Thu. Mar 28th, 2024

क्या व्यभिचार अर्थात परस्त्रीगमन अब अपराध की श्रेणी में नहीं है ? : डॉ नीलम महेंद्र

कैसा समाज बनाएंगे हम?

क्या कानून की जवाबदेही केवल देश के संविधान के ही प्रति है?

क्या सभ्यता और नैतिकता के प्रति कानून जवाबदेह नहीं है ?

क्या ऐसा भी हो सकता है कि एक व्यक्ति का आचरण कानून के दायरे में तो आता हो लेकिन नैतिकता के नहीं?

दरअसल माननीय न्यायालय के हाल के कुछ आदेशों ने ऐसा ही कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया। धारा 497 को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हाल के निर्णय को ही लें। निर्णय का सार यह है कि, “व्यभिचार अब अपराध की श्रेणी में नहीं है।” 

व्यभिचार”, अर्थात परस्त्रीगमन, जिसे आप दुराचार, यानी बुरा आचरण, दुष्ट आचरण, अनैतिक आचरण कुछ भी कह सकते हैं लेकिन एक गैर कानूनी आचरण कतई नहीं ! क्योंकि कोर्ट का मानना है कि स्त्री पति की संपत्ति नहीं है। विवाह के बाद महिला की “सेक्सुअल चॉइस” को रोका नहीं जा सकता है। जिसके कारण धारा 497 असंवैधानिक भी है। इसलिए औपनिवेशिक काल के इसलगभग 150 साल पुराने कानून का अब कोई ओचित्य नहीं है। न्यायालय के इस ताजा फैसले के अनुसार,आपसी सहमति से विवाह नामक संस्था के बाहर, दो वयस्कों के बीच का सम्बंध अब “अपराध” नहीं है लेकिन तलाक का आधार अब भी है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में दिए गए कोर्ट के इस आदेश ने भारत जैसे देश में बड़ी ही विचित्र स्थिति उत्पन्न कर दी है।

क्योंकि “विवाह”, यह भारतीय संस्कृति में वेस्टर्न कल्चर की तरह जीवन में घटित होने वाली एक घटना मात्र नहीं है और न ही यह केवल एक स्त्री और पुरूष के बीच अपनी अपनी शाररिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने का साधन है । सनातन परंपरा में यह एक संस्कार है। जीवन के चार पुरुषार्थों को हासिल करने की एक आध्यात्मिक साधना जिसे पति पत्नी एक साथ मिलकर पूर्ण करते हैं। यह एक ऐसा पवित्र बंधन है जो तीन स्तंभों पर टिका है, रति, धर्म और प्रजा(संतान)। जीवन के चार आश्रमों ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ एवं सन्यास’, में से एक महत्वपूर्ण आश्रम गृहस्थ’, जिसका लक्ष्य शेष आश्रमों के साधकोंके प्रति अपने दायित्वों का एक दूसरे के साथ मिलकर निर्वाह करना एवं संतानोत्पत्ति के द्वाराएक ‘श्रेष्ठ’ नई पीढ़ी को तैयार करना एवं पितृ ऋण को चुकाना होता है। सनातन संस्कृति में यह सभी संस्कार या कर्म जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग होते हैं। क्योंकि जब हम मोक्ष की राह ,”धर्म अर्थ काम मोक्ष” इन चार पुरुषार्थों की बात करते हैं तो यह समझना बेहद आवश्यक होता है कि यहां धर्म का अर्थ रेलीजिन न होकर “धार्यते इति धर्म:”, अर्थात धारण करके योग्य आचरण या व्यवहार है। और इसलिए यहाँ धर्म केवल इन चार पुरुषार्थों में से एक पुरूषार्थ न होकर चारों पुरुषार्थों का मूल है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए धर्म का पालन जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है। अतः धर्म (आचरण ) धर्मयुक्त हो, अर्थ यानी पैसा भी धर्म युक्त हो, और काम अर्थात कामवासना की पूर्ति भी धर्म युक्त हो तभी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार से विवाह (वि, वाह ) अर्थात एक ऐसा बंधन होता जिसमें स्त्री पुरूष दोनों मिलकर सृष्टि के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारियों का वहन करते हैं।

लेकिन इस सबसे परे जब आज कोर्ट यह आदेश सुनता है कि आपसी रजामंदी से दो वयस्कों द्वारा किया जाने वाला एक कृत्य जो दुनिया की किसी भी सभ्यता में “नैतिक” कतई नहीं कहा जा सकता अब अवैध नहीं है, इसे क्या कहा जाए

माननीय न्यायालय की स्मृति में विश्व के वे देश आए जहाँ व्यभिचार अपराध नहीं है लेकिन उनकी स्मृति में हमारे शास्त्र नहीं आए जो इस अपराध के लिए स्त्री और पुरूष दोनों को बराबर का दोषी भी मानते हैं और दोनों ही के लिए कठोर सजा और प्रायश्चित का प्रावधान भी देते हैं। क्योंकि हमारी अनेक पुरातन कथाओं से यह स्पष्ट होता है कि इस प्रकार के अनैतिक आचरण का दंड देवताओं और भगवान को भी भोगना पड़ता है, प्रायश्चित करना पड़ता है। अपने अनैतिक आचरण के कारण इंद्र देव को गौतम ऋषि के श्राप का सामना करना पड़ा थाविष्णु भगवान को पत्थर बनना पड़ा था, और जगत पिता होने के बावजूद ब्रह्मा की पूजा नहीं की जाती । इन कथाओं से एक स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की गई है कि इस सृष्टि में सर्व शक्तिमान भी कुछ नियमों से बंधे हैं और नैतिकता का पालन उन्हें भी करना पढता है नहीं तो दंड उन्हें भी दिया जाता है ,प्रायश्चित वे भी करते हैं ।

माननीय न्यायालय कीस्मृति में ब्रिटिश मुख्य न्यायाधीश जॉन हॉल्ट का 1707 का वो कथन भी नहीं आया जिसमें उन्होंने व्यभिचार को हत्या के बाद सबसे गंभीर अपराध बताया था।

हाँ, चाहे पुरुष करे या स्त्री, ये अपराध है और बहुत गंभीर अपराध है।

क्योंकि इसका परिणाम केवल दो लोगों के जीवन पर नहीं पूरे परिवार के आस्तित्व पर पड़ता है ( कोर्ट ने इसे तलाक का आधार मानकर स्वयं इस बात को स्वीकार किया है )। जिसका असर बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ता है। ऐसे टूटे परिवारों के बच्चे कल कैसे वयस्क बनेंगें और कैसा समाज बनाएंगे

तो इन सब तथ्यों की अनदेखी करते हुए जब हमारे न्यायालय इस प्रकार के मामलों में त्वरित फैसले सुनाते हैं ( धारा 497, केस 2017 की दिसंबर में दर्ज हुआ , फैसला सितम्बर 2018, सबरीमाला केस 2006 में दर्ज हुआ , फैसला 2018 और शनिशिंगणापुर केस जनवरी 2016 में  दर्ज हुआ, फैसला अप्रैल 2016 के द्वारा महिलाओं को प्रवेश की अनुमति दे देते हैं ) लेकिन राममंदिर मुद्दे की सुनवाई टल जाती है तो देश का आम आदमी बहुत कुछ सोचने के लिए विवश हो जाता है।

 



About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: