चीन का उपनिवेशवाद तथा रणनीतिक कूटनीति : प्रेमचन्द्र सिंह
प्रेमचन्द्र सिंह, लखनऊ | वैश्विक रणनीतिकारों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक एवं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अविकसित देशों तथा विकासशील देशों को ही चीन अपनी आर्थिक शक्ति के बदौलत रणनीतिक ठिकाना बनाने के मंसूबा में पिछले कई वर्षों से लगा है। चीन अच्छी तरह जानता है कि चीन अपने धन को अगर पश्चमी देशों में लगाता है तो उसे बहुत कम व्याज मिलेगा और वह अपने धन को चीन में रखता है तो इसका असर मुद्रास्फीति पर प्रतिकूल पड़ेगा। इसलिए चीन के पास अपने धन को अपने देश से बाहर ऐसे स्थानों में निवेश करने की मजबूरी है जिससे उसके निवेशित धन पर अधिक मुनाफा मिले और साथ ही उसके विस्तारवादी नीति को बल तथा प्रसार मिले। इस पूर्वनियोजित नीति के तहत चीन विदेशों में निवेश से अपनी कंपनियों के लिए व्यापार, अपने नागरिकों के लिए रोजगार ,चीन में निर्मित कम गुणवत्ता एवं सस्ते सामानों की खपत के लिए बाजार तथा अपने भौगोलिक-रणनीतिक विस्तार के लिए कृत-संकल्प दिखता है। इस तथ्य की पुष्टि श्रीलंका, बर्मा (मैनमार), कम्बोडिया तथा जिबोटी आदि देशों में चीन के अंतरराष्ट्रीय संबंध के विशिष्ट मामलों से स्वतः होती है। गौर करने योग्य तथ्य है कि उल्लिखित समस्त देशों की भौगोलिक स्थिति हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र में रणनीतिक एवम सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाओं यथा अंतरराष्ट्रीय मॉनेटरी फण्ड, विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक आदि द्वारा 0% से 3% ब्याज दर पर गरीब एवम विकासशील देशों को ऋण की सुविधा मुहैया कराया जाता है। भारत अपने पड़ोसी देशों को 1% तथा 1% से कम ब्याज दर पर उस देश की विकास हेतु ऋण की सुविधा देता है। चीन के लिए रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण देशों को ही चीन द्वारा ऋण की पेशकश की जाती है और वह भी उन्हीं परियोजनाओं के लिए जो चीन के हित को साधने में मदद करता है। ऐसे देशों के परियोजनाओं में चीन द्वारा 6% से 9% ब्याज दर ऋण दिया जाता है।
उपनिवेशवाद के संबंध में आम धारणा है कि जब कोई देश अपने आर्थिक, सामरिक तथा रणनीतिक हित के लिए किसी अन्य देश के संसाधनों तथा भौगौलिक स्थिति का दोहन करता है, तो इन दोनों देशों के बीच के अंतराष्ट्रीय संबंध को उपनिवेशवाद कहा जाता है। इस परिपेक्ष्य में उल्लिखित देशों में चीन के अंतरराष्ट्रीय व्यबहार को पढ़ने तथा समझने का यह एक प्रयास मात्र है।
श्रीलंका और चीन के संबंध :–
जानकारों का मानें तो श्रीलंका के ऊपर कुल अंतरराष्ट्रीय ऋण का बोझ 70 बिलियन अमेरिकी डॉलर है जिसमे लगभग 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर केवल चीन का ऋण है। फलस्वरूप श्रीलंका में सकल घरेलू उत्पाद ( जी.डी. पी.) के सापेक्ष अंतरराष्ट्रीय ऋण का अनुपात लगभग 75% है। श्रीलंका वर्तमान में अपने कुल आमदनी का लगभग 80% से 90% धनराशि ऋण के चुकता करने में लगाता है जिसका एक तिहाई हिस्सा केवल चीन से लिये गए ऋण एवं उसपर अर्जित व्याज के वसूली का किस्त के भुगतान में जाता है। श्रीलंका को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं यथा इंटरनेशनल मॉनेटरी फण्ड, वर्ल्ड बैंक आदि से प्राप्त लगभग 35 बिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण के वापसी हेतु किस्तों के भुगतान के लिए श्रीलंका को मुश्किल नही है क्योंकि यह ऋण मामूली ब्याजदर पर है। श्रीलंका के इस आर्थिक स्थिति को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय मॉनेटरी फण्ड (आई.एम.एफ.) को श्रीलंका के लिए आर्थिक सहायता ( बेल आउट पैकेज) पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
श्रीलंका में चीन द्वारा जिन परियोजनाओं के स्थापना के लिए वित्तीय ऋण दिया गया, उनमें हम्बनटोटा बन्दरगाह, मत्ताल हवाईअड्डा, रेललिंक, सड़क लिंक, कोलम्बो कन्टेनर टर्मिनल, औद्योगिक क्षेत्र आदि महत्वपूर्ण है। इन सभी परियोजनाओं में से कोलम्बो कंटेनर टर्मिनल को छोड़कर सभी परियोजनाएं आकंठ नुकसान में है। इसका कारण यह है कि ये परियोजनाएं श्रीलंका के लिए व्यापारिक ( कमर्शियल) मानकों के आधार पर लाभप्रद और ब्यवहारिक प्रारम्भ से ही नही थी, ये सभी परियोजनाएं केवल चीन के लिए सामरिक एवम रणनीतिक रूप से आबश्यक था। परिणामस्वरूप श्रीलंका चीन के ऋण-जाल में फस गया और चीन के ऋण को चुकाना उसके बस में नही है। चीन इसी मौके की प्रतीक्षा में था और उसने श्रीलंका पर ऋण एवं उसपर अर्जित ब्याज की वसूली का दवाब बनाकर अन्य ग़ैरमुनासिब फायदा लेने के लिए पेशकश करने लगा।
श्रीलंका को इस समस्या के समाधान के लिए मजबूरी में इन परियोजनाओं हेतु प्राप्त ऋण एवं उसपर अर्जित ब्याज के बदले चीन को लगभग 80% मालिकाना हक देना पड़ा, पूर्वनिर्धारित निन्यानवे साल के लीज की अवधि को बढ़ाना पड़ा, 1500 एकड़ जमीन चीन की कंपनियों को देना पड़ा और अन्य व्यापारिक एवम रणनीतिक मामलों में चीन के लाभ के लिए समझौता करना पड़ा।
बर्मा ( मैनमार) और चीन के संबंध :–
बताया जाता है कि मैनमार में चीन द्वारा जिन परियोजनाओं के लिए ऋण दिया गया है उनमें मयितसोन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट, क्यांक प्यू में बे ऑफ बंगाल पोर्ट, क्यांक प्यू स्पेशल इकनोमिक जोन ( इस.इ.जेड.), चीन-मैनमार तेल एवम गैस पाइपलाइन प्रमुख हैं। इन परियोजनाओं के लिए मैनमार पर लगभग 16 बिलियन अमेरिकी डॉलर का चीनी ऋण है।इसके अतिरिक्त चीन के साथ व्यापारिक लेनदेन भी है। मयितसोन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट में सात डैम सम्मिलित हैं। इस परियोजना की लागत लगभग 3.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। यह परियोजना चीन द्वारा मुख्यतः चीन के युन्नान प्रान्त को विजली उपलब्ध कराने के लिए बनाई गई है और तदनुसार इस परियोजना द्वारा उत्पादित बिजली का अधिकाधिक भाग चीन को ही प्राप्त होता है।
क्यांक प्यू में बे ऑफ बंगाल पोर्ट के निर्माण के लिए चीन द्वारा लगभग 7.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण मैनमार को दिया गया है। यह पोर्ट बणिज्यिक व्यापार के दृष्टि से मैनमार के लिए बहुत लाभप्रद साबित नही हो पाया है, लेकिन चीन के अपने सामरिक एवम रणनीतिक हित को साधने का महत्वपूर्ण साधन बन गया है। इसके अतिरिक्त क्यांक प्यू में ही स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एस.इ.जेड.) के निर्माण के लिए चीन ने 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण मैनमार को दिया है। यह परियोजना 17 वर्ग किलोमीटर अर्थात 4200 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है। इसके लिए मैनमार सरकार को लगभग 20,000 ग्रामीणों को विस्थापित करना पड़ा है।
चीन-मैनमार तेल तथा गैस पाइपलाइन की परियोजना के लिए चीन द्वारा मैनमार को क्रमसः 1.5 बिलियन तथा 1.04 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण दिया गया है। यह दोनों पाइपलाइन मैनमार और कुनमिंग को जोड़ता है, कुन्मिंग शहर चीन के युन्नान प्रान्त की राजधानी है। चीन के ऋण से मैनमार कैसे मुक्त हो पायेगा जबकि उल्लिखित परियोजनाएं व्यापारिक तौर पर मैनमार के लिए लाभप्रद नही है। हालांकि मैनमार की वर्तमान सरकार इन परियोजनाओं को लेकर काफी गंभीर है।
कंबोडिया और चीन के संबंध :–
इंटरनेशनल मोनेटरी फण्ड (आई.एम.एफ.) के रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाओं का कंबोडिया पर 1.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण है, जबकि कंबोडिया पर चीन का 3.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण है। इसप्रकार कंबोडिया पर कुल अंतरराष्ट्रीय ऋण का लगभग 70% ऋण चीन का है। इसके अतिरिक्त चीन का कंबोडिया के साथ लगभग 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापारिक लेनदेन है, जो प्रमुखरूप से चीन के हित में है। कंबोडिया चीन से हथियार खरीदता है। कंबोडिया के निर्माण उद्योग में चीनी कंपनियों का बोलबाला है।
कंबोडिया चीन के बढ़ते ऋण-भार से आर्थिक तंगी में है जिसका पूरा फायदा चीन की कंपनियों को मिल रहा है और कंबोडिया को चीन के भू-राजनीतिक हितों के समक्ष मजबूर होना पड़ रहा है।
जिबोटी और चीन का संबंध :–
जिबोटी के भौगौलिक स्थिति के कारण अमेरिका, चीन तथा सऊदी अरब की दिलचस्पी जिबोटी की ओर बढ़ा है। जिबोटी के समीप मंडेब स्ट्रेट और सुएज कैनाल है और इसके कारण जिबोटी रणनीतिक तथा व्यापारिक दृष्टि से हिन्द महासागर में वैश्विक शक्ति-संतुलन के आकर्षक केंद्र के रूप में देखा जा रहा है। विश्व का लगभग 10% तेल तथा 20% वाणिज्यिक ब्यापार मार्ग के दृष्टि से जिबोटी का महत्वपूर्ण भौगोलिक अवस्थिति है। चीन द्वारा जिबोटी में मिलिट्री बेस तथा अबस्थापन के विकास के लिए जिबोटी को 14 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण दिया गया है और इन परियोजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए चीनी कंपनियों को अनुबंधित किया गया है। इससे स्थानीय कंपनियों तथा लोगों को फायदा नही है।
निष्कर्ष :—
इन वैश्विक मामलों में प्रदर्शित समानताओं को देखने से स्पष्ट है कि चीन को अपने आर्थिक, रणनीतिक तथा सामरिक हित के लिए अपने आर्थिक शक्ति के उपयोग करने में महारथ हासिल है। रणनीतिक रूप से अनुकूल भौगौलिक अवस्थिति वाले देशों को ही चीन अपने धन के निवेश के लिए चुनता है और वहां केवल अबस्थापना सम्बन्धी परियोजनाओं में अत्यधिक व्याज दर पर अपने धन का निवेश करता है। चीन जिन परियोजनाओं के लिए ऋण देता है उससे स्थानीयों हितों को बढ़ावा नही मिलता है बल्कि उस देश के संसाधनों तथा बाजार का दोहन ही चीनी पूंजी-निवेश का लक्ष्य होता है। चूंकि स्थानीय आवश्यकताओं को दरकिनार कर परियोजनाओं को अपने हितार्थ निवेश के लिए चीन द्वारा चयन किया जाता है, ऐसी स्थिति में अधिकांश परियोजनाएं घाटे में चली जाती है। परियोजनाएं जितनी घाटे में होती हैं, उतनी ही चीन के लिए अपने हितार्थ उस देश पर दबाव बनाने के लिए अधिक संभावनाओं का विस्तार होता है। नेपाल में एमाले सहित अन्य राजनीतिक दल, जो नेपाल सरकार का हिस्सा रहे हैं, तथा उनके रणनीतिकारों के लिए चीन के उल्लिखित अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रवृति से सिख लेने की अपार संभावना है और इससे ससमय लाभ लेना ही नेपाल के बृहत हित मे होगा।