संकट में निर्माणाधीन संविधान
देश में दर्घटनाएँ तीव्र गति से हो रही है । लोगों की अपेक्षा पर तुषारापात का लक्षण बढता ही जा रहा है । संविधान सभा की समय सीमा को कम अवधि के लिए बढÞाकर बर्ढाई गई समय के भीतर ही सेना समायोजन का काम पूरा करने तथा संविधान का प्रारम्भिक मसौदा लाने की जो सोच दिख रही थी वो अब दिशाहीन होती दिख रही है । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दशे की बडÞी या छोटी कोई भी राजनीतिक पार्टियों के लिए नया संविधान बनना प्रथामिकता का विषय नहीं है । इसका सीधा मतलब यह है कि तीन महीने की अवधि कें भीतर अर्थात भदौ १५ गते एक बार फिर देश में दर्ुघटना का सामूहिक पर््रदर्शन होने का लक्षण भी दिख रहा है । इसको रोकने की ताकत किसी के पास भी होने की परिस्थिति नजर नहीं आ रही है ।
जेठ १४ से पहले मधेशी जनअधिकार फोरम में विभाजन हुआ । एमाले में विभाजन नहीं हुआ तो एकबद्धता भी नहीं है । कांग्रेस विभाजन के बाद फिर से एकीकरण में बँधी । लेकिन नेताओं के महत्वाकांक्षा के टकराव के कारण दल मिलने के बावजूद नेताओं का दिल नहीं मिल पाया है । इस पार्टर्ीीकता में गाँठ पडÞ गयी है । हर महिने में कम से कम एक छोटी पार्टर्ीीें विभाजन अवश्य देखने को मिल रहा है । पहले नेकपा माले, फिर तमलोपा, उसके बाद माले समाजवादी और अभी नेपाली जनता दल । कई ऐसी पार्टियाँ हैं, जिनके पास सिर्फएक ही सभासद है, फिर भी पार्टर्ीीें विभाजन हो गया है । चुरेभावर एकता पार्टर्ीीसका उदाहरण है ।
इस समय देश की सबसे बडÞी पार्टर्ीीवभाजन के कगार पर खडी है । पिछले लम्बे समय से दो लाइन विचारधारा रहे इस पार्टर्ीीें इस समय वैचारिक संर्घष्ा के नाम पर चार गुटों में बँटी है । वैचारिक संर्घष्ा के नाम पर सैद्धांतिक व राजनीतिक विवाद चला रही माओवादी अपने भीतर स्वस्थ बहस को छोडÞकर गुटबन्दी के नाम पर बुरी तरह फँसी है । पार्टर्ीीेताओं के बीच आपसी रंजिश इस कदर बढÞ गयी है कि आने वाले दिनों में इसके कितने टुकडेÞ होंगे ये कोई भी नहीं जानता । इस समय माओवादी सहित अन्य दलों में व्यक्तिवादी असाध्य रोग व अराजनीतिक स्वार्थो की दर्ुगन्ध मिलने का कोई लक्षण नहीं दिख रहा है ।
जब विचारधारा से निर्देशित राजनीति का अन्त होता है, उसके बाद देश भँवर और बहुपक्षीय द्वंद्व में फँस जाता है । विश्व इतिहास पर नजर डाला जाए तो सन् १९३० में फाँसीवाद का जन्म, सन् १९६० के दशक में विद्यार्थी आन्दोलन, सन् १९९० के दशक में इस्लामिक आतंकवाद, सन् १९९४ में रुवाण्डा में हुए जातीय नरसंहार, पर्ूर्वी युगोस्लाविया और इराक में हर्ुइ जातीय हिंसा की लडर्Þाई और विखण्डन, इराक के जेलों में देखी गई अमानवीय यातना, सन् २००८ से अभी तक रही अमेरिकी वित्तीय संकट तथा इसका विश्वव्यापी असर । इन सभी दर्ुघटनाओं के पीछे के कारणो का विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि इन सभी देशों की राजनीतिक विचारधारा अधर में जाने के बाद ही ये दर्ुघटनाएँ घटी थी ।
वैचारिक राजनीतिक का अन्त होने के बाद देखी जाने वाली नकारात्मक परिणाम हाल के दिनों में नेपाली समाज में एक के बाद दूसरी उजागर होती जा रही है । अख्तियार दुरुपयोग अनुसंधान आयोग द्वारा ३६ पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दायर करना । इस घोटाले में कई नेताओं का नाम जुडÞना । विराटनगर के पत्रकार खिलानाथ ढकाल के ऊपर हुए जानलेवा हमले । इस हमले के सभी दोषियों का एक राजनीतिक दल से आबद्ध होना, हमले का मुख्य आरोपी को संरक्षण देने का आरोप सत्तारुढÞ दल पर लगना । बैंंकिंग क्षेत्र में धडÞल्ले से चल रहे गोरखधंधे के कारण देश में वित्तीय संकट छाना, देश की जानी मानी व्यापारिक घराने और लब्ध प्रतिष्ठित उद्योगपति का टैक्स चोरी में नाम आना, इन सबके पीछे कहीं ना कहीं देश की राजनीतिक व्यवस्था ही जिम्मेवार है ।
मूल्य व मान्यता पर आधारित राजनीति के गिरते स्तर के कारण आए दिन हमे नकारात्मक समाचार ही देखने को मिलता है । इसी कारण जातीय, क्षेत्रीय द्वंद्व फैलने, भ्रष्टाचार बढÞने अराजक स्थिति का निर्माण होने, आपसी विश्वास का संकट बढÞने, संस्कृति को तिलांजलि देने, सामाजिक हित से अधिक अपने हित के लिए काम करने की बात होती रहती है ।
उपर्युक्त सभी बातों का विश्लेषण करने पर यह लगता है कि जिस प्रकार की भाषा नेताओं द्वारा बोली जा रही है, जिस प्रकार राजनीतिक संस्कारों की हत्या की जा रही है, उससे यह आशंका बढÞ गयी है कि कहीं देश की लोकतंत्र, गणतंत्र संविधान सभा, ये सब इतिहास के पन्नों में ना सिमट कर रह जाए ।