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भावनाओं को व्यक्त करती आधुनिक छोटी कविताएँ – ललन चौधरी

हिमालिनी,अंक जुलाई २०१८ | हिंदी में लंबी कविताओं की परंपरा में जिन कवियों ने मिसाल कायम की उसमें सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘सरोज स्मृति’, ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ को अधिक ख्याति मिली है और गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित ‘अंधेरे में’, ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ और ‘मुद्राराक्षस’ की चर्चा हिंदी आलोचना में अधिक हुई है । लेकिन जब छोटी कविताओं की बात करें तो ‘अज्ञेय’ की कुछ कविताएं सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं और पढ़ी भी जाती हैं । वैसे कवियों के कवि शमशेर, केदारनाथ सिंह, धूमिल, त्रिलोचन, नागार्जुन को छोड़कर और बहुत सारे नाम हैं जो अपनी लंबी कविताओं से ज्यादा छोटी कविताओं से ही जाने जाते हैं । जैसे रघुवीर सहाय, गिरिजाकुमार माथुर, कुंवर नारायण के अलावा नयी कविताओं के दौर में आलोक धन्वा, नचिकेता, ज्ञानेन्द्रपति, अरुणकमल लीलाधर मडलोई जैसे ख्याति प्राप्त कवि के साथ साथ नव सृजन के दौर में शामिल कवियों की भीड़ से कुछ नाम गिनाये जा सकते हैं..यथा संजय कुमार सिंह, विनय सौरभ, अनिरुद्द सिंह, सरिता पांडेय, श्वेता दीप्ति, स्नेहमयी चौधरी, राजेन्द्र नागदेव, कुमार विक्रम,कमलजीत चौधरी, केशव शरण, अरविंद श्रीवास्तव और कुमार विजय गुप्त आदि ऐसे



