क्या ओली का राष्ट्रवाद, नेपाल का राष्ट्रवाद सिद्ध होगा ? डा.गीता कोछड़ जायसवाल/सीपू तिवारी
नेपाल के प्रधान मंत्री खड़ग प्रसाद ओली पिछले साल चुनाव के बाद संयुक्त कम्युनिस्ट गठबंधन के शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे। जबकि, ओली और पुष्प कमल दहाल (प्रचंड) के बीच आंतरिक विवाद और विचारधाराओं की कशमकश जारी रही। इसके साथ-साथ, कांग्रेस पार्टी का पुनः परिवर्तन और वैकल्पिक शक्तियों से गठबंधन के पुनर्जीवित होने की संभावना की भी चुनौतियां हैं। इन परिस्थितियों के चलते, ओली ने एशियाई क्षेत्र में बदलती भू-राजनीति के नस को पकड़ा और नेपाल की जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई।
ओली की नेपाल के प्रति भव्य दृष्टि में बाधा डालने वाला बड़ा मुद्दा केवल आंतरिक विरोध ही नहीं है, बल्कि दो शक्तिशाली पड़ोसी – भारत और चीन की भू-आर्थिक रणनीति भी है। क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं से मिलने वाले लाभों का उपयोग कर ‘मजबूत नेपाल’ बनाने की रणनीति का ‘ऋण जाल’ में फँसने की भी आशंका है। इसलिए, ओली को ‘दो धारी तलवार’ का सामना करना पड़ रहा है, जहाँ एक तरफ़ विदेशी निवेश को आमंत्रित कर विकास पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है, और दूसरी तरफ़, विदेशी शक्तियों का अहस्तक्षेप के अपने राजनीतिक वक्रपटुता (Political Rhetoric) को निभाना है।
नेतृत्व पर चर्चा
एक नेता सत्ता में आने के लिए और अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए राजनीतिक वक्रपटुता का उपयोग करता है। इसका उपयोग प्रभावी रूप से जनता की आत्माओं को एकीकृत लक्ष्य की ओर बढ़ाने और बेहतर भविष्य के सपने दिखाने के लिए किया जाता है। यह एक निरंकुश प्रणाली (autocratic system) में अच्छा काम आता है, जहां सत्ता को कोई चुनौती नहीं होती और सत्ता की शक्ति पर कोई सवाल नहीं उठाए जाते। यहां तक कि यदि वैकल्पिक आवाज़ें उभरती भी हैं, तो उन्हें देश की शक्तियों द्वारा दबाया जा सकता है। लेकिन, लोकतांत्रिक देशों में, जब एक नेता जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ होता है, तब उस नेता की राजनीतिक वक्रपटुता विरोधियों के लिए आक्रमण का साधन बन जाती है। जब लोगों में सपनों के टूटने का आक्रोश बढ़ जाता है, तब विपक्षी नेता उसी राजनीतिक वक्रपटुता का उपयोग करते है और नेतृत्व का मुकाबला करने के लिए लोगों की उप-चेतना को जगाते है।
एक वैकल्पिक शक्ति के रूप में नागरिक समाज सक्रिय हो जाता है, जो की पूरे समाज में बहस को बढ़ावा देता है ताकि नेता से जवाब माँगा जा सके और उनके लक्ष्य कार्यों पर ध्यान रखा जा सके। ऐसी परिस्थितियों में, नेता के पास केवल दो विकल्प होते हैं: यदि बहुमत की शक्ति है तो एकतरफा कार्य करें जिससे एक निरंकुश प्रणाली (Autocratic system) का निर्माण हो जाएगा; या फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए एक राजनीतिक प्रवचन खोलें और अन्य शक्तियों को चुनौती दे ताकि वह उद्देश्यों को आगे बढ़ाए।
वैश्विक प्रवृत्ति में शक्तिशाली नेता एकतरफा कार्य करने का विकल्प चुनते हैं जब तक कि वह सत्ता पर क़ायम रह सके और अगले आम चुनावों तक प्रतीक्षा करते हैं जबकि उन्हें पानी की गहराई का असली अंदाज़ा होता है। इस लंबे इंतज़ार में, कई आवाजों के वर्णन मिश्रित हो जाते हैं और कई शक्तियों के गठबंधन उभर आते हैं, जिनमें से कोई भी एक ऐसी मजबूत शक्ति नहीं बन पाती जो सामाजिक ताकतों को पुन: स्थापित कर मौजूदा नेता को चुनौती दे सके। इसलिए, न केवल मौजूदा नेता सत्ता में बना रहता है और एकत्रित शक्ति बन जाता है, बल्कि वास्तविक उद्देश्य लोगों के लिए एक सपना मात्र बन कर रह जाता है।
नेपाल और शक्तियों का गठबंधन
गृहयुद्ध के बाद, जहां कई बार आशाएं और इच्छाएं मर गईं, लोगों के बेहतर जीवन होने और नेपाल में स्थिरता की एक उमंग जगी थी। गहरे संघर्ष के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था ने प्रत्येक राजनीतिक शक्तियों और उनके नेतृत्व के लक्ष्यों को परिभाषित किया, हालांकि विभिन्न शक्तियां सह-अस्तित्व में रही। इस विविधता में, प्रतिनिधित्व की मांग करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दे वर्ग, क्षेत्र और पदानुक्रम पर आधारित थे।
