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आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी न होते तो क्या हिंदी आज जैसे स्वरूप में आ पाती ?

रास्तों पर चलना आसान होता है । उन्हें बनाना मुश्किल । इसलिए दूसरा विकल्प चुनने वाले लोग बिरले ही होते हैं । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी उन्हीं दुर्लभ हस्तियों में से थे जिन्होंने आज की हिंदी के लिए रास्ता बनाया । किसी बड़े और घने दरखÞ्त की तरह वे एक लंबे समय तक साहित्यिक जगत के सिर पर साया बनकर खड़े रहे । उनकी इस छाया में हिंदी साहित्य के कई नाम फले–फूले । यह उनका अतुलनीय योगदान ही था जिसके चलते आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग ‘द्विवेदी युग’ (१८९३–१९१८) के नाम से जाना जाता है ।
द्विवेदी जी जब रेलवे की नौकरी छोड़कर सरस्वती के संपादन से जुड़े तब उनकी तनख्वाह २० रुपये थी । उस वक्त को देखें तो यह एक बहुत बड़ी राशि थी और यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने काफी लंबी जद्दोजहद की थी । अपने आधिकारिक काम ‘तार बाबू’ से दीगर हटकर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने माल बाबू, स्टेशन मास्टर और जरूरत के वक्त रेल की पटरियां बिछाने का काम भी किया था । सरस्वती के संपादक के रूप में उन्हें प्राप्त होनेवाली राशि लगभग उनकी रेलवे की नौकरी वाले शुरुआती दिनों के वेतन जितनी ही थी । बहुत मुश्किल होता है कि हम अपने मन का करने के लिए पीछे लौटें या फिर से शुरुआत करें और बीच की इतनी कड़ी मेहनत बस यूं ही जाया हो जाने दें ।
यह माना जा सकता है कि द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा और इसके साहित्य के प्रति अगाध लगाव के वश एक बड़ा त्याग किया था । जरा सोचिये अगर वे अपनी रेलवे की नौकरी में ही जुटे रहते तो फिर क्या होता । क्या हिंदी भाषा को वे बहुत से लेखक मिल पाते जो उनके बताए–दिखाए रास्ते पर उनकी सोच और नैतिकता को केंद्र में रखकर एक आदर्श संसार की संकल्पना लेकर उनके साथ चले थे । रामचंद्र शुक्ल, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, मैथिलीशरण गुप्त जैसे हिंदी साहित्य के न जाने कितने चमकते नाम इसी स्कूल या काल की देन हैं जिसे हम द्विवेदीकाल के नाम से जानते हैं ।
मैथिलीशरण गुप्त ने तो अपने गदगद कंठों से खुद इस बात को स्वीकार किया है ‘द्विवेदी जी ने मेरी उलटी सीधी रचनाओं का पूर्ण शोधन किया । उन्हें सरस्वती में छापा और पत्रों द्वारा भी मेरा उत्साह बढाया ।’ हो सकता है यह कुछ हद तक अपने गुरु और संरक्षक के प्रति विनयशीलता भी हो । फिर भी यह आशंका तो होती ही है कि क्या अज्ञात और उपेक्षित चरित्रों को केंद्र में लानेवाले ‘भारत भारती’ और ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’ जैसे ये काव्य ग्रन्थ सचमुच लिखे भी जाते या नहीं या फिर लिखे भी जाते तो क्या उनका स्वरूप यही होता ? द्विवेदी जी की कई रचनाओं की छाया मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में आई पंक्तियों में देखी जा सकती है । जैसे भारत भारती की प्रारंभिक पंक्तियां हैं–
हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी ।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी ।
ऊपर लिखी पंक्तियां द्विवेदी जी की इन पंक्तियों की छाया से निकली लगती हैं–
कच्चा घर जो था माटी का, पक्के महलों से अच्छा था ।
पेड़ नीम का दरवाजे पर सायबान से था बेहतर ।
वह जंगली हवा कहां है, वह इस दिल की दवा कहां है ?
कहां टहलने को रमना है, लहरा रही कहां जमना है ?

