गृहस्थी के बोझ तले; दबे रह गए, बाबू जी । । महँगाई का दर्द : सुरभि मिश्रा
गृहस्थी के बोझ तले;
खस्ता हालत;
सस्ता चप्पल;
कभी तो, नंगे पाँव चले;
चलते-चलते, थक जाते;
सुस्ताते, छतरी छाँव तले;
कंकड़-पत्थर, पथ दुष्कर पर;
आह ! न भरते, बाबू जी;
गृहस्थी के बोझ तले;
दब के रह गए, बाबू जी ।
तेज धूप, और खड़ी दोपहरी;
बाँध सके न, सर पर पगड़ी;
गृहस्थी के बोझ तले;
दबे रह गए, बाबू जी ।
दिन खींचते, रात बाँधते;
ग़म में राग, ख़ूब साधते;
हरे-भरे, बाहर से दिखते;
अन्दर आग, लिए बाबू जी;
गृहस्थी के बोझ तले;
दब के रह गए, बाबू जी ।
साइकिल एक, पुरानी सी;
डुगडुग चलती, नानी सी;
लेकर चलते, बड़े शान से;
रानी कहते, बाबू जी;
गृहस्थी के बोझ तले;
दब के रह गए, बाबू जी ।
अपने सपने, छोड़ हमारे;
सपने पूरे, करने को;
दौड़-भाग, करते रहते यूँ;
फ़र्ज़, कर्ज से भरने को;
ऐसे पिता, मिलें सभी को;
जैसे मेरे, बाबू जी;
गृहस्थी के, बोझ तले;
दब के रह गए, बाबू जी ।।
●● सुरभि मिश्रा ●●