आज फिर : पूजा गुप्ता
आज मैं फिर से अपने गमों से मुब्तला हो रही हूँ ,
खुद से खुद की पहचान खो रही हूँ ,
कुंठित मन के गलियारे में अपने अहजानों को कन्धे पे उठाए
बीती यादों के बोझ को चुपचाप ढो रही हूँ ।
एहतरमा में जिंदगी की हमारी कुछ ऐसी है की,
तिश्रगी होती है जिनसे हमें मोहब्बत की,
वही अजाब अश्क हमारी अब्सारों को दे जाते हैं,
ख्वाइश करते है जिनसे हम गुले गुGलशन की ,
अबतर कर हमारी जिंदगी को ,
ताह उम्र के लिए अपनी यादों के
पिंजर हमें कैद कर उकूबत का
तौफा हमारे नाम कर जाते है ।
आजÞ मैं ..
जिनको हमने मोहब्बतें फरिश्ता माना ,
वो तो हमें बाजीचा समझते थे ,
बदअख्तरी थे हम जो ,
उनके इशारों पे नाचना अपनी खुशनसीबी समझते थे
भ्रम टूटा साथ छूटा और राहें अलग हुई ,
पर आजÞ भी जाने क्यों वो हमारी कलब के जर्रे जर्रे में बसते हैं,
शायद इसी को सच्ची मोहब्बत कहते हैं ।
आज फ़िर.