मधेशी एकता की संवाहक – हिन्दी : संजय पाण्डेय
संजय पाण्डेय, वीरगंज, ५ मार्च | नेपाल का दक्षिणी समतल भूभाग जिसे मधेश कहा जाता है, वह सांस्कृतिक और भावनात्मक रुप से तो एक है किन्तु अलग अलग क्षेत्रों और समुदायो की अपनी अलग अलग मातृभाषा है । यथा मैथिलि भोजपुरी अवधी थारु बज्जीका आदि । इन सभी भाषाओं को जोड्ने बाली भाषा एक मात्र हिन्दी है । दुसरे शब्दो मे कहें तो हिन्दी ही एक मात्र एसी कडी है जो सम्पूर्ण मधेशको एक सूत्र में बाँधकर रखती है ।
कहा जाता है कि, किसी समुदाय को यदि गुलाम बनाना है तो उसकी भाषा और संस्कृति को पहले नष्ट कर दो । इसी नीति पर चलते हुए खस गोर्खा साम्राज्य के प्रतिनिधियों ने हिन्दी को विदेशी भाषा कहकर विरोध करना शुरु किया और खस कुरा जो कि एक जाति विषेश की भाषा थी उसे “नेपाली भाषा” का नाम देकर पूरे नेपाल पर थोप दिया । जिसे नेपाल आज राष्ट्र भाषा के रुप में स्विकार चुका है । बावजुद इसके मधेशी जनता आपस में संपर्क भाषा के रुप में हिन्दी का ही प्रयोग निःसंकोच रुप से करती है । कारण आज भी अधिकांश मधेशी नेपाली भाषा को ठीक से समझ और बोल नहीं पाते हैं । अत ः मधेश के दो अलग अलग मातृभाषा बोलने बाले लोग जब एक दुसरे की मातृभाषा को समझ और बोल नही पाते हैं तब उनके बीत संवाद का सहज माध्यम हिन्दी होती है । जैसे एक अवधि भाषी मैथिल या भोजपुरी भाषी से बात करता है तो हिन्दी के अलावा उनके पास और कोई भाषा विकल्प के रुप में नही होती है । इतना ही नहीं हिन्दी मधेशी और पहाडी समुदाय के बीच भी संपर्क भाषा के रुप मे प्रयुक्त होती है ।
आखिर ऐसा क्यो है ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने का जब प्रयास करते हैं तो निम्नलिखित कारण समझ आते हैं । एक, नेपाली भाषा जो वास्तव में खस या पहाडी भाषा है, में मधेशी मातृभाषाओ के शब्दाें को जितना संवभ हो सका उतना जान बुझकर स्थान नही दिया गया ताकि नेपाली मधेशी के लिए कठिन और अबुझ बना रहे जिससे मधेशीयो का भाषिक शोषण किया जा सकें । दुसरी, हिन्दी का विकास “नव हिन्द आर्य भाषाओ” जिनमें खस या पहाडी, अवधी, भोजपुरी, मैथिलि आदि नेपाल की प्रमुख भाषाए भी आती है, से हुआ है । इसलिए हिन्दी इन सभी भाषियों के लिए स्वभाविक रुप से सरल और बोधगम्य है ।
हिन्दी की इसी शक्ती को मधेशी राजनीति के योद्धाआें स्वर्गिय गजेन्द्र ना. सिंह और बाबा रामजन्म तिवारी जैसे नेताओं ने पहचाना और मधेश को हिन्दी के माध्यम से संगठीत करना शुरु किया । धिरे धिरे मधेशी अपने अधिकारों के प्रति सचेत होते गए । और अवधी, भोजपुरी, मैथिलि, थारु और राजवंशी भाषा भाषी आपस मे अपने अधिकारों के प्राप्ती के संघर्ष में हिन्दी के माध्यम से संगठीत और सशक्त होते गए । इस बात को शासक भी समझ रहे थे । इसलिए मधेश में भाषिक विभाजन लाने का विचार किया । और बडी ही चतुराई से एक साथ दो तरिको से हिन्दी पर आक्रमण शुरु किया । एक मातृभाषा को बढावा देना जिससे मधेश के विभिन्न मातृभाषाओ में प्रतिष्पर्धा शुरु होकर बाद में वैमनस्यता में परिणत हो जाए और अंततोगत्वा मधेशी एकता भंग हो जाए, और दुसरा हिन्दीको विदेशी भाषा कहकर विरोध करना । ये एक एसी चाल है जो आसानी से कामयाब हो सकती है । क्योकि मातृभाषा से स्वभाविक रुप से मनुष्य को प्यार होता है और होना भी चाहिए । किन्तु मातृभाषा के प्रति इतना आग्रही न हो जाएँ कि मधेश में भाषिक विभाजन आ जाए । याद रहे भाषा विवाद के कारण राष्ट्र विखंडन तक के उदाहरण विश्व में हैं । जहाँ तक हिन्दी को विदेशी भाषा कहने की बात है तो भारत की राष्ट्रभाषा हो जाने भर से हिन्दी विदेशी भाषा नही हो जाती क्योकि इसकी उत्पत्ति बताती है कि यह जीतनी भारत की भाषा हैे उतनी हमारी भी भाषा है । दूसरी बात नेपाली भाषा भी भारतीय संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल है तो क्या नेपाली भी विदेशी भाषा हो गयी ? कदापि नही, इसलिए यह कहा जा सकता है हिन्दी पर भारत का जितना अधिकार है उतना हक हमारा भी है । और यह कि, भाषा के प्रयोग से राष्ट्रीयता नहीं बदलती । यदि ऐसा होता तो अंग्रेजी बोलने वाले अंग्रेज हो जाते किन्तु सारे अंग्रजी भाषी देश अपनी राष्ट्रीयताको लेकर गौरवान्वीत महसुस करते है ।
आज प्रदेश नं. २ में प्रदेश सांसदो के शपथ ग्रहण में जिस तरह भाषा विवाद देखा गया वह चिन्तीत करने वाला है । अपने को मधेशवादी कहने वाले लोग ही कही अन्जाने में मधेश में भाषिक विभाजन के वाहक न बन जाएँ । उन्हे सचेत होना होगा । दूसरी ओर मधेशी युवाओ द्वारा ही हिन्दी का विरोध यह दर्शाता है कि शासक वर्ग कही न कही अपने अभिष्ट, मधेश में भाषिक विभाजन लाकर मधेशवादको कमजोर करना, में अंशतः सफल हो रहे हंै । ऐसा इसलिए है कि मधेशवादी दल हिन्दी की महत्ता को मधेशीयों को ही नही समझा पाए हैं । अथवा मधेश में भाषिक विभाजन के खतरे को नही समझ पाए हैं ।
अब आगे मधेशवादी दलाें को राजनीतिक संघर्ष के साथ साथ भाषिक संघर्ष को भी उतनी ही तत्परता से आगे बढाना होगा । साथ ही मातृभाषाओं को सम्मान देते हुए हिन्दी की आवश्यकता और महत्व को आम मधेशीयों को समझाना होगा । क्योकि हिन्दी के बिना मधेशी एकता की कल्पना नही की जा सकती है । हिन्दी के माध्यम से ही मधेश को मजबुत बनाया जा सकता है ।