी पडÞी। तत्कालीन जिला के कम्युनिष्ट पार्टर्ीीे नेता कृष्ण प्रसाद अधिकारी के सुझाव पर राजनैतिक एवम् आर्थिक सहयोग की आशा में बाद के सद्भावना पार्टर्ीीे अध्यक्ष स्वर्गीय गजेन्द्र नारायण सिंह के लहेरिया सराय के आवास पर नथुनी सि.ह जी के साथ पहुँचा। उनसे नकारात्मक जबाव मिलने पर उनके यहाँ से निराश होकर वापस हुआ। नथुनी सिंह ने सप्तरी के रामेश्वर बाबु से मिलने का सुझाव दिया। उनके क्रान्तिकारी स्वभाव के सम्बन्ध में पहले ही सुनचुका था। उनके डेरे पर दिन के लगभग तीन बजे के बाद ही सिंह के साथ उन का दर्शन सुलभ हुआ।
जिला सभा की बैठक में मैंने जो कुछ भाषण किया था, वह पर्ूण्ातः पञ्चायत व्यवस्था के प्रतिकूल था। जो देश में जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। इसकी र्सवत्र चर्चा हो रही थी। यह बात रामेश्वर बाबु को मालूम थी।
‘यही बुन्नी लाल बाबू हैं।’ यही बात नथुनी सिंह ने कही। उनके कहे का एक, एक शब्द मैंने यहाँ प्रयोग किया है।
यह सुनते ही रामेश्वर बाबू तत्क्षण कर्ुर्सर्ीीोडÞ उठकर खडेÞ हुए और पुत्रवान्-स्नेह से अंकमाल कर कर्ुर्सर्ीीर सम्मानपर्ूवक बैठा दिया।
सबसे पहले उन्होंने कुशल क्षेम की बातें की। रामेश्वर बाबू, बडेÞ ही दृढÞ विचार वाले व्यक्ति हैं। अनुभव हुआ। जय प्रकाश बाबु, डा. राम मनोहर लोहिया आदि को राणा सरकार ने राजविराज के कारागार में इस उद्देश्य से बंद कर रखा था कि अंग्रेजों के हाथों सुपर्ुद कर देने पर वाह-वाही तो मिलेगी ही। इसे भाँप कर रामेश्वर बाबु ने अपने सहयोगियों के साथ मिल कर उक्त कारागार के समीप बम विस्फोट कर, फाटक तोडÞ उन नेताओं को मुक्त कर ससम्मान रातों रात देश की सीमा के पार कर दिया। वैसे दिलेर प्रकृति के रामेश्वर थे। पुत्रवत् समीप बैठा ढेÞर सारी बातें उहोंने हमसे की। आने के सम्बन्ध में जिज्ञासा की।
‘मुझे सर्वोच्च अदालत में ‘रिट’ देना है। जिला पञ्चायत से निष्काशन वाला पत्र घर में सुरक्षित है।” मैने जबाव दिया, ‘मेरे लिखे, निवेदन में नेपाल का कोई भी कानूनविद लाल कलम नहीं लगा सकता। काठमांडू के लिये तैयार होकर आप निष्काशनपत्र के साथ आवें। में ‘रिट’ लिख दूँ।’ उनका आग्रह हुआ।
‘जी ! अभी तैयार होकर हम नहीं आये हैं।’ मैंने प्रत्युत्तर दिया।
‘या ऐसा भी हो सकता है। काठमांडू के कृष्णप्रसाद भण्डारी भी सशक्त ‘रिट’ निवेदन लिख सकते हैं। उनके नाम हम पत्र लिख दे सकते हैं। खर्च कुछ भी नहीं लेंगे।
दरभंगा अध्ययन काल में हम भण्डारी जी के अन्य बंधुओं के सँग एक ही आवास में रह कर पढर्Þाई करते थे। वैसे वे आरआर कलेज के छात्र हुआ करते थे। फिर भी दरभंगा में ही अन्य बंधुओं के साथ रहकर कानुन की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। उनकी एक बहन हमारे पडोस के कविलासी गाँव में व्याही थे, जो हमारे साथी स्वर्गीय हरिनारायण की धर्मपत्नी थी। हम दोनों का ही अच्छा पडÞोसी सम्बन्ध हुआ करता था।
‘उनके नाम से पत्र लिखवाना आवश्यक नहीं है। हम दोनों एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित है।’ मेरा कहना हुआ। ‘खैर तब तो ठीक है। आप रात में टिकेंगे कहाँ – रात का समय यहाँ भी बिता सकते हैं।” उनका आग्रह हुआ।
वे स्वयं निर्वासित जीवन बिता रहें हैं। मालूम नहीं वे होटल का खाना खाते हैं या स्वयं अपना भोजन बनाते हैं। उन्हें तकलीफ देना अच्छा नहीं जँचा।
‘सुनते हैं, यही आसपास में हमारे पडÞोस में हमारे पडÞोस के देवनाथ बाबू घर मकान बनवा कर रह रहे हैं। हम उन्ही के साथ रात का समय बिता लेंगे। मेरा कथन हुआ।
मेरा इतना कहते ही वे गोल गंजी पहन हाथ में बेंत लेकर खराँव पहन कर उनके घर पहुँचाने के लिये चल पडेÞ। नथुनी सिंह चले गये थे। हम उनके पीछे चल पडÞे। कम ही समय में हम उनके घर पहुँच गये। उन्हें बहुत प्रसन्नता हर्ुइ। बडेÞ सम्मान के साथ उन्होंने हमें रात में आश्रय दिया। जिला पञ्चायत से निष्काशन वाली खबर उन्हें मालूम थी। अपने कुटुम्ब परिवार की तरह तरुआ, तरकारी, भुजुआ, घी, दही के सँग रात का भोजन करवाया। आम चुनाव के समय जिस तरह हम एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी की तरह लडÞे थे, इस भावना का हमें कुछ भी आभास नहीं हुआ। भोर हो जाने पर शौचालय जाने के विषय में उनके निकटतम सहयोगी से मैंने बातचीत की। वे जागकर हम दोनों की बात को सुन रहे थे। हमको शौचालय की जानकारी नहीं थी।
‘शौचालय किधर है -‘ मैने उनसे पूछा।
एक ही विछावन पर हम दोनों सोये थे। उनका नाम ‘देवी’ बाबु था, जो जिला के ही शिवनगर गाँव के निवासी थे।
‘शौचालय बाहर उत्तर-पश्चिम कोने में है।’ उनका कहना हुआ।
हम दोनों की बात सुनकर वे गरज कर बोल पडÞे। ‘आप कुछ नहीं समझते – उन्हें बाहर का शौचालय क्यों दिखलाते है -‘ देवनाथ बाबू ने कहा।
तब भीतर के शौचालय का ही रास्ता उन्होंने बताया। शौचालय से निवृत्त होकर जब हम उनसे जाने की अनुमति माँगी तो उन्होंने रोक दिया। ‘नहीं ! हडÞबडी ही क्या है – भोजन कर के ही निश्ंिचत से जाइयें। घर से तैयार होकर आप आये। हम सारा खर्च देंगे। काठमांडू जाकर सर्वोच्च में रीट निवेदन दें।’ बडेÞ ही आत्मीय ढंग से उन्होंने हमें आश्वस्त किया।
हम भोजन पश्चात् ही घर की ओर गाडÞी पकडÞ वापस हुए। उनके ऐसे आत्मीय व्यवहार से पुरानी राजनैतिक कटुता, प्रतिस्पर्धा के भाव का लेश मात्र भी आभास नहीं हुआ।
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