सप्तरी का संहार : आखिर कौन जिम्मेदार ? – कुमार सच्चिदानन्द
‘चित्त भी मेरी और पट भी मेरी’ की नीति के तहत आगे बढ़ने से ऐसी दुर्घटनाएँ तो होती ही रहेंगी ।

राजनीति करने वालों का रंग तो छिपकिली की तरह होता है जो किस क्षण बदल जाता है, यह कहना और समझना मुश्किल है । लेकिन अब तक जो खबरें आ रही हैं उससे यह बात साफ है कि प्रधानमंत्री की हिंसा न फैलने देने की सख्त हिदायत के बावजूद वहाँ एकपक्षीय गोलियाँ चलीं ।
सामान्य रूप से देखने पर यह एक सामान्य सी घटना दिखलाई देती है मगर इसका दूरगामी प्रभाव यह हो सकता है कि कहीं न कहीं नए संविधान का कार्यान्वयन ही न खटाई में पड़ जाए ?
कुमार सच्चिदानन्द , वीरगंज ,२६ मार्च , (हिमालिनी मार्च अंक) | एक बार फिर तराई–मधेश की सड़कों पर आग सुलगने लगी । वातावरण में रबर के जलने की गंध फैलने लगी और सड़कों पर युवाओं की टोली होली की तैयारियाँ छोड़ लाठी–फठ्ठा लेकर जिन्दाबाद के नारे लगा रहे हैं । यद्यपि यह बन्द महज दो दिनों का है और कहीं कोई दुर्घटना नहीं हुई तो दो दिनों के बाद सबकुछ सामान्य सा दिखने लगेगा मगर एक बात तो निश्चित है कि जो असंतोष की आग मधेश का जमीनी यथार्थ है वह कभी भी लपट का रूप ले सकती है और इसे कमतर आँकना किसी भी पक्ष के लिए उचित नहीं है । लेकिन यह सब जो हुआ उसका तात्कालिक कारण सप्तरी का जिला मुख्यालय राजविराज में नेकपा एमाले का ‘मेची–महाकाली अभियान’ के तहत हुई आमसभा है जिसकी रूपरेखा तराई के जिलों को केन्द्र में रखकर बनायी गई है । यह सबको पता था कि राजविराज में एमाले की सभा सहज नहीं होगी । इसलिए सुरक्षा के व्यापक इन्तजामात किए गए थे । इसके बावजूद जो परिणाम निकलकर सामने आया उसे दुःखपूर्ण ही नहीं, त्रासद माना जाना चाहिए । चार लोगों की मृत्यु की खबरें आ रही हैं और घायलों की सही संख्या के संदर्भ में यह आलेख लिखने तक निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । इस व्यापक हिंसा का त्रास और संघर्ष के मनोविज्ञान के बीच सवाल यह उठता है कि इसका जिम्मेवार कौन है ? क्या हमारे राजनैतिक दल इतने दृष्टिविहीन हैं कि जिन्हें पक्ष में लाने के लिए वे आमसभा जरूरी समझते हैं उनके लहू से होली खेलने में उन्हें परहेज नहीं ? क्या राज्य की शक्तियाँ इतनी कमजोर हो गई हैं कि संघर्ष और हिंसा की व्यापक पृष्ठभूमि को देखते हुए भी उन्हें रोक पाने का संयंत्र उनके पास बिल्कुल ही नहीं है ?
कहा जाता है कि प्रजातंत्र में सबको अपना पक्ष रखने का अधिकार है और इस आधार पर अगर नेकपा एमाले मधेश को लक्ष्य कर अपने अभियान की रूपरेखा तैयार करता है तो यह गैरवाजिब नहीं है । लेकिन एक सवाल तो उठता है कि विगत दिनों में मधेशी समुदाय को देखने का जो नजरिया इस दल के आला नेताओं ने अपने वक्तव्यों में प्रस्तुत किया उसे देखते हुए इनके व्यापक विरोध की जमीन तो यहाँ पहले से ही तैयार है । इतनी समझ तो हममें होनी ही चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर के राजनैतिक दल जितना विभाजित हैं उससे कहीं अधिक मधेशी दल मधेश में विभाजित हैं । यह भी कटुयथार्थ है कि मधेशी समुदाय में राष्ट्रीय दलों की सेंध भी पहले से ही बहुत गहरी है । ऐसे में एमाले के अभियान के विरोध में जो नागरिक सड़कों पर आए वे वास्तव में इनके कार्यकर्ता मात्र नहीं बल्कि आम मधेशी समुदाय के लोग हैं जो नए संविधान में समानता की माँगों का आग्रही हैं, जो इनके नेताओं के व्यंग्य वाणों से तिलमिलाए हुए हैं, जो इस देश का धरतीपुत्र होकर भी इसमें अपने सम्मानपूर्ण वजूद की तलाश कर रहे हैं, जो राष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा की सीमा में नहीं समाते हैं और अपनी पहचान के साथ इस देश में अपना समान नागरिक अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं ।
