भोग की तृष्णा कभी अन्त नहीं होती
भोग की तृष्णा का कभी अन्त नहीं होता है । अपने मनोनुकूल पत्नी की सार्थकता इसी में समझी है कि भोगों की अबुझ पिपासा को शान्त करने का अबाध अवसर प्राप्त हो । राजा ययाति के सोलह हजार दो स्त्रियाँ थीं । अपनी सोलह हजार सुन्दरी सखियों के साथ शर्मिष्ठा उनके अन्तः पुर में रहती थी और अप्रतिम रूपवती देवयानी उनकी महारानी थी । फिर भी हजारों वर्षों तक विषयसेवन के बाद भी उनकी तृष्णा शान्त नहीं हुई और वे दुःखी होकर पुकार उठे–
न जातु कामः कामनामुप भोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।
यत्पथित्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यपि न पयाृप्त तदित्यतितृसा त्यजेत ।।
पूर्ण वर्ससहस्रं में विषयालक चेतस्ः ।
तथाप्युनिुदिनं तुष्णा यत्तेब्वेत हि जायते ।।
‘भोग की इच्छा कभी भोग से नहीं शान्त हो सकती, जैसे घी डालने से आग और प्रज्ज्वलित होती है, उसी प्रकार भोग भोगने से उसकी इच्छा और बढ़ती जाती है । इस संसार में जितने धन, जौ सुवर्ण, पशु और स्त्रियां है, वे सब एक मनुष्य के लिए भी पूर्ण नहीं है । अर्थात् ये सब एक पुरष को ही दे दिया जाए तो भी वह यह नहीं कह सकता कि ‘बस, अब पूरा हो गया और कुछ नहीं चाहिए ।’ विषयों में मन को फँसाये हुए मुझे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तो भी प्रति दिन उन्ही की लालसा बनी रहती है ।
गीता में ‘काम’ को दुष्पुर अनल’ कहा है अर्थात् काम वह अग्नि है, जिसमें विषयों की कितनी ही आहूति पड़े वह कभी तृप्त नहीं होता । उसका कभी पेट नहीं भरता । इसीलिए वह ‘महाशन’ भी कहा गया है । इसके लिए गीता का स्पष्ट आदेश है– इसी कामरुप दुधर्ष शत्रु को मार डालो ।
जही शत्रुं महावाहो कामरूप दुरासदम ।
नरक के तीन दरबाजे में काम सबसे प्रमुख है । आपकी पत्नी देहात की सीधी–साधी महिला है, इसे आप अपना सौभाग्य समझे । यदि सतीत्व को कुसंस्कार माननेवाली कोई स्वेच्छाचारिणी आपको मिल गई होती तो वह आप के पहले ही आपके पथ का अनुशरण करती । यदि आप एक निरपराध पत्नी के रहते हुए दूसरी का चुनाव करने चलते तो वह भी शायद दूसरा पुरुष चुनने में तनिक भी संकोच नहीं करती । उस समय आप के हृदय में जो आग जलती, उसे बुझाने की आप में शक्ति नहीं रह जाती । अब तक पत्नी ने आपकी इन दुष्प्रवृत्तियों को जानकर भी विरोध नहीं कियाः यह सती की सहज उदारता है । वह उपेक्षा और तिरस्कार को चुपचाप पी जाती है, परन्तु पति को दुःख न हो, इसके लिए ‘उफ’ भी नहीं करती । इन सतियों के इस त्याग और बलिदान को आप जैसे पुरुष अनुचित लाभ उठाने लगे हैं । इसलिए अब नारियों में भी इसकी प्रतिक्रिया होने लगी है और इस प्रकार हमारा समाज रसातल की ओर गिरता चला जा रहा है ।
आप विवेकशील हैं, ईश्वर के समान बनने की इच्छा रखनेवाले, शुद्ध चेतन सहज सुखराशि आत्मा है, फिर जड़ हाड़–मांस की पुतली पर पागल होकर अपना सर्वनाश क्यों कर रहे हैं ? मनुजी कहते हैं– मनुष्य की आयु को नष्ट करनेवाला पाप परस्त्री–सेवन से बढ़कर दूसरा नहीं है । अब से भी आप अपने पूर्वजों की, अपने कुल की मान–मर्यादा को ध्यान में रखकर आत्मोत्थान के पथ में लगे । विषय के कीट बनकर नरक में पहुँचने के लिए सुरंग न खोदें । मेरा तथा समस्त शास्त्रों का मत यही है कि इस पाप–पथ पर आप पैर न रखे, सत्संग करे । सत्पुरुषों की जीवन पढ़े, माता दुर्गा आपकी इष्टदेवी है, उनसे रोकर प्रार्थना करें– मां मुझे बल दो, मैं तुम्हारा योगपात्र बन सकूं । सदा सर्वत्र समस्त स्त्रियों में केवल तुम्हारे मातृरूप के ही दर्शन करुं ।
आप उच्च कुल में उत्पन्न हुए है । आपके घर में धर्माचरण का वातावरण है । सब लोग उच्च विचार के और सच्चरित्र है । आप लोगों के यहां साधु पुरुष भी आते–जाते हैं, तब भी आपके हृदय में इतना भयंकर मोह अभी तक कैसा बना हुआ है । (काम नरक का द्वार है) ।