हालांकि टकराव जारी रहा, लेकिन नए संविधान बनने के दौरान सत्ता की शक्ति का संघर्ष तीव्र हो गया है। अंतिम प्रक्षेपण के दौरान, राष्ट्रीयताओं के बीच का विभाजन उभर कर सामने आया जो कि तराई क्षेत्र में उथल-पुथल और विरोध के रूप में नज़र आया। नतीजन, भारत या चीन के प्रति झुकाव के आधार पर राजनेताओं के बीच दरार ने नेपाल के पूरे सामाजिक वक्तव्य को एक नई दिशा में मोड़ दिया। इस बहस ने न केवल भारतीय समर्थक जनसंख्या और उनके प्रतिनिधियों की एक अलग पहचान बना दी, बल्कि तटस्थ प्रतिनिधियों पर भी पक्ष चुनने के लिए दबाव डाला गया, यहां तक की कुछ कम्युनिस्ट नेताओं को भी ‘चीन विरोधी और भारत समर्थक’ का लेबल दे दिया गया।
यह एक स्तर पर, नेपाल में कुछ समय से चल रही तथाकथित ‘भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता’ कथा का परिणाम भी था। इसलिए, ‘नेपाली राष्ट्रवाद’ का आह्वान करके बेहतर भविष्य की आशा की लालसा देने का कई राजनीतिक प्रतिनिधियों को अवसर मिल गया। एक ऐसा भाषण, जो कई मधेसी प्रतिनिधियों के लिए विवाद का मुद्दा रहा है जिन्होंने नए संविधान में सभी नागरिकों के लिए समानता की मांग की है, यहाँ तक की कुछ प्रतिनिधियों ने नेपाल का विभाजन कर एक ‘अलग माधेश’ और ‘अलग पहचान’ का राज्य बनाने की भी माँग की है ।
ओली और नेतृत्व
चल रही उथल-पुथल में एक बड़ा मोड़ तब आया जब 2017 में आम चुनावों की मांग सामने आयी। हालांकि, तराई क्षेत्र में कई आवाज़ शुरू में चुनावों का बहिष्कार करने का आह्वान करती रही, लेकिन अंतिम परिणाम विभिन्न पार्टियों के बीच नए-नए एकत्रित गठबंधनों का गठन था। तराई क्षेत्र में, महंथ ठाकुर की अगुवाई में राजपा (राष्ट्रीय जनता पार्टी) एक संगठित शक्ति के रूप में उभरा, और उसके साथ उपेंद्र यादव की अगुवाई में संघीय समाजवादी फोरम एक शक्ति के रूप में नज़र आया। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक गठबंधन कम्युनिस्ट पार्टियों का हुआ, यानी शेर बहादूर देउबा की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी का मुकाबला करने के लिए नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का एकीकरण जिसमें ओली की अगुवाई में एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी (सीपीएन-यूएमएल) और प्रचंड के नेतृत्व में माओवादी केंद्र (सीपीएन-एमसी) एक जुट हुई, जबकि मूल रूप से कई यूएमएल नेता जिनमें ओली भी शामिल है इस सिद्धांत पर चलते हैं कि ‘माओवादी विद्रोह’ एक सैद्धांतिक गलती थी क्योंकि शांतिपूर्ण प्रतिरोध के मार्ग हमेशा खुले थे।
कई लोग नेपाल में भारतीय प्रभाव को कम करने के लिए, चीन के बाहरी हाथ को इस अकल्पनीय मोड़ का कारण मानते हैं। हालांकि, लोगों की अत्यधिक बढ़ती चेतना और चीन की अर्थव्यवस्था से बड़ा लाभ प्राप्त करने की आवश्यकता भी इस कदम के लिए एक आंतरिक कारण था। इन प्रमुख परिवर्तनों का मुख्य कारण ‘राष्ट्रीय शक्ति’ का विकास और उससे जुड़ी भावनाएँ है।
दरअसल, प्रधान मंत्री ओली के साथ कम्युनिस्ट गठबंधन ने संयुक्त गठबंधन के उद्देश्यों को फिर से परिभाषित करने के लिए ‘राष्ट्रवादी कार्ड’ का समय पर उपयोग किया है। ओली के ‘समृद्ध नेपाल, सुखी नेपाली’ के राजनीतिक वक्रपटुता को, एशिया और दुनिया की बदलती भू-राजनीति के कारण, लोगों का अत्यधिक समर्थन मिला। इसी के साथ उन्होंने भारत और चीन के प्रति नेपाल की विदेश नीति के रणनीतिक उद्देश्य को “समान दूरी” से बदल के “समान निकटता” बना दिया है। ओली जो ख़ुद को ‘देशभक्त नेपाली’ कहना पसंद करते हैं, उनका राजनीतिक भविष्य इस क्षमता पर निर्भर करेगा कि वह नेपाल के अधिकांश नागरिकों के हितों को परिभाषित करें और लोगों के आत्म-गर्व को बढ़ाने के लिए नेपाल के भौगोलिक लाभ के चलते एक संचयी शक्ति के रूप में ‘नेपाल साम्राज्य’ को पुनर्जीवित करें।।
डा.गीता कोछड़ जायसवाल-चीन में संघाई फुतान विश्वविद्यालय में अस्थाई बिद्वान है, और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर है।
सीपु तिवारी- लेखक, राजनीतिज्ञ और मधेश के जानकार है।