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आर्कटिक क्षेत्र में चीनी सेंध : एन.के. सोमानी

एन.के. सोमानी, चीन ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट एंड वन रोड (ओबोर) का विस्तार करते हुए इसको आर्कटिक महासागर से जोड़ने का निर्णय लिया है। इस परियोजना को लेकर चीन कितना गंभीर व उत्साही है इस का अनुमान इस बात से हो जाता है कि चीन ने बाकायदा इसके लिए एक श्वेत पत्र जारी किया है। ’आर्कटिक के लिए चीन की नीति’ शीर्षक वाला 9000 शब्दों का यह श्वेतपत्र ऐसे समय में आया है जबकि हाल ही में भारत ने दक्षिण चीन सागर मामले में आसियान देशों केे जरिये चीन को घेरने की योजना बनाई है।
26 जनवरी को जब भारत आसियान देशों के प्रमुखों से समुद्री सुरक्षा पर समझौता वार्ता में मशगुल था ठीक उसी वक्त चीन ने यह चैंकाने वाला खुलासा किया। श्वेत पत्र में कहा गया है कि चीन भौगोलिक दृष्टि से आर्कटिक का करीबी देश है। इस लिहाज से आर्कटिक की प्राकृतिक स्थिति और बदलाव से चीन की जलवायु और उसका पर्यावरण भी प्रभावित होता है। चीन का मानना है कि उसकी कृषि, वन, मत्सय उद्योग आदि से जुड़े हित आर्कटिक सागर क्षेत्र से भी जुडे़ हुए है। लिहाजा इस सागर क्षेत्र को विकसित करना व्यापारिक नजरिये से उसके लिए जरूरी है।
हालांकि चीन आर्कटिक क्षेत्र में आने वाला देश नहीं है, इसके बावजूद वह इस धु्रवीय क्षेत्र में हमेशा सक्रिय रहा है। साल 2013 में जब चीन आर्कटिक परिषद् का पर्यवेक्षक सदस्य बना था उसी वक्त इस बात की आंशका जताई जाने लगी थी कि देर सवेर चीन यहां अपना प्रभाव बढाने की कोशिश करेगा । आर्कटिक परिषद् आर्कटिक क्षेत्र में आने वाले देशों की संस्था है। इसमे कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नाॅर्वे, रूस, स्वीडन और अमेरिका शामिल है।
इस दुर्गम जलीय क्षेत्र में चीनी दिलचस्पी का एक अन्य कारण उसकी रूस के साथ चल रही प्राकृतिक गैस परियोजना है। इस परियोजना के तहत रूस द्वारा चीन को सालाना 40 लाख टन प्राकृतिक गैस की आपूर्ति की जानी है। सच तो यह है कि चीन की नियत इस इलाके की प्राकृतिक गैस और तेल पर नियंत्रण करने की होड़ में शामिल होने की है। हालांकि श्वेत पत्र में इस बात को रेखाकिंत किया गया है कि चीन केवल तेल,गैस, खनिज पदार्थ, मछली और अन्य संसाधनों को साधने की इच्छा रखता है। साथ ही उसका कहना है कि वह यह सब आर्कटिक देशों को साथ लेकर उनके सहयोग के जरिए ही करेगा। लेकिन कालांतर में चीन की जो नीति रही है उसे देखते हुए आर्कटिक देश उसे संदेह की दृष्टि से देखते है। हाल के वर्षो में चीन ने नए अंतरराष्ट्रीय समुद्री मार्गो और बंदरगाहों को लेकर जिस तरह से हाय तौबा मचा रखी है उसे देखते हुए आर्कटिक देशों का संदेह जायज भी है
आर्कटिक पृथ्वी के उŸारी धु्रव के आस-पास का क्षेत्र है। जिस प्रकार दक्षिणी धु्रव से सटे क्षेत्र को अंटार्कटिक कहा जाता है, उसी तरह उŸारी धु्रव के आस-पास के क्षेत्र के आर्कटिक कहा जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, कनाडा, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, नाॅर्वे, स्वीडन और फिनलैंड का क्षेत्र इस महासागीरय क्षेत्र में आता हैं। आर्कटिक विशाल बर्फ से ढका हुआ महासागर है। जलवायु परिर्वतन के कारण हाल के वर्षो में समुद्र में बर्फ की मात्रा में कमी आई है जिसके कारण अर्काटिक क्षेत्र में समुद्री जहाजों के आवागमन के नए रास्तों की संभावना दिखाई दे रही है। चीन इन रास्तों को जहाजों की आवाजाही के लिए विकसित करना चाहता है। आर्कटिक मामले आर्कटिक क्षेत्र के बाहर के देशों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समग्र