विचार की दृष्टि से और मीटर की दृष्टि से भी क्या यहां कुछ एक जैसा नहीं है ? कई बार हम दूसरों को सहेजने–संवारने और रचने में इस कदर व्यस्त होते हैं कि हमारी रचनाशीलता उसी में टुकड़े–टुकड़े बंट जाती है । हमें लगता है, हम जो कहनेवाले थे, किसी ने वह कह दिया । और हम उसे सहेजकर ही संतुष्ट हो लेते हैं । संपादकों की निजी रचनाशीलता के खÞत्म होने का यह एक बहुत बड़ा सबब होता है । हम दरअसल रचते तो नहीं पर अपने प्रभावकाल में रचे गये हर रचना में टुकड़े–टुकड़े बिखरे होते हैं । द्विवेदी जी के जीवन की भी यह एक बड़ी त्रासदी रही । उनके शिष्य और प्रख्यात लेखक, आलोचक, निबंधकार पदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने भी लिखा– ‘मुझसे कोई अगर पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया, तो मैं समग्र आधुनिक हिंदी साहित्य दिखाकर कह सकता हूं, यह सब उन्हीं की सेवा का फल है ।’ और सचमुच यह सोचनेवाली बात है कि क्या हमारी भाषा या कि फिर साहित्य ही का वही स्वरूप होता जो आज है, अगर द्विवेदी जी नहीं हुए होते ?
और ऐसा भी कुछ नहीं कि द्विवेदी जी ने अपने संपादनकाल में कुछ अमूल्य रचा ही नहीं । वे सिर्फ दूसरे लेखकों से ही यही नहीं कहते रहे कि ‘लेखन का विषय कुछ भी या फिर सभी कुछ हो सकता है । अनंत आकाश से लेकर धरती तक ।’ केवल कविता कहानी, आलोचना ही नहीं उनके लिखे का विषय अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्वशास्त्र, समाजशास्त्र भी रहा । यही नहीं उन्होंने अनुवाद की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण काम किए क्योंकि वे कहने से पहले करने में भरोसा रखते थे । और दूसरों से कहने से पहले उन्होंने खुद यह सभी आजमाकर देखा था । उनके अनुवादों की श्रृंखला में देशी–विदेशी सभी तरह की पुस्तकें रहीं, इनमें जहां संस्कृत के ग्रन्थ थे– किरातार्जुनियम (भारवि), भामिनी विलास (पंडित जगन्नाथ), बेनी संहार (भट्ट नारायण), कुमारसंभवम और मेघदूतम (कालिदास) तो दूसरी तरफ जॉन स्टुअर्ड मिल के ऑन लिबर्टी का अनुवाद ‘स्वाधीनता’ और बेकन के प्रसिद्ध निबंधों का अनुवाद ‘बेकन विचार रचनावली’ के रूप में मिलता है ।
अनुवादों की यह श्रृंखला यहीं खÞत्म नहीं होती । इसमें उर्दू फारसी और दूसरी भाषा की बहुतेरी किताबें सम्मिलित हैं । यह अलग बात है कि द्विवेदी जी अपने ही शिष्यों की तरह किसी खास विधा के चमकते सितारे न हुए । न रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक कहलाए और न गुप्त जी की श्रेणी के कवि या लेखक । पर खुद उन्होंने कभी इसका मलाल भी नहीं किया । बल्कि खुद की कविताओं को भी महज तुकबंदी कहकर वे इसका मजाक उड़ाते रहे । उनके यही गुण उन्हें बिरले लोगों में शामिल करते थे ।
खुद के लिए आत्मगौरव और आत्मप्रशंसा से दूरी बनाए रखना उनका सहज स्वभाव था । इसका एक उदाहरण काशी नागरी प्रचारिणी सभा से मिले उन्हें सम्मान का है । वे हिंदी के पहले आलोचक हुए जिन्हें सबसे पहले आचार्य की उपाधि से नवाजा गया था । यह पदवी संस्कृत भाषा के लेखकों को ही दी जाती थी । १९३३ में उनकी सत्तरवीं वर्षगांठ पर जब नागरी प्रचारिणी सभा ने उनके अभिनंदन का कार्यक्रम रखा तो उन्होंने वहां अपनी बात इन्हीं पंक्तियों से शुरू की ( ‘मुझे आचार्य की पदवी मिली है, क्यों मिली है मालूम नहीं । कब और किसने दी है यह भी मालूम नहीं । मालूम सिर्फ इतना है कि मैं बहुधा इस पदवी से विभूषित किया जाता हूं । । । मैंने बनारस के किसी संस्कृत कॉलेज में भी कदम नहीं रखा कभी… फिर इस पदवी का मैं मुस्तहक कैसे हो गया ?’
