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इयू और नेपाल के प्रधानमंत्री का सेना के निर्देश के बीच में मधेश : कैलाश महतो


कैलाश महतो, परासी | हालसाल ही यूरोपियन यूनियन ने अपने प्रतिवेदन द्वारा नेपाल के संविधान, संविधान में शासको की आरक्षण, निर्वाचन प्रणाली और मानव अधिकार उलंघन के घटनाओं की पर्दाफास की है । इयू के उस प्रतिवेदन से आग बबूला और हत्प्रभ हुए नेपाल सरकार और उसके पक्षपोषक मीडिया तथा नश्लभक्त कुछ बुद्धिजिवियों ने उस प्रतिवेदन को सुधार करने को निर्देश दी थी, वहीं इयू ने खुले शब्दों में कहा है कि नेपाल सरकार के चाहने भर से वो अपने प्रतिवेदन के किसी भी बूँदों में सुधार नहीं कर सकती । क्योंकि वह तथ्यपरक है । उसमें अगर कुछ असत्य है तो नेपाल सर कार प्रमाणित करें ।
वाजिव सी बात है कि जो राष्ट्र, संस्था, निकाय या लगानीकर्ता कहीं और किसी राष्ट्र पर अपना आर्थिक, भौतिक, शारीरिक और मानसिक लगानी करेगा, वह अपने लगानियों का हिसाब करेगा । जिस इयू की नेपाल में विभिन्न पहलूओं में अरबों की लगानी की है, वह अगर अपनी लगानी की हिसाब निकाले तो उसमें नेपाल की प्रतिष्ठा पर आँच लगने की बात कैसी ?
वैसे भी नेपाल का संविधान सिर्फ नेपाली शासकों के हित में बनाया गया है । उस संविधान से मधेशी ही नहीं, नेपालियों से शासित रहे पहाडों के आदिवासी, जनजाति, दलित तथा पिछडे वर्ग भी कोशों दूर हैं । वह संविधान शासितों पर शासन कर रहे शासक वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर शासितों का और भी शोषण करने को आतुर है । संविधान के प्रस्तावना में इतिहास में गौरवशाली स्थान बनाये मधेश आन्दोलन का चर्चातक नहीं हुई है ।
जिस संविधान ने शासकों के हित के आलावा बाँकी किसी समुदाय को उपर उठने की एक पगडण्डीतक नहीं देती, उसे संसार के सर्वश्रेष्ठ संविधान का दर्जा देना उस किताबी संविधान की मान हानी भी है । उसे मानव जगत का संवैधानिक गीता कहना बेइमानी है ।
संविधान मूलतः धरातलीय एक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ग्रन्थ होता है । संसार के हर प्रसिद्ध ग्रन्थ लेखक निष्पक्ष और स्वतन्त्र विचार के रहे हैं । किसी वाद, धर्म, जात या सम्प्रदाय के प्रति ग्राही या पूर्वाग्राही रहे लोग समग्र मानव कल्याण का बीज नहीं बो सकते ।
जो स्वाभाव से ही गुलाम हो, आर्थिक रुप से दयनीय हो, नश्लीय आधार पर शासन करता हो, जिसका राजकीय मूल नीति दूसरों के हाथों में हाें, जिसका इतिहास कपटपूर्ण हो, जिसका चरित्र ही गरीब हो, जो अपनी पानी और जवानी की सौदा खुद करता हो, जिसकी व्यावहार नीच हो, उसका संविधान उत्कृष्ट कैसे हो सकता है ? उत्कृष्ट और सर्वश्रेष्ठ संविधान लिखने के लिए कम से कम श्रेष्ठ मानव होना आवश्यकता होता है ।
