मुख्य न्यायाधिवक्ता के उपर का मुद्दा जायज है तो औरों के उपर क्यों नहीं ?
कैलाश महतो , परासी | यह नेपाल है भाई ! मधेशी पढेलिखे विद्वान् कहलाने बाले लोग भले ही इस बात से इंकार करते हों या फिर डर के मारे नेपाली बनने का नक्कल करते हों, मगर मधेश के हम जैसे समान्य लोगों ने यह जान लिया है कि हम नेपाली नहीं हैं ।
हम नासमझ लोग समझाते समझाते जब अनपढ, गवाँर, किसान, मजदूर और यूवा विद्यार्थियों को समझा लेते हैं तो पढेलिखे मधेशी विद्वान् लोग हमारे बातों को समझने से इंकार करने लगते हैं । वे नेपाली हो जाते हैं और हम जैसे मरसिया मधेश के नाम पर शहीद बनते रहते हैं । जब हम शहीद बनते हैं तो वे बुद्धिमान लोग हमारे लाशों का सौदा करते हैं और नेपाली राज्य के रिक्त पदोंपर विराजमान हो जाते हैं ।
मधेश आन्दोलन के सारे इतिहासों को अध्ययन करें तो मधेश के हक हित में लडने बाले कोई भी सच्चा लडाकू या शहीद परिवार ने कोई लाभीय स्थान प्राप्त नहीं की है । मधेश के लिए लडने बाले सारे योद्धा और शहीदों के परिवार आज भी राज्य और उसके राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक व सम्मानित अवसरों से वञ्चित हंै । मधेश आन्दोलन को गाली और असहयोग करने और नेपाली राजनीतिक दलों में गुलामी करने बाले लोगों के बच्चों को ही मधेशी कोटा या आरक्षण में अवसर मिलते रहे हैं । हर नेपाली पार्टी में गुलाम मधेशी नेताओं की औकातों को मधेश आन्दोलन ने बढा दी है । हर अवसर में मधेशी दल इत्तर के नेताओं के बाल बच्चों का कोटा कायम होता रहा है । मधेश आन्दोलन के शहीद परिवार आज भी दर दर के ठोकरे खा रहे हैं । मधेशभक्त योद्धा आज भी अवसरविहीन और कष्टकर जीवन जीने को बाध्य हैं ।
अध्ययन करें तो सत्ता में बैठे आज के नब्बे प्रशित से ज्यादा मधेशी नेता, अधिकारी, कर्मचारी, पेशागत लोग, राजनीतिक तथा संवैधानिक नियुतिm प्राप्त मधेशी बुद्धिजिवी तथा देश विदेश में कुटनीतिक, शैक्षिक एवं आर्थिक अवसर प्राप्त लोग मधेश आन्दोलन के विरोधी या फिर आन्दोलन को कटाक्ष करने बाले ही लोग रहे हैं । मधेश के हर आनदोलन को असंभव कहने बाले, आन्दोलकारियों को गाली देने बाले, असहयोग करने बाले, मजाक उडाने बाले या फिर उसके विरोध में दलाली, जालसाजी और षड्यन्त्र करने बाले वे ही मानव रुपी परजिवी प्राणी हैं जो आज मधेशी के नाम पर हर जगह विराजमान हैं । आज भी मधेश जब आजादी की बात करती है तो वे लोग असंभव कहते हैं । पागलपना कहते हैं । नेपालियों से दलाली और मधेश से षड्यन्त्र करते हैं ।
मधेश के लगभग सारे बुद्धिजिवी आज पेटजिवी, परिवारजिवी, विदेशजिवी, बच्चाजिवी तथा अवसरजिवी बनने में ही अपनी मर्दानगी समझते हैं । शतिmशाली और इज्जतदार समझते हैं, जबकि उनकी औकात भिखारी और पाल्तु कुत्तों से उपर नहीं है । वे परजिवी हैं, मधेशजिवी नहीं । वे पेटजिवी हैं, बुद्धिजिवी नहीं ।
मैंने सुना है कि एक बडे मान के साहब अपने दफ्तर के लोगों से हमेशा धाक लगाया करते थे । उनका कहना था कि वे वहाँ सबसे सम्मानित और प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे । लोग उनके अडकपन से हैरान थे । वे सबको अपने से नीचे मानते थे । बाँकी के लोग अब उन्हें बर्दाश्त करने से परहेज करने लगे थे । उन कर्मचारियों ने एक दिन अपने मालिक से शिकायत कर दी । मालिक ने भी उसे समझाया कि उसे यह जानना चाहिए कि वह मालिक नहीं है । मालिक के सामने वह मान जाता । लेकिन उनके अनुपस्थिति में वह फिर उसी भ्रम में पड जाता कि वह सबका मालिक है । यह बात मालिक के पास बार बार जाता रहा ।
