प्रतिशोध का दंश : डा. बन्दना गुप्ता
स्त्री जब प्रताडि़त होती है, बार–बार
तब झुलसे वजूद की चिन्गारियां,
करने लगती है