जहाँतक नब्बे प्रतिशत के बहुमत से नेपाल की संविधान–२०७२ लिखे जाने की दावा है, तो नेपाली शासकों को यह बात जानना उपयुक्त होगा कि हर इंसान अपने घरको सय के सय प्रतिशत् लगानी और मेहनत से ही निर्माण करता है । जाहेर सी बात है कि जिस समुदाय के लोग अपना संविधान बनायेगा, वह बहुमत से ही बनायेगा । मगर वह संविधान मधेश का नहीं हो सकता ।
एक सिटामोल या फेण्टा निर्माण होने से पहले कई बार उसकी परीक्षण होती है । बाजार में आने से पूर्व उसके टेस्ट होते हैं । बाजार में आ जाने के बाद भी उसकी जाँच होती रहती है । जनस्वास्थ्य के विपरीत होने पर कम्पनी को जवाफदेह होना पडता है । उसे जरिबाना देना पडता है । उसमें सुधार लानी होती है । उससे भी नहीं बना तो कम्पनी को ही बन्द करना पडता है । मगर एक संविधान, जिसके भावना और निर्देशन के अनुसार देश में सुई से लेकर हवाईजहाजतक बनानी हो, बैलगाडे से लेकर जेटतक उडानीे हो, बच्चा पैदा होने से लेकर इंसान के मरने और दाह संस्कारतक करने पडते हों, उस देश का संविधान अगर विवादित हों, नश्लवाद का जहर हो, विभेद और शोषण का अगर वह जड हो, असमानता का वो पोथी हो तो आने बाले कल्ह के समाज में वो क्या आविष्कार करेगा ? और ताज्जुब की बात तो यह भी है कि नेपाल के खस आर्य शासकों ने अपने हर किताब को संविधान ही कहा है । हर संविधान को उसने दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ ही कहा है, जिनमें से किसी की उम्र दश वर्षों से ज्यादा की नहीं रही है ।
खस आर्य रहे ये लोग बडे विचित्र के धुर्त प्राणी हैं । घुमते फिरते इनके बुद्धि में विकास तो जरुर हुई, मगर सोंच में वेचारे कमजोर पड गये, यद्यपि ये अंग्रेजों के दादा दिखते हैं । ये मष्टो चनामृत पीकर संविधान लिखते हैं । दारु पीकर शासन करते हैं और भोले बाबा के भांङ्ग खाकर अपने किताबों को संविधान कहकर प्रचार करते हैं जो खस चालिसा, आर्य विकासा और मधेशी धिक्कारा से ज्यादा कुछ नहीं है । कभी कभी ये खुद भी नहीं समझते कि श्रेष्ठ या सर्वश्रेष्ठ होते क्या हैं ?
इयू ने नेपाल के लोकतन्त्र और उसके निर्वाचन प्रणाली समेत पर सवाल खडा कर दी है । जिस लोकतान्त्रिक राज्य में निर्वाचन लोकतान्त्रिक नहीं, वहाँ का लोकतन्त्र कैसा ? जहाँ राज्य द्वारा कराये जा रहे निर्वाचनों में मतदाता को अपना फरक मत रखने पर प्रतिवन्ध लगाया जाता हो, वह निर्वाचन प्रणाली लोकतान्त्रिक कैसे हो सकती है ?