एक दिन मालिक ने उसे सबक सिखाने के लिए अपने कक्ष में बुलाया और अपने चमकते जूतों से इस तरह धुलाई की कि उसका सारा शरीर बेकाम हो गया । मालिक ने उसके बदन पर नयाँ महँगे कपडे लगाकर इज्जत के साथ बाहर भेजा । अब उसे पता चला कि उस महँगे सुन्दर लिवास के अन्दर उसका बदन कैसा था ।
प्रदेश नम्बर २ में न्याय क्षेत्र को देखभाल करने के लिए प्रदेश के राज्यपाल ने मुख्य न्यायाधिवक्ता के रुप में मधेश के चेहरों में जाने माने कानुनविद् दिपेन्द्र झा को शपथ दिलाया है । दिपेन्द्र झा राष्ट्रिय ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रिय अधिवक्ता हैं । दुनियाँ के अन्तर्राष्ट्रिय कानुन गोष्ठी तथा सेमिनारों में अव्वल पहचान बनाये हुए हैं । मधेश प्रदेश ने अपने आवश्यकता के अनुसार एक सक्षम कानुनविद् को प्रदेश के कानुनी उल्झनों को देखने के लिए नियुक्त की है । मगर नेपाली राज्य को यह मन्जुर नहीं है । उसके संविधान और कानुन के अनुसार दिपेन्द्र झा उस पद के लिए अयोग्य हैं ।
अब सवाल यह उठता है कि एक तरफ मधेश के नाम पर राजनीति करने बाले नेतृत्व यह कहते हैं कि नेपाल का संविधान ही अपूर्ण और कपटपूर्ण है । वहीं दूसरी तरफ उसी अपूर्ण और कपटपूर्ण संविधान के धाराओं को पालन कर विगत में राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्रियों के चुनावों में भाग लेते हुए स्थानीय, प्रादेशिक तथा संसदीय निर्वाचनों समेत में भाग ले चुकी हैं । उस संविधान के अनुसार अगर किसी प्रान्त के मुख्य न्यायाधिवतmा बनने के लिए दश वर्ष की वकालत की अनुभव का प्रावधान है तो फिर दिपेन्द्र झा जी को उस गरिमामय संवैधानिक पद पर नियुतm करना कानुन का मान मर्दन है । उसके लिए प्रदेश प्रमुख, मुख्यमंत्री और श्री झा समेत को कानुनी कार्रबाई होनी चाहिए ।
मगर इस बात का भी खयाल रखना बेहद जरुरी है कि नेपाल के संविधान के अनुसार ही संसद में संसदीय शपथ खाये बगैर चुनाव में विजित कोई भी उम्मेदवार किसी प्रकार के राजनैतिक या संवैधानिक पदों पर नियुतmी नहीं ले सकते । तो फिर व्यविस्थापिका संसद में सांसद पद का शपथ लिए बगैर ही कोई आदमी देश का प्रधानमंत्री कैसे बन पायेगा ? उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर शपथ दिलाने बाले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनने बाले शख्स पर कानुनी कार्रबाई क्यों नहीं ? उनके विरुद्ध अदालतों में मुद्दा क्यों नहीं ?
जिस सर्वोच्च अदालत में दिपेन्द्र झा के पद को बर्खास्त करने हेतु रीट दी जाती है, उसी अदालत के प्रधान न्यायाधिश के एसएलसी का प्रमाणपत्र साबित नहीं है, उनके नागरिकता की स्थिति डाँवाडोल है । वहाँ राज्य, कानुन मंत्रालय, न्याय विभाग मौन क्यों ? दिपेन्द्र झा के पद के विरोध में मुद्दा दायर करने बाले कानुन के विद्वान् लोग कहाँ है ?
वैवाहिक बन्धन में जिन्दगी भर के लिए अपने नेपाली श्रीमान के साथ बँधने बाली पूर्व भारतीय महिला को नेपाल के किसी भी उच्च राजनीतिक या संवैधानिक पद पर बहाल न होने देने बाले नेपाली संविधान ने वैवाहिक सम्बन्ध से ही नेपाल में आयी अनुराधा कोइराला को प्रदेश नम्बर ३ का गवर्नर बनने से क्यों नहीं रोका ? वहाँ संविधान क्या कर रही है ? कानुन आँखे बन्द क्यों कर रखी है ? अगर अनुराधा कोइराला जी का नागरिकता वंशज का है तो भारत छोडकर अपने नेपाली श्रीमान् के साथ नेपाली बन चुकी अन्य महिलाओं को वंशज का ही नागरिकता क्यों नहीं ?
प्रदेश नम्बर २ के मुख्य न्यायाधिवक्ता के उपर का मुद्दा अगर जायज है तो औरों के उपर क्यों नहीं ?