Lalan Chaudhari
ललन चौधरी

कई नाम हैं । सवाल छोटी और बड़ी के बीच तर्क–वितर्क का नही, अपितु कविता की संप्रेषनीयता और बोधगम्यता पाठकों को कितना करीब कर पाती है और कहां तक उसके दुख दर्द में शामिल हो पाती है । लंबी कविताओं मे अक्सर छोटी और स्वतंत्र कविताएं होती हैं भले ही वह संदर्भ बस कविता के कथ्य का जरुरी हिस्सा हो लेकिन उसे अगर स्वतंत्र रूप में कोई परोसना चाहे तो परोस सकता है । इसलिए तो लंबी कविताओं की कथायात्रा में जब नीरसता आने लगती है तब कोई वैसा हिस्सा कवि को जोड़ना पड़ता है जो उसे रुचिकर बना सके। प्रायः देखा जाता है कि कवि अपने समय एवं सच को कविता का मुख्य बिंदु बनाता है । छोटी कविताओं में पाठकों को भ्रांति नहीं छू सकती, यहां शीर्षक से ही कविता जनमानस के दिल में अपना रस घोलने लगती है और पाठक कम समय में ही तृप्त हो जाता है । उदाहरण बस विनय सौरभ की कविताओं.में कोमल संवेदना की छोटी छोटी सीढि़यां हैं जिससे पाठक आसानी से उतर जाता है..‘मां, पिता और बहनें’ आज के समय की संवेदनाओं में एक ऐसी कविता जहां एक साथ तीनों पात्रों में जो साझा दर्द की मासूम अभिव्यक्ति है,वह आज की कविताओं में विरले देखने को मिलते हैं,वहीं संजय कुमार सिंह की कविता में समय की मार से अस्तित्व की लड़ाई में जोर जोर से पूस की अंधेरी ठंड रात में रोती ‘निरूपाय कुतिया’ शीर्षक कविता में जो पीड़ा की गहरी और मारक परिस्थितियां है..उससे कविता की लड़ाई जारी रहती है । अरुण कमल जैसे हस्ताक्षर भी फूटी सुराही में रखी कुछ आग जो बुझकर राख हो रही होती है और ठंड से ठिठुरते जिस्म को सेंकती बूढ़ी मां कमरे के बाहर हिस्सेवाले बरामदे पर शरीर को उस जान लेने वाली ठंड से लड़ाई लड़ रही होती है । मां के लिए कोई कमरा नहीं है, वह बाहर के हिस्से का भाग बन गयी है ।
आगे स्नेहमयी चौधरी की कविता में जीवन को आग के समानान्तर बहती हुई धारा का उपनाम से विभूषित किया गया है.. “जीवन क्या है ? सिवाय गरमाई के काल प्रवाह में बहती हुई आग की धारा ।” वहीं राजेन्द्र नागदेव की कविता मानव मन को कुहासे से से बाहर निकालकर मुक्त समुद्री हवा की अजनबी गंध से रुबरु कराती है । “भोर के कुहासे में.. मछलियों के देश को जाती छोटी छोटी नौकाओं में सांस लेती हैं मेरी छोटी छोटी इच्छाएं मुझे समुद्री हवा के अजनबी गंध से भी करनी है दोस्ती..
कमल जीत चौधरी की कविता में प्रेम को नये अंदाज में परिभाषित करने की एक सफल कोशिश की गयी है..देखिए. “दौलत खूबसूरती और कला की पैनी रस्सी पर प्रेम झूलता रहा पर बिना सी किए कोयल सा कूकता रहा मन मरू को सींचता रहा सींचता रहा..”
अपने लंबे अध्ययन अध्यापन के क्रम बहुत ऐसी पुस्तकें पढ़ने को मिली, जिससे एक दिशा और सही उद्देश्य को पाने का आभास तो मिला ही साथ साथ विचारों में एक ऐसी तीव्र दृष्टिबोध की क्षमता विकसित हुई कि पूरवर्ती धारणाएं मन में मंद हो गई और परवर्ती विचारों को पचाने मेंं असमंजस की स्थितियां बनी रही..पुस्तक मनुष्य के जीवन मेंं ज्ञान का वह स्रोत है जहां सृष्टि के आंतरिक समस्त क्रियाकलाप की दिशा निर्धारित होती हैं । ऐसी ही ज्ञान रश्मियां हमारे हजारों बरसों के ऐतिहासिक मिथकों और रूढियों को ध्वस्त कर समाज और साहित्य में नई चेतना और ऊर्जा से भरकर जीवन जगत में संतुलन पैदा करती हैं… मनुष्य मनुष्य के ज्ञान से परिमार्जित और परिष्कृत होता है और कुपोषित भी..अच्छे विचार पाने की लालसा हमें उद्वेलित तब करती हैं,जब हम किसी राह की तलाश में भटक रहे होते,हमारा समाज और साहित्य हमें गति देने में असमर्थ हो रहे होते..इतिहास यहीं आकर वर्तमान की असफलता पर आंसू बहाता है और तब कहीं कोई विचारक,चिंतक,समालोचक और दार्शनिक हमारे लिए एक रास्ता निकालता है,और हम उसे अपना आदर्श मान उस ओर चल पड़ते हैं,जहां पहुंचने की छटपटाहट हमें व्यग्रतर कर रही होती है.. कबीर, रहीम, तुलसी और अन्य कवियों ने इसी काम को अपनी लेखनी, अपने अनमोल विचारों से हमें आलोकित कर सही दिशा की ओर प्रवृत करते रहे, ज्ञान से भर कर राह दिखाते,राह चलते राह बताते, उलझनों में धीरज देते, सबको सबसे गले मिलाते, जाति पाति से मुक्त कराते, धर्म को धारण कराते, सबको अपना कर्म बताते ।.लेकिन इससे भी बड़ा काम हमारे ही बीच के कुछ ऐसे सुलझे, दृष्टिसंपन्न सामर्थ्यवान समाज सेवी और साहित्यकारों की एक विशेष टोली कर रही है.. फेसबुक की दुनिया बड़ी ही निराली दुनिया है कि आप जो चाहे लिख लें और जब जहां चाहें किसी मनचाहे विषय को पढ़ लें..सोशलमीडिया की यही उपलब्धि तो समाज को जोड़ रही है और तोड़ भी रही है ।
कविता जिंदगी की बड़ी सच्चाई है और जिंदगी कविता को अपनी संवेदना उधार देती है.. जिसे कवि ग्रहण करता है । जी, सच तो है कि हम मरते नहीं उन शब्दों में जिससे जिंदगी टूटकर बिखर जाती है, काश कि कविता उन शब्दों को ढ़ो पाती.. कवि मन कविता के लिए सहज, सुदंर, सजे हुए शब्दों को पूरी जिंदगी जोग कर रखता है..इसी बुरे वक्त के लिए..ताकि कविता के निमित्त अपनी सच्चाई दूसरों को कह सकूं, बांट सकूं उस पीड़ा को..अपने आप में दूर बहुत दूर खड़े उस दिल के पास पहुंचने की एक खूबसूरत तमनन्ना लिए..
जीवन अनुभूतियों में लिपटी वह कहानी है,जहां अतीत का दामन पकड़े वर्तमान मुस्कुराता है और वर्तमान भविष्य की खोज में निकला हुआ वह मन है जिसका बेगानापन भी बड़ा ही प्रिय लगता है । श्वेता दीप्ति की कविता में जो एकाकीपन है, वह एक अलग बंधी दुनिया है,जिसकी डोर एक ऐसे खूंटे से बंधी है..जिसे उखाड़ना बड़ा ही दुर्लभ और कष्टकर है । चांद की प्रकृति और उसके प्रभाव का बिंब जीवन को मुस्कुराने और गुनगुनाने की तरजीह देता है, कुछ इस तरह कि चांदनी और चांद की आंख मिचौली में जो नाटकीय दृश्य उभड़ता है,वही जीवन को शाश्वत बनाता है ..हम सरीखे आदमी के जीने का मकसद भी पूरा होता है..भलें ही कम समय के लिए सही क्यों न हो! इसलिए तो पूरा का पूरा चांद सामने तो था,
पूरा का पूरा चाँद मेरे चेहरे के पास आ खड़ा था लगा हाथ बढाऊँ और उसे समेट लू
लेकिन हमारी मुट्ठियों में उसका कैद होना कुछ बिडंबनापूर्ण ही जैसा ..जितने करीब होते गये, वो और हमारी पहुंच से दूर.. इसके बावजूद अपने अपने अस्तित्व की लड़ाई जारी है..सचमुच इस कठोर जमीं पर टिके रहने की लडाÞई.. जारी है.. रहेगी ।

 



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