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संघीयता ऊंट किस करवट बैठता है !!!

दूसरा जनआन्दोलन और मधेश आन्दोलन के बाद देश गणतन्त्र में प्रवेश करने की बात निश्चित हर्इ है। लेकिन छह वर्षके वाद भी संघीयता कैसी होगी, इसका निर्ण्अभी तक नहीं हो पाया है। कब होगा – वह भी पता नहीं है। विवादों के बीच दो महिना पहले गठन हुआ ‘राज्य पुनर्संरचना आयोग’ भी अभी अपने ही विवाद में फँसा हुआ है। ऐसा आयोग द्वारा निर्मित प्रतिवेदन सब को मान्य होगा, इस की भी कोई ग्यारेन्टी नहीं है।
नेपाल में संघीयता के मसले को उठानेवाले सबसे पहले व्यक्ति स्व. गजेन्द्रनारायण सिंह को माना जाता हैं। उनके बाद उल्लेखनीय ऐसा कोई आदमी नहीं हुआ, जिसने संघीयता की आवाज बुलन्द की। लेकिन दूसरा जनआन्दोलन और मधेश आन्दोलन के बाद विभिन्न मधेशी दलों ने इस आवाज को सदन और सडक में बुलन्द किया है मधेशवादी दलों के बीच एकता करके मधेशी मोर्चा गठन होने के बाद संघीयता का नारा और जोर से गूंज उठा। विशेषतः ‘एक मधेश, एक प्रदेश’ का नारा अब धीरे-धीरे सुस्त होते जा रहा है। मधेशी मोर्चा और दलों के बीच हर्ुइ फूट इसका सबसे बडÞा कारण माना जा सकता है। संघीयता की आवाज उठाउने वाली गजेन्द्रनारायण सिंह जी की सद्भावना पार्टर्ीीभी बहुत धाराओं में विभाजित हर्ुइ है। पिछली बार सद्भावना पार्टर्ीीे नाम से अपना मत संविधानसभा और सडक दोनों में बुलन्द करने वाले राजेन्द्र महतो के नेतृत्व वाली पार्टी
अलग होकर जब अनिल झा ने संघीय सद्भावना पार्टर्ीीठन किया, तब से वह पार्टी
आन्तरिक रुप में क्षतबिक्षत होकर बैठी है। इतना ही नहीं अभी हाल में उससे भी फूटकर रामनरेश राय ने राष्ट्रिय सद्भावना पार्टर्ीीा गठन किया है।
इधर मधेश आन्दोलन के मसीहा तथा नेतृत्वकर्ता माननेवाले मधेशी जनअधिकार फोरम नेपाल के अध्यक्ष उपेन्द्र यादव की तो बात ही न करें। उनकी पार्टी
से अलग होकर विजयकुमार गच्छेदार ने मधेशी जनअधिकार फोरम -लोकतान्त्रिक) गठन किया है तो जयप्रकाश प्रसाद गुप्ता ने फोरम गणतान्त्रिक के नाम से तीसरी पार्टर्ीीठन किया। उसके बाद मूल पार्टर्ीीmोरम नेपाल अभी अस्तित्व के बहुत बडे संकट में है। उसी तरह तर्राई-मधेश के लिर्एर् इमान्दार और स्वच्छ छवि के नेता मानेजानेवाले महन्थ ठाकुर नेतृत्व की तर्राई मधेश लोकतान्त्रिक पार्टी
फूट से अछूती नहीं रही। महेन्द्रराय यादव ने तमलोपा नेपाल नामक दूसरीपार्टी
ठन करलेने के बाद मधेशवादी दल कोई भी फूट से बच नहीं पाया।
इस तरह पार्टर्ीीmट के पीछे सभी पार्टर्ीीेतृत्व की कमजोरी और मधेश मुद्दे की बात को गौण करना बताते हैं। इस तरह फूटकर बनी नयी पार्टियों ने भी इस मुद्दे को खास दमदार ढंग से उठाने में सफलता नहीं पाई है। मधेश से उठाए गए संघीयता और मधेशी हकहित के मुद्दे क्रमशः धूमिल होते जा रहे हैं। ऐसा होने में केवल पार्टर्ीीे अन्दर की फूट ही कारण नहीं है अपितु  मधेशी मोर्चा के भीतर बारम्बार उठनेवाले बिवाद भी बहुत बडे कारण हैं। इन्हीं सब कारणों से मधेशी मुद्दा पिछे पडÞ रहा है।
दूसरी तरफ जितना समय गुजर रहा है, उतना ही संघीयता विरोधी आवाज भी बुलन्द हो रही है। देख सकते है कि संघीयता के पक्षधर और विरोधी दोनों की एक ही चेतावनी है- ‘राष्ट्र विघटन न हो’। पक्षधर कहते हैं कि संघीयता न होने पर राष्ट्र विघटन का खतरा है। उधर संघीयता के विरोधी कहते है कि मुलुक संघीयता में जाएगा तो जातीय युद्ध और विखण्डन को कोई रोक नहीं सकता। संघीयता सम्बन्धी ऐसा विरोधाभाषपर्ूण्ा गरमा-गरम बहस चलते समय हिमालिनी ने इस अंक में विभिन्न पत्रपत्रिका और आँनलाइन में र्सार्वजनिक नेता, पत्रकार, समाजशास्त्री, मानवशास्त्री आदि के विचार समेटने की कोशिश की है। संविधान बनानेवाले और विज्ञ कहलानेवाले सब अपने-अपने धारण में कायम ही है। ऐसी अवस्था में संविधान को पर्ूण्ाता कब मिलेगी, इसकी कोई ग्यारेन्टी तो नहीं लेकिन प्रस्तुत है, उन सबके विचारः

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