बिना गुरु का ज्ञान नहीं
आज जिनकी हम भगवान कहकर पूजा करते हैं, उनका जीवन भी गुरु ने ही सत्य की ओर मोडÞा था। भगवान राम महषिर् वशिष्ठ के शिष्य थे और भगवान कृष्ण को सन्दीपनी ऋषि ने माखन चोर से ज्ञानियों का सिर मौर बनाया था। बाल्मीकि को दस्युराज से कवियो का सरजात किसने बनाया – विवेकानन्द को शिकागो सम्मेलन में सब को परास्त करने की शक्ति किसने दी – स्वामी रामतर्ीथ को तत्वदर्शी ब्राहृमनिष्ठ किसने किया – स्वामी दयानन्द सरस्वती में समाज सुधार की प्रबल भावना किसने भरी – इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि गुरु ने। तभी तो महाकवि तुलसी दास को कहना पडÞा कि चाहे ब्रहृम शंकर जैसे महाज्ञानी भी क्यों न हों, परन्तु, बिना गुरु के संसार सागर अथवा माया जाल को पार नहीं कर सकते।
गुरु मार्ग-पर््रदर्शक ज्योति है। इसके बिना अज्ञानता के अन्धकार में पथ की खोज करना असम्भव सा है। अन्धेरे कूप में इँट फेककर शक्ति के र्व्यर्थ क्षय की अपेक्षा आदि मनुष्य वही शक्ति गुरु ज्योति की खोज में व्यय करे तो जीवन का स्वरुप नवोदित दिनकर की हर्षोल्लास लालिमा जैसे अलौकिक आनन्द का भोग कर सकता है।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भक्त के भाव ही बदल जाते हैं। जिस व्यक्ति को वह साधारण एवं लौकिक समझता था, उस के विषय में कह उठता है- हे असीम ! सीमा में भी आप का ही स्वर ध्वनित हो रहा है। हमारे अन्तः करण में आप का ही मोहक प्रकाश है। हे, रुपविहीन ! कितने ही रंगो, गंधो, गीतो और छंदो में आप की लीला विस्तार पा रही है। हे लीलाधारी ! मानव समाज को आपने सुख सुरक्षा प्रदान करके सभी का हृदय जीत लिया है। अतः भवसागर से पार करने वाली भक्ति नैया के आप ही केवट हैं। दुनिया के अनेक सहारे हैं, परन्तु हमारी तो केवल एक ही टेक है और वह हैं, आप ! केवल आप ! हम आप की विश्व सभा में केवल आपकी स्तुति गाने आए हैं। अपनी विश्व सभा में गुन गुनाने भर की अनुमति दे दो। प्रभु ! आप के स्वर हमारे गीतों में अभिव्यक्त होते रहें।
राम तजु पै गुरु न विसारु, गुरु को सम हरि न निहारु।।