मधेशी गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती मौन अवधि को संभालना
मुरली मनोहर तिवारी, मंसीर, चुनाव में चंद दिन बाक़ी है, ‘हिमालिनी’ ने मतदाता का मन टटोलने का प्रयास किया, लगभग पूरे मधेश में मधेशी गठबंधन के पक्ष में रूझान स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जहाँ भी चुनावी सभा होता है, सभी लोग मधेशमय दिखाई देते है, उन बातों का असर कुछ घंटों तक दिखता है, लेकिन कुछ समय बाद वही पुराने सवाल उठने लगते है, ‘हमें कितना मिलेगा ?’
पर्सा-बारा से जो रिपोर्ट आ रहे है, उसे माने तो लगभग सभी जगह मधेशी गठबंधन की अग्रता है। कुछ जगहों से बाग़ी उम्मीदवार भोट काटकर चुनौती बढ़ा रहे है। कुछ जगह नए उम्मीदवार के व्यवहार कुशलता के कमी के कारण नाराजगी और अन्तर्घाट की खबरें आ रही है। कुछ जगह पुराने चेहरों से नाराजगी भी ज़ाहिर हो रही है।
इन सब कमी-कमजोरी का प्रत्यक्ष लाभ कांग्रेस को मिलेते हुए दिख रहा है, कांग्रेस का सब जगह संगठन है, इस बार कांग्रेस के भीतरी गुट-उपगुट मिलकर काम कर रहे है, क्योकि ये चुनाव उनके अस्तित्व की लड़ाई बन चुका है। कई जगह वाम गठबंधन का संगठन मजबूत स्थिती में होने से त्रिकोणात्मक प्रतिस्पर्धा हो रही है। कई जगह तो कांग्रेस और वाम गठबंधन के भीतर गोप्य सहमति की बातें भी उजागर हुई है, जिसमे तय हुआ है इन कांग्रेस और वाम गठबंधन में से जो भी उम्मीदवार मजबूत उसी को मदद किया जाए, लेकिन मधेशी गठबंधन बिजयी रथ को रोका जाएं।
कांग्रेस और वाम गठबंधन ज्यादा प्रचार और शोरशराबा से परहेज़ करते हुए, भीतर ही भीतर जात-पात, भविष्य ने नौकरी और अन्य काम का आश्वासन, केस-मुकदमा का डर, मधेशी दल के असंतुष्ट मिलाकर अपना उल्लू सीधा करने की फ़िराक में है।
मधेशी गठबंधन के लिए सबसे चुनौती, दो दिन के मौन अवधि को संभालना रहेगा। मधेश हमेशा से चुनाव में तात्कालिक लाभ के चक्कर में रहती है। वह सोंचती है कि अभी जो मिलता है ले लो, बाद का क्या ठिकाना कि क्या हो और क्या नहीं हो ? परिणाम यह निकलता है कि चुनावों में धड़ल्ले से पैसे, सामान और शराब बांटे जा रहे हैं। लालच में अंधी होकर मधेश मतदान करता है और भ्रष्ट तत्व चुनाव जीत जाते हैं। इसका कारण है, अविश्वास और समाज में धनबल का बढ़ता महत्व। जनता को अब किसी के भी ऊपर विश्वास ही नहीं रह गया है। धूर्त लोग बगुला भगत बनकर, खुद को गरीब का बेटा कहकर चुनाव जीत जाते हैं और फिर भूल जाते हैं अपने गरीब मतदाताओं को। ऐसे में जनता यह देखती है कि उसे कौन कितना पैसा देता है। वह अपने वोटों की नीलामी करती है और जो सबसे ऊंची बोली लगाता है, जीत जाता है। बाद में लूटते तो सभी हैं। मधेशी गठबंधन, इस चुनावी आंदोलन को कैसे पार लगाती है, ये देखने वाली है। बस इन्तजार किया जाए कि बक्से से जिन्न निकलता है, या भूत।