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बदलते राजनैतिक मूल्य और मधेशमार्गी दल : कुमार सच्चिदानन्द

अब एकीकरण एक ऐसा हथियार है जो उनकी खोई हुई साख लौटा सकता है ।



विगत कुछ वर्ष राजनैतिक दृष्टि से मधेश के लिए नकारात्मक रहा क्योंकि इस अवधि में इसने अनेक कुरूपताओं को देखा, चरम स्वार्थपरकता देखी, सत्ता और अवसरों का बंदरबाँट देखा और सबसे महत्वपूर्ण इन दलों का टूटना–बिखरना देखा । कुल मिलाकर इनका जो चरित्र उभरकर सामने आया उससे आमलोगों में स्पष्टतः यह संदेश गया है कि मुद्दों के प्रति ये दल गम्भीर नहीं हैं । दूसरी ओर विरोधी तत्वों ने भलीभाँति इस बात को समझ ली कि सत्ता के गलियारे इनके लिए अधिक प्रिय हैं । इनकी इस मनःस्थिति का प्रयोग इन्हीं के विरुद्ध किया जा सकता है और किया भी । लेकिन आमलोग इनके ऐसे कदमों से सहमति नहीं रखते । इसलिए इन दलों पर एकीकरण का जबर्दस्त दबाब था । इसे एक सकारात्मक पक्ष समझना चाहिए कि मधेश की राजनीति करने वाले दलों ने जनता के इस मनोविज्ञान को समझा और एक छतरी के नीचे आने की जहमत की । यद्यपि ऐसे कयास भी लगाए जा रहे हैं कि आखिर यह सहमति और एकीकरण कब तक ? क्योंकि इनका अतीत बहुत ही संदिग्ध रहा है । लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमें आशा करनी चाहिए । इन दलों के प्रति हमारी चरम नकारात्मकता भी हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा सकती । क्योंकि विकल्पहीनता की अवस्था है । वर्तमान समय में परिस्थितियाँ चाहे जो भी हो लेकिन इस एकीकरण को मधेश की संवेदनाओं का ध्वजवाहक कहा जा सकता है । इनके तत्काल टूटने–बिखरने की संभावना इसलिए भी नहीं है कि नकारात्मकता का ऐसा मनोविज्ञान देश में उत्पन्न हो गया है कि इनके वजूद पर भी प्रश्नचिह्रन गहराने लगा है । अब एकीकरण एक ऐसा हथियार है जो उनकी खोई हुई साख लौटा सकता है ।
एक बात तो यह भी साफ है कि मधेश का आम मनोविज्ञान भी विचित्र है । एक ओर वह विभेद की भी बात करता है, मधेश के प्रति हो रही ज्यादतियों को स्वीकार भी करता है और विरोध की आवाज भी बुलंद करता है । लेकिन चुनावों के समय उन्हीं राजनैतिक दलों का हाथ मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है जो मधेश के प्रति विपरीत सोच रखते । फिर उनकी अपेक्षा भी उन्हीं राजनैतिक दलों से होती है जिनका उन्होंने चुनावों में विरोध किया है । कहीं न कहीं इसके मूल में स्वार्थ और अवसर का वह मनोविज्ञान है जो उन्हें दीर्घकालीन परिणामों को सोचने से विमुख कर देते हैं । तराई में स्थानीय चुनावों का बिगुल फूँका भी नहीं गया लेकिन राष्ट्रीय दलों के कार्यकर्ताओं की चहलकदमी शुरू हो गई । विकास के सब्जबाग उन्हें दिखलाए जाने लगे और डपोरशंखी वादों का दौर शुरू हो गया । लेकिन इनमें भी कुछ लोग हैं जो ठगे से इन स्थितियों को देख रहे हैं । एक बात तो तय है अगर हम अस्तित्व और पहचान की बात करते हैं तो कुछ दिनों के लिए हमें क्षुद्र स्वार्थों की बलि चढ़ानी पड़ेगी । दोनों ही लक्ष्यों को एक साथ नहीं प्राप्त किया जा सकता । दरअसल मधेश की जनता का यही मनोविज्ञान मधेश के विरोधियों को राजधानी में हुँकार भरने का अवसर देता है और उन्हें यह कहने का साहस भी देता है कि मधेश किसी मधेशमार्गी दलों या उनके नेताओं की जागीर नहीं ।



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