धर्मवीर भारती की प्रमथ्यु गाथा ः एक सान्दर्भिक प्रसंग
डा.श्वेता दीप्ति, काठमाण्डू,18 फरवरी,2016 ।
प्रोमेथियस अनवाउंड प्रसिद्ध कवि शैली की अमर कविता है । उसी प्रोमेथ्युस को भारती ने प्रमथ्यु नाम दिया है । इस युनानी पुराण कथा का नायक प्रमथ्यु है जो जुपीटर या स्वर्ग के देवता के महलों में बंदी अग्नि÷प्रकाश को चुराकर पृथ्वी पर ले आता है ताकि पृथ्वी के साधारण जनों के जीवन से अंधकार दूर हो सके । यह एक जघन्य अपराध था और इसलिए इसकी सजा मिलनी भी अनिवार्य थी । फलतः जुपीटर ने उसे बेड़ियों से जकड़कर एक विशालशिला खण्ड से बँधवा दिया और उस बुढेÞ गिद्ध को, जिसने अग्नि लाने के लिए प्रमथ्यु को उत्साहित किया था इस कार्य पर लगा दिया कि वह प्रमथ्यु के कंधे पर बैठ उसका हृदय नोंचता रहे । साथ ही साथ सजा की निरन्तरता बनाए रखने के लिए यह वरदान भी दे दिया कि हृदयपिण्ड का घाव निरन्तर भरता भी जाएगा । अर्थात् एक अन्तहीन दण्ड की यंत्रणा भोगने के लिए उसे शापित भी कर दिया ।
यह दृश्य जन साधारण के लिए कौतुक भरा था । भीड़ का हुजूम इस दृश्य को देखने के लिए उमड़ता रहता था और हृदय पिण्ड के नोंचे जाने और घाव के भरते जाने के करिश्में को देखकर चकित विस्मित होता रहता था । तमाशबीनों के झुण्ड के झुण्ड आते और चले जाते, लेकिन उनके मन में प्रमथ्यु के प्रति कोई संवेदना नहीं थी ।
उक्त प्रसंग कई मायने में आज सान्दर्भिक है । जब भी हम अपने आसपास निराशा, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेबसी, लाचारी का साम्राज्य देखते हैं, तो हमें लगता है कि कुछ ऐसा करिश्मा हो जो मानव मन में आशा और उम्मीद की किरण जगाए । हम में से ही कोई प्रमथ्यु आए जो हमारे लिए रोशनी की तलाश करे । पर हम ये नहीं सोचते कि इस प्रमथ्यु को हम क्यों नहीं खुद में ही जगाएँ ? क्यों नहीं उस रोशनी की तलाश खुद करें जो हमारे आसपास व्याप्त अंधकार को दूर कर सके ? क्यों हम सिर्फ तमाशबीन बने हुए हैं और एक शापित जीवन जीने को विवश हैं । ऐसे ही लोगों के लिए भारती कहते हैं—
हम सब करिश्मों के प्यासे हैं
चाहता अगर तो हम में से हर एक व्यक्ति
अपने साहस से प्रमथ्यु हो सकता था
लेकिन हम डरते थे
ज्योति चाहते थे
पर दण्ड भोगने से डरते थे ।
जब तक जनसाधारण के मन से यह डर नहीं निकलता, तब तक कुछ हासिल नहीं हो सकता । हमें आशान्वित होकर भविष्य को देखना है, आगे बढ़ना है । विवेकानन्द ने कहा है, ‘उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त ना हो जाय ।’