साहित्य जगत के बादशाह सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ : जीवन एवं कृतित्व
एक बार फिर साहित्य की इस श्रृंखला को आप सभी के सहयोग और हिमालिनी के साहित्य के प्रति समर्पित ज़ज्बे को आगे बढाते हुए मैं मनीषा गुप्ता आप लोगो के समक्ष ले कर आई हूं प्रतिभा के धनी और साहित्य जगत के बादशाह ..
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’: जीवन एवं कृतित्व [जीवन परिचय] -मनीषा गुप्ता
महाकवि, महामानव और महाप्राण जैसे विरुदों से सम्मानित सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ वास्तव में अपने नाम के ही अनुरूप निराले रचनाकार थे। वे हिन्दी साहित्याकाश के सबसे देदीप्यमान नक्षत्रों में से एक थे। इस महान साहित्यशिल्पी का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में २१ फरवरी, १८९६ को उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के मूल निवासी पंडित रामसहाय त्रिपाठी के घर हुआ जो उस समय मेदिनीपुर के राजा की नौकरी कर रहे थे। बचपन में ही उनकी माता का देहान्त हो गया था। सैनिक स्वभाव वाले पिता के कठोर अनुशाषन में बालक सूर्यकांत का लालन-पालन हुआ।
उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बाँग्ला और संस्कृत में हुई। दसवीं की परीक्षा पास करने के उपरांत स्वाध्याय द्वारा बाँग्ला, संस्कृत, अंग्रेज़ी आदि कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इस बीच मनोहर देवी से उनकी शादी हो चुकी थी, उन्हीं के प्रभाव से सूर्यकांत जी ने हिन्दी पर अधिकार प्राप्त किया और उसमें कविता लिखना शुरू किया। परंतु कवि सूर्यकांत की प्रसिद्धि देखने का मौका मनोहर देवी को न मिल सका, उससे पूर्व ही एक पुत्री और एक पुत्र को छोड़कर वे स्वर्गवासी हो गयी थीं।
पिता की मृत्यु के बाद कुछ समय तक मेदिनीपुर राज्य की नौकरी करने के बाद ’निराला’ जी ने बंगाल छोड़ दिया और लखनऊ आ गये। यहाँ भी कुछ समय रहकर वे इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले में आकर रहने लगे जहाँ इनके जीवन का अधिकांश समय गुज़रा। साहित्य-सृजन के अलावा जीविकोपार्जन के लिये विभिन्न प्रकाशनों में प्रूफ-रीडर के तौर पर काम किया और ’समन्वय’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया। अपने विद्रोही स्वभाव तथा अपारंपरिक लेखन के कारण सृजनकर्म से उन्हें कभी पर्याप्त आमदनी न हुई। इसी अवस्था में उन्होंने किसी तरह अपनी पुत्री सरोज का विवाह किया, परंतु केवल एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई, इसी कारण ९ अक्टूबर १९३६ को ’सरोजस्मृति’ नामक कविता अस्तित्व में आई जो हिन्दी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत माना जाता है। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:-
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
आर्थिक विपन्नता की हालत में भी उनके द्वारा स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों की यथासंभव सहायता करने के अनेक प्रसंग उनके सही अर्थों में महामानवीय चरित्र को उद्घाटित करते हैं। सारा जीवन दुख और तकलीफ़ों से जूझते ’निराला’ अंतिम समय में अध्यात्म की ओर झुक गये थे। उनकी इस समय लिखी कविताओं में यह पक्ष उभर कर आया है। कहा जाता है कि मृत्यु से पूर्व वे कुछ विक्षिप्त से भी हो गये थे। १५ अक्टूबर १९६१ को जूही की कली, तुलसीदास, राम की शक्ति-पूजा, सरोज-स्मृति, वह तोड़ती पत्थर, रानी और कानी, कुकुरमुत्ता (कवितायें), देवी, लिली, चतुरी चमार, कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा (गद्य रचनायें) जैसी अनेक कालजयी कृतियों के इस अमर रचनाकार ने अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया।
निराला वास्तव में ओज, औदात्य एवं विद्रोह के कवि हैं। उनपर वेदांत और रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद के दर्शन का प्रभाव रहा है। यही कारण है कि उनकी कविताओं में रहस्यवाद भी मिलता है। निराला अकुंठ एवं वयस्क श्रंगार दृष्टि तथा तृप्ति के कवि हैं। वे सु:ख और दु:ख दोनों को भरपूर देख कर तथा उससे ऊपर उठ कर चित्रण करने की क्षमता रखते हैं। उनकी कविता में बौद्धिकता का भरपूर दबाव और तर्क संगति है। अपने युग का विषय, यथार्थ और उससे उबरने की साधना उनकी तीन प्रबंधात्मक दीर्घ कविताओं – तुलसीदास, सरोजस्मृति और राम की शक्तिपूजा में प्रकट हुई हैं। इसी रचना से यह उद्धरण देखें:
रवि हुआ अस्त
ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल – परिवर्तित – व्यूह – भेद कौशल समूह
राक्षस – विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध – कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि – राजीवनयन – हतलक्ष्य – बाण,
लोहितलोचन – रावण मदमोचन – महीयान
निराला हिन्दी में मुक्त छंद के लिये प्रसिद्ध हैं। वे स्थितियों के संश्लेश से कम से कम शब्दों द्वारा अधिक से अधिक भाव पक्ष प्रकट करते हैं। नाद-योजना का उनकी काव्यात्मकता में विशिष्ठ स्थान है। यही कारण है कि उनकी कविता में कभी कभी दुरूहता आ जाती है।
निराला में प्रारंभ से ही छायावाद से साथ साथ सरल और बोलचाल की भाषा में जीवन के विषय-यथार्थ को अभिव्यक्तकरने की प्रवृत्ति रही है। यह महत्व निराला को ही प्राप्त है कि नई हिन्दी कविता की सभी प्रवृत्तियों के कवि अपना संबंध निराला से जोडने में गौरव का अनुभव करते हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं में भाषा तत्सम बहुल है और उनमें समासों की अधिकता है। परंतु कुछ प्रगतिवादी रचनायें आम बोलचाल की भाषा में भी काव्यबद्ध हुई हैं। इससे यह तो पता चलता ही है कि भाषा के विविध रूपों पर उनका समान अधिकार था। यह उद्धरण देखें:-
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?–
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!