आज हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ राजनीति जरूरत से ज्यादा है और इसी अतिराजनीति के कारण मुद्दे गौण हो जाते हैं और इन मुद्दों को मन में समेटकर जनता सड़कों पर घूमती और शोर मचाती है । एक दशक गुजर गए । मधेश ने समग्र रूप में यह इजहार कर दिया है कि राज्य की महेन्द्रमार्गी परिभाषा के दायरे में दोयम दर्जे का नागरिक बनकर वह नहीं रह सकता । यह सच है कि विभिन्न आन्दोलनों के द्वारा यह बन्धन थोड़ा ढ़ीला पड़ा है लेकिन अभी भी ये मुद्दे सुलझे नहीं हैं । इसका कारण है कि कोई भी दल इन मुद्दों के प्रति स्पष्ट नहीं है और संघर्ष विभिन्न रूपों में अभी भी जारी है । यह सच है कि देश की सरकारें राजनीति की बदौलत बनती और बिगड़ती हैं तथा चलती भी हैं । मगर हमारे देश में राजनीति करने वालों की विशेषता यह है कि वे राजनीति से ज्यादा कूटनीति करना जानते हैं । स्पष्टता उनके राजनैतिक संस्कारों में ही नहीं । यही कारण है कि मुद्दे उलझते हैं और अवसर की तलाश में कभी–कभी ये गौण भी हो जाते हैं । लेकिन आम लोग इसे सीधा देखते हैं । इसी अतिराजनीति का खामियाजा है कि मधेश की राजनीति करने वाले दलों को क्या चाहिए इस पर भी मतैक्य नहीं और मधेश को क्या दिया जाना चाहिए और क्या नहीं, इस बात पर राष्ट्रीय दलों में भी मतैक्य नहीं । इसलिए अस्पष्टता की स्थिति लगातार जारी है और इसी का खामियाजा है कि देश बार–बार अराजकता का शिकार होता है, अभाव झेलता है और जान–माल की नाहक क्षति होती है । लेकिन ऐसे अवसरों पर भी राजनेता कूटनैतिक भाषा का प्रयोग करना नहीं छोड़ते ।
आज मधेश राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का क्रीड़ा–स्थल बन गया है । हर दल मधेश को अपना बोटबैंक मानता है और सब इसमें सेंधमारी के मनोविज्ञान में होते हैं । मधेश की राजनीति करने वाले दल तो इसे अपने अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत मानते ही हैं । इसका सबसे बड़ा कारण वह मधेशी मनोविज्ञान है जिसके तहत विभिन्न दलों से आबद्ध होकर वे मधेशी समुदाय पर हो रहे ज्यादतियों की वकालत करने से भी नहीं चूकते । ऐसे भी लोगों को हमने देखा है कि विगत आन्दोलनों के कारण जब यहाँ उपभोक्ता वस्तुओं का चरम अभाव हुआ तो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए इसी समुदाय के लोगों ने अपने कन्धों पर आपूर्ति व्यवस्था को यथासाध्य सहज बनाने की कोशिश की थी । कहना यह नहीं कि यह समुदाय चेतनाहीन है । मतलब यह है कि इसका स्तर जितना होना चाहिए उसका यहा सम्यक् अभाव है और इसकी छाया नेतृत्व के स्तर पर भी देखी जा सकती है । प्रमाण के तौर पर राजनैतिक अवसर प्राप्त करने के लिए नैतिकता को ताक पर रखने का उदाहरण मधेशमार्गी दलों के अतिरिक्त शायद ही कहीं देखा जा सकता है । यह बात राष्ट्रीय दलों में संलग्न मधेशी नेताओं के क्रिया–कलापों में भी देखी जा सकती है । सवाल यह नहीं कि वे अवसर के पीछे क्यों भागते हैं, सवाल यह है कि मुद्दों की गंभीरता को क्यों नहीं समझते और उपयुक्त अवसर तलाश कर निर्णय क्यों नहीं ले पाते ?
आज सप्तरी में जो कुछ हुआ उसके लिए सरकार का ढुलमुल रवैया भी कम जिम्मेवार नहीं । नेकपा एमाले की सरकार गिरने के बाद नई सरकार के कार्यकारी प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री प्रचण्ड ने संविधान संशोधन का वचन दिया था और इसके पश्चात ही चुनाव की घोषणा करने की बात कही थी । उनके इस वचन और आश्वासन को सिर्फ मधेशी मोर्चा और संघीय समाजवादी फोरम को विश्वास में लेने के सन्दर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए । वस्तुतः इसके माध्यम से उन्होंने पूरे मधेशी और दलित–उपेक्षित समुदाय को विश्वास में लेने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी । गौरतलब है कि मधेशी समुदाय ने कभी भी इस संविधान को सकारात्मक रूप में नहीं लिया और जिस दिन इसे अंगीकार किया गया उस दिन को इस समुदाय ने काला दिवस के रूप में मनाया और इसकी वर्षी भी इसी अंदाज में मनायी गयी । अतः संविधान संशोधन के बिना इसके कार्यान्वयन की कोई भी बात बेमानी थी । लेकिन राजनैतिक दूरदर्शिता के अभाव में किसी न किसी रूप में सरकारें दुर्घटनाओं को निमंत्रण दे ही देती हैं । इससे पहले भी नेकपा एमाले के दबाब में संविधान को आनन–फानन में अंगीकार कर एक बड़ी जमात को असंतुष्ट छोड़ दिया गया और आज फिर उन्हीं के दबाब में संविधान संशोधन के प्रस्ताव को पारित हुए बिना स्थानीय निकायों के चुनाव की घोषणा कर एक अन्य दुर्घटना को निमंत्रण दिया गया । लेकिन आज जो टकराव की जमीन तैयार हो रही है उससे सीधा सवाल उठता है कि क्या मौजूदा परिस्थिति में चुनाव संभव है ? एक राजनैतिक दल की सभा के लिए जब इतने सुरक्षाबलों की उपस्थिति के बावजूद ऐसा नरसंहार होता है तो क्या देश में चुनाव का माकूल वातावरण तैयार हो सकता है ? इसलिए सरकार चाहे कोई भी हो, उसकी नीतियों में स्पष्टता तथा पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए । ‘चित्त भी मेरी और पट भी मेरी’ की नीति के तहत आगे बढ़ने से ऐसी दुर्घटनाएँ तो होती ही रहेंगी ।
राजनीति करने वालों का रंग तो छिपकिली की तरह होता है जो किस क्षण बदल जाता है, यह कहना और समझना मुश्किल है । लेकिन अब तक जो खबरें आ रही हैं उससे यह बात साफ है कि प्रधानमंत्री की हिंसा न फैलने देने की सख्त हिदायत के बावजूद वहाँ एकपक्षीय गोलियाँ चलीं । सवाल है कि इस सभा और परिस्थिति पर पूरे देश की नजर थी । इसके बावजूद यहाँ हिंसा फैलायी गई । आश्चर्य यह भी है कि हताहत और घायल होने वाले लोग एक ही पक्ष के हैं । सवाल यह उठता है कि आखिर कौन सी परिस्थिति आ गई कि स्थानीय प्रशासन को इतना हिंसक कदम उठाना पड़ा । कही भय के आवरण में जनता की आवाज को दबाने की साजिश तो यह नहीं थी ? इस समस्त घटनाक्रम में मौजूदा गृहमंत्री की भूमिका भी संदिग्ध नजर आती है । इलेक्टॉनिक मीडिया में अनेक ऐसे समाचार आए हैं जो ये संकेत करते हैं कि गृहमंत्री के खड़े निर्देशन पर यह नरसंहार किया गया । लेकिन एक तर्क यह भी है आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? इसके बावजूद घटना के लंबे समय बाद भी उनकी कोई स्पष्टोक्ति सामने न आना उन्हें कठघरे में तो खड़ा करती ही है । एक बात साफ है कि आंदोलन के क्रम में अनेक मधेशियों की हत्या के आरोप में अनेक गृहमंत्री अतिआलोचित हो चुके थे जो मधेशी नहीं थे । श्री निधि को गृहमंत्री बनाने का एक उद्देश्य यह भी था कि एक मधेशपुत्र के द्वारा मधेशियों का नकेल कसना । इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि किसी न किसी रूप में वे प्रयोग हो गए या कर लिए गए ।
हालात चाहे जो भी हो लेकिन सप्तरी के नरसंहार ने नेपाल में राजनैतिक अनिश्तिता की धुंध को और भी गहरा कर दिया है । इसकी जिम्मेवारी अगर तय की जाए तो इसके अनेक आयाम उभर कर सामने आएँगे लेकिन सर्वाधिक दोषी केन्द्र की मौजूदा सरकार और गृह प्रशासन को ठहराया जा सकता है जो स्थिति की संवेदनशीलता को देखते और समझते हुए भी न तो आंदोलनकारी पक्ष को रोक पाया और न ही दुराग्रही पक्ष को वहाँ सभा करने से रोक पाया । सामान्य रूप से देखने पर यह एक सामान्य सी घटना दिखलाई देती है मगर इसका दूरगामी प्रभाव यह हो सकता है कि कहीं न कहीं नए संविधान का कार्यान्वयन ही न खटाई में पड़ जाए ? इसके बाद एक सवाल यह भी उठता है कि कहीं सारे दल मिलकर देश को संघीयता के मुद्दे से पीछे तो नहीं ले जाना चाहते हैं ? अगर ऐसा है तो जनता और सम्बद्ध समस्त पक्षों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि कहीं कोई शक्ति है जो नेपाल में अमन नहीं चाहती । अशांति और अराजकता के बीच कुछ है जिसे वह साधना चाहती है और कहीं न कहीं हमारी पूरी राजनीति इसके गिरफ्त में फँसती जा रही है ।