देख भाई देख ! निर्वाचन का तमाशा : बिम्मी शर्मा
बिम्मीशर्मा,बीरगंज (व्यग्ँय), १६ मई | देख भाई देख ईस देश में स्थानीय तह का निर्वाचन का तमाशा हो रहा है । ईसे आंखे फाड, फड कर देख और अपने सर को पिट । क्योंकि दुसरों को पिटने से होने वाला कुछ नहीं हैं । निर्वाचन का तमाशा जितना मजेदार नहीं था उस से ज्यादा मजेदार मत परिणाम आने के बाद हो रहा है । मत परिणाम आने के बाद कितने भैंस हमेशा के लिए डूब गए हैं । कितने दलों के भैंस उब, डूब हो रहे हैं पता हीनहीं चल रहा । जिनके भैंस चुनाव के पोखर में गहरे तक डूब गए हैं वह आने वाले आंधी का संकेत जान कर अपने कार्यकर्ता और हनुमानों से कह रहे हैं “भाग छौंडी आंधी आवता ।”
नेपाल के लोग हद से ज्यादा परपंरावादी हैं ईसी लिए लकिर का फकिर हो कर ईन्होने अभीतक के निर्वाचन में सहभागि हुए कुत्ता, बिल्ली और चूहा को ही अपना मत दिया । पर ईस बार के निर्वाचन में मेढंक, सांप और नेवला भी वैकल्पिक शक्ति के रुप में सहभागि हुए हैं । ईसी कारण ईस बार का चुनाव, चुनाव कम तमाशा जैसा ज्यादा और मजेदार हो रहा है । मतदाताओं नों सच में ठेगां दिखा दिया उनको जो ज्यादा ही आत्मबिश्वास से भरे हुए थे ।
ईस देश कि राजधानी और यहां रहने वाले लोग । सपना तो अत्याधुनिक राजधानी शहर का देखते हैं पर जब ईसके लिए योग्य दल और उम्मेदवार चुनने की बारी आती है तब यह पुरातनपंथी हो कर बस सडे हुए अडें और टमाटर को बिने लगते हैं । यह भी क्या करें भई निर्वाचन के बाजार में सडे हुए प्याज, टमाटर, अंडे और आलू जैसे उम्मेदवार ही खरिद फरोख्त के लिए रखे गए हैं । और सडे हुए का दूर्गन्ध भी दूर से ही आने लगता है । ईसी लिए ईन सडे हुएं सब्जी जैसे उम्मेदवारों पर ज्यादा से ज्यादा सुगन्ध का छिडकाव कर उस से ग्राहक यानी मतदाताओं को आकर्षित किया जाता है ।
मतदाता तो हैं ही ढुलमूल बिन पेंधी के लोटा । जो जिधर भरा हुागागर और सागर देखते हैं उसी ओर लुढकने लगते हैं । थाली का बैंगन जब सब्जी बन जाता है तो स्वादिष्ट होता है पर जब तक थाली में बिना कटे रहेगा ईधर से उधर लुढकता ही रहेगा । मतदाता भी ऐसे ही हैं । ढगं से मतदान करना आएगा नहीं । अगर करेगें भी तो अपने एक वोट के बदले हजारों नोट अपनी अपनी अंटी में बांधने के बाद । साथ में शराबऔर कबाब तो है ही । यह मतदाता बातें तो बडी, बडी करगें पर ऐन वक्त में पलट कर लकिर का फकिर बन कर उन्ही दलऔर उसके नेताओं को वोट देगें जो पहले से दागदार हैं । जब नतिजा आ जाता है तब घडियाली आंसू बहा कर बडे ही भोले और सच्चे मतदाता बन जाते हैं यह दुसरों को तो विवेक प्रयोग करने का नसिहत देते हैं पर अपना विवेक तिजोरी में बंद करके रखते हैं । यह मतदाता ऐसे हैं जो भात और भत्ते में ही घूष कर अपना जीवन गंवा देते हैं ।
एक तो ईस देश में सालों से सुखे पडे बंजर जमिन पर वारिश होने जैसा २० साल बाद चुनाव हो रहा है । वह चुनाव भी देश कें संघियता में जाने के बाद विभिन्न चरणों मे होने वाला यह चुनाव निर्वाचन आयोग के लिए अजुबा जैसा हो गया है । जैसे किसी ने केला नहीं देखा हो तो उसे पहली बार देखने पर वह छिलका सहित ही केला खाने लगेगा । निर्वाचन आयोग का भी हाल वही है । उस पर ईस देश की मीडिया माशाल्लाह । मीडिया हैं किसी दलऔर नेता का पिछलग्गू पता ही नहीं चलता । मीडिया मतलब नेताओं के हाथ का डफली । और डफली जितने हाथों में होगी राग भी वैसा ही बेसुरा सुनाई देगा । सबअपनी डफली जोड से बजा कर दुसरों कि डफली का आवाज दबाना चाहते हैं ।
ईस देश में सब से ज्यादा तमाशा तो मीडिया ही करती हैं । झूठा समाचार बना कर और फैला कर बिना दही का रायता बनाने और फैलाने में यहां की मीडिया माहिर है । और विभिन्न नेता और राजनीतिक दल ईन्ही मीडियाओं के पीठ थपथपा कर अपना उल्लू सिधा करती है । तमाशा देखने और दिखानें मे मीडिया का कोई शानी नहीं । जिस देश मे तमाशाई नेता और तमाशाई मीडिया हे वहां पर तमाशा देखने के तमाशाई भीड जुट ही जाती है । मीडिया के मालिक और प्रकाशक मदारी और जमुरा है और पत्रकार और पाठक बंदर और भालू । बस डमरु बजाओं और अपना तमाशा दिखाओ ।
हमारे पडोसी देश भारत में बाहुबली सिनेमा पुराने सारे रेकार्ड ध्वस्त कर सफलता और कमाई का नयां रेकार्ड बना रहा है । पर हमारे देश में बाहुबली जेसा सिनेमा तो कभीनहीं बनेगा ईसी लिए यहां के बाहुबली नेता चुनाव को ही सिनेमा मान कर उसमें अपना बाहुबली (गूडां) जैसा चरित्र का निर्वाह कर रहे हैं । शरीर और नियत से तो यह बाहुबली नहीं है पर अपने दोगला चरित्र और भ्रष्टाचारी स्वभाव से अपने कमजोर भूजाओं मे गूंडा का बल लगा कर चुनाव में शक्तिप्रदर्शन कर रहे हैं । ईस मायने में नेपाल का यह चुनावी सिनेमा ज्यदा सफल और चर्चित है भारतीय सिनेमा बाहुबली के मुकाबले में । वह काल्पनिक सिनेमा है यह वास्तविक है । वहां नायक है यहां नेता और खलनायक हैं ।
ईस तमाशे में सबसे ज्यादा मजेदार बात यहीं दिख रही है कि जिसके पास जो नहीं हैं उस से उसी चिज की मागं की जा रही । भ्रष्टाचारी से ईमानदारी और अनैतिक से सच्चरित्रता की उम्मिद ऐसे कर रहे हैं जैसे मेघ मल्हार गाते ही बारिश हो जाने की उम्मिद की जाती है । ईस चुनावी तमाशें मे तमाशा दिखाने वाले उम्मेदवार के पास जमिन तो बहुत हैं पर जमिर है ही नहीं । जमिन पर अन्नऔर फल बो सकते हैं पर जमिर को तो कहीं भी नहीं बो सकते ? जमिर तो ईंसान की अतंरआत्मा से निकलने वाली वह आवाज है जो गलत रास्ते पर चलने से रोक कर सही रास्ते पर चलने को प्रेरित करती है । पर ईस कुंभ के मेले जैसा चुनावी तमाशे में जमिर के अलावा सभी के सभी चीज दावं पर लगी है । यह तमाशा जमिन पर हो रहा है पर ईंसान की जमिर की जमिन खिसक गई है । बस ईसी लिए यह तमाशा देखते रहिए शायद कहीं गुमशुदा जमिर आपको दिख जाए । देख भाई तमाशा देख ।
बहुत बढिया लेख है । समाज का ही नहीं, व्यतिm का व्यतिmत्व का पर्दाफास भी की गयी है । हरामतन्त्र के शिकंजे में फँसे लोकतन्त्र को भी हिजडातन्त्र बनाने का काम यहाँ के मतदाताओं द्वारा होती आ रही है । हो सके कि यह लेख मतदाताओं की आँखे खोल दें ।