हितों से जुड़े हैं, जिसका विश्वव्यापी महत्व व प्रभाव है। चीन इसे इस तर्ज पर विकसित करना चाहता है कि उसका उपयोग व्यापारिक आवागमन के लिए किया जा सके। चीन ने इसका नाम ’पोलर सिल्क रोड’ दिया है। इस योेजना के द्वारा चीन उŸारी धु्रव के आस-पास एक समुद्री मार्ग तैयार करना चाहता है जिससे उसे एक नया सस्ता व सरल व्यापारीक मार्ग उपलब्ध हो सके। यह योजना चीन के सिल्क रोड और वन बेल्ट वन रोड का ही हिस्सा है। चीन अगर ऐसा करने में कामयाब होता है तो वह न
केवल पहला ऐसा एशियाई देश होगा जिसने इस दुर्गम सागर के लिए समुद्री मार्ग बनाने की इच्छा जाहिर की है बल्कि उŸारी अमरीका, पूर्वी एशिया और पश्चिमी यूरोप के तीन बडे आर्थिक धु्रवों को जोडने में भी सफल होगा। चीन के अनुसार इस समुद्री मार्ग के निर्माण से उसे अपने व्यापारिक साझीदारों के साथ व्यापार में लगने वाले समय और लागत की बचत होगी।
चीनी राज्य परिषद के सूचना कार्यालय द्वारा जारी इस श्वेत पत्र को चार अलग-अलग शीर्षकों- आर्कटिक की पस्थिति और परिवर्तन, चीन और आर्कटिक के संबंध, चीन की आर्कटिक नीति और मूल सिंद्वात तथा आर्कटिक मामले में चीन की हिस्सेदारी के पक्ष आदि में विभाजित किया गया है। श्वेत पत्र मेे आर्थिक भूमंडलीकरण और क्षेत्रीय एकीकरण के विकास के बीच रणनीति, अर्थव्यवस्था, विज्ञान व तकनीक, पर्यावरण, जहाजरानी और संसाधन में अर्काटिक का मूल्य आदि पर भी चर्चा की गयी है।
श्वेत पत्र में कहा गया है कि चीन आर्कटिक को विकसित करने में सकारात्मक योगदान करना चाहता है। इसके लिए चीन अपने तकनीकी ज्ञान और अनुभव के साथ आर्थिक सहयोग करने का इच्छुक है। श्वेत पत्र में आर्कटिक की सुरक्षा, इसके इस्तेमाल और रख रखाव में चीनी योगदान की बात भी कही गयी है । दरअसल चीन की इस योजना का मकसद चीन को यूरोप और मध्यपूर्व सहित तमाम उन देशों से जोड़ना है जिनसे उसके कारोबारी संबंध है। चीन की इस नीति को राष्ट्रपति शी जिनपिंग की उस नीति से भी जोड़ कर देखा जा रहा जिसका मकसद चीन को एक ऐसी आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करना है, जहां से वह शेष विश्व का नेतृत्व करने की भूमिका निभा सके । एक अनुमान के अनुसार अगर इस रूट का निर्माण चीन कर लेता है तो पनामा चैनल पर उसकी निर्भता काफी कम हो जाएगी।
आर्कटिक क्षेत्र में चीन के अलावा रूस भी अपनी सक्रिय भागीदारी दे रहा है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने आर्कटिक में दिसंबर माह में एक
प्लांट का उद्घाटन किया था जिससे स्पेन से दूर देशों में गैस का निर्यात किया जाएगा। पिछले साल के आखिर में रूसी सरकार ने आइसबर्ग परियोजना का उद्घाटन किया था रूस इसके जरिए आर्कटिक महासागर में एक हाइड्रोकार्बन फील्ड विंकसित करना चाहता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन का पोलर सिल्क रोड आइडिया मूल रूप से रूस का ही है और दोनांे देश इस पर महीनो से काम कर रहे हंै । स्थ्तिि चाहे जो भी हो यह तो तय ही है कि चीन को अपनी विस्तारवादी नीति के प्रदर्शन का एक अवसर ओर मिल गया है। रूस सरिखी महाशक्ति के साथ आने से महत्वाकांक्षी चीन की यह नीति आर्कटिक क्षेत्र में किस रूप में प्रकट होगी यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन चीनी श्वेतपत्र पर अमेरिका और अन्य तटीय देशों की चुप्पी भी खल रही है।

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एन.के.सोमानी
ऐसोसियट प्रोफेसर (अंतरराष्ट्रीय संबंध)
एम.जे.जे गल्र्स काॅलेज,सूरतगढ
जिला-श्री गंगानगर (राजस्थान)

 

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