नेपाल द्वारा हस्ताक्षरित संयुक्त राष्ट्रसंघीय कानुन तथा विश्व मानव अधिकार के खिलाफ नेपाल में सरकार द्वारा हो रहे अतिक्रमण तथा अन्याय के प्रति इयू ने सरकार का ध्यानाकर्षण कराते हुए उसके व्यस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका समेत में व्याप्त असमानता तथा मानव अधिकार उलंघन के घटानओं के प्रति सजग होने की अनुरोध की है ।
बडी आश्चर्य की बात है कि जिस इयू ने नेपाल का मानव अधिकार का चिंता जाहेर करती है, जिस इयू और अन्तर्राष्ट्रिय मानव अधिकारवादी संस्थाओं ने विगत के मानव विरोधी कृयाकलापों के विरुद्ध आवाज उठाकर आज सरकार में विराजमान महासेठों को सहयोग किया है, उन्हीं के तथ्यपरक प्रतिवेदन इन्हें नागवार सावित हो रहा है । जिसके फेके हुए किताबों से नेपाल की कानुन बनती है, उसे उनका क्षेत्राधिकार सिखाता है । जब राजा बीरेन्द्र और ज्ञानेन्द्र के शासन में हो रहे मानव अधिकार उलंघन के विरोध में खडा होने के काम हुए तो इयू अच्छा था । अब वही काम उसका गलत हो रहा है ।
क्षुद्रपना और नीचता के आलावा जिनका अपना कुछ भी नहीं है, वे मधेशी को सरापेगा, उसे असभ्य और अविकसित कहेगा । जनजातियों को तिरष्कार करेगा, उसे पाखे कहता है । जिसके खायेंगे, उसी से नफरत करेंगे । अपने को वीर और बहादुर कहेंगे । अपने को स्वाभिमानी नेपाली कहने में थोडा शर्म न करेंगे जिनकी स्वाभिमान की पानी और जवानी कतार, दुवई, मलेशिया, ब्रिटेन और भारत प्रयोग करती हैं । जिनके लिए रेल कोई बना देता है, सडकें कोई निर्माण कर देता है । शिक्षा नीति कोई बना देता है, मानव अधिकार कोई देख देता है । जो एनजिओ चलाने के लिए अमेरिका, भिख लेने के लिए जापान, औद्योगिक करिडोर निर्माण के लिए चीन, शिक्षा के लिए नेदरल्याण्ड, सफा पानी के लिए फिनल्याण्ड, लुटे हुए पैसों के लिए स्वीट्जरल्याण्ड, मानव अधिकार के लिए यूरोप आदि की चाकरी करता है, वह स्वाभिमान का ढाका टोपी लगाता है जो ढाका भी बंगलादेश में है ।
ये कभी भारत के विरोध में बडबडाने लगते हैं, जिसके बिना इनकी साँस नहीं चलती । ये कभी अमेरिका से पंङ्गा लेने चल देते हैं, जिसकी बिल्ली भी इनको गिनती नहीं करती । अभी अभी इन्होंने इयू को पाठ पढाने की कोशिश की है, जिससे इसकी दालरोटी चलती है ।
अभी हाल ही में नेपाल के प्रधानमंत्री ओली जी ने नेपाली सेना के मुख्यालय पहुँचकर राष्ट्र और राष्ट्रियता विरुद्ध हो सकने बाली हर अवस्था से निपटने के लिए तैयार रहने का निर्देशन दिया हंै । वैसे सेना कहीं भी सम्मानित होती है । सेना और उसकी संस्था निष्पक्ष होती है । मगर नेपाली सेना समेत ओली की बोली से मिलते जुलते अभिव्यतिm दे डालती है जबकि सेना को सरकार से देश में समानता कायम करने के सल्लाहों के साथ अपने निकाय समेत में समानता और समानुपातिकता अपनानी चाहिए थी । खैर जो भी हो, ओली जी को यह भी याद करना होगा कि सेना तब भी थी, जब राणा के विरोध में प्रजातन्त्र आयी थी । शाही नेपाली सेना तब भी थी, जब ओली और उनके मित्र झापा में लोगों के शर काट रहे थे । सेना तब भी रही, जब राजा बीरेन्द्र और ज्ञानेन्द्र के शासन से जनता विद्रोह कर रही थी, और सेना तब भी होकर लड रही थी, जब दश वर्षोंतक माओवादी जनयुद्ध हुआ था ।
ओली जी के पास अगर हथियार है तो मधेश के साथ बुद्ध, गाँधी और मण्डेला की अहिंसामैत्री अस्त्र और देशी विदेशी शतिm सम्पन्न पर्यवेक्षक तथा मानव अधिकारकर्मी हैं । नेपाल तैयार रहे, मधेश अब फाइनल गेम की तैयारी में है ।

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