बावजूद इसके आलोचक उनकी आलोचना करते थके नहीं । इतिहासकारों ने उन्हें ‘मोटी अक्ल वालों’ के लिए लिखने वाले आलोचक और लेखक के रूप में देखा । वे उन्हें बस भाषा परिष्कारकर्ता मानते रहे, संपादक कहते रहे पर आलोचक, लेखक और कवि के रूप में कोई सम्मान नहीं दिया । ऐसे लोगों में उनके प्रिय शिष्य रामचंद्र शुक्ल भी थे । अगर रामविलास शर्मा को छोड़ दें तो लगभग सारे इतिहासकार आलोचक उनकी आलोचना करते वक्त शायद यह भूल गए कि युग, वातावरण, ऐतिहासिकता, समयानुकूलता भी कोई चीज होती है । वे एकमात्र कलापक्ष को लक्ष्य बनाकर उनके पीछे पिल पड़े । जबकि यह एक आम सिद्धांत है जीवन का कि कलात्मकता बाद की चीज होती है । भरे पेट के लिए मनोरंजन और मनबहलावन के साधन जैसा कुछ । पहले हमारी प्राथमिक जरूरतें ज्यादा मायने रखती हैं । कला की जरूरत तो बहुत बाद में आती है । द्विवेदी जी के सिद्धांतों, नैतिकता और व्यक्तित्व की प्रगाढ़ता की खिल्ली उड़ाने वाले सारे लोग कभी उनकी प्रकाण्डता के आगे नतमस्तक थे । जिस अनुशासन की छड़ी ने उन्हें रचा उसका अनुदान तो वे भूल गए, हां उसकी मार (शाब्दिक अर्थों में) उन्हें जरूर याद रही । अनुशासन तो याद रह गया, उसकी महत्ता नहीं ।
आलोचक यह भूल गए कि उस समय देश के हालात जैसे थे उसमें द्विवेदी जी न सिर्फ भाषा वरन स्वतन्त्रता की लड़ाई की तरह एक निज भाषा गढ़ने और रचने की लड़ाई भी लड़ रहे थे । द्विवेदी का जोर भाषा की शुद्धि पर बहुत था क्योंकि जब उन्होंने लेखन शुरू किया तो हिंदी भाषा व्याकरण की अराजकता की शिकार थी । भारतेंदु युग में भाषा के नाम पर काम तो बहुत हुए, पर अधिकतम रचने की जिद में व्याकरण और भाषा संबंधी छोटी–छोटी बातें दरकिनार ही रह गई । ठीक वैसे ही जैसे बच्चा जब चलना शुरू करे तो हमारी सारी दृष्टि उसके खुद से चल पड़ने को लेकर ही खुश और प्रफुल्लित होने की होती है । उसके आड़े टेढ़े चलने, घिसटने दुबकने, डगमगाकर गिरने से हमें खीज नहीं होती । पर द्विवेदी जी ने मां की ममता भरी दृष्टि से ऊपर उठते हुए एक शिक्षक और चिकित्सक की दृष्टि से भाषा को देखा । उसमें सुधारों के बाबत सोचा और उपाय किए । इसलिए भी उनकी भाषा एक मां की दृष्टि की तरह कोमल नहीं एक चिकित्सक और शिक्षक की दृष्टि की तरह थी और उनके हाथों में एक आलोचकीय चाबुक भी था जो गढ़ने और ढालने में भरोसा रखता था । यह ख्याल रखने वाली ही बात है कि अगर द्विवेदी जी या फिर द्विवेदी युग न हुआ होता, तो प्रतिक्रिया में उपजा घोर कलात्मकता का वह काल छायावाद भी शायद ही हुआ होता और हम कलात्मक और भाषागत ऊंचाइयों के उस चरम से भी अनभिज्ञ ही रह जाते ।

सत्याग्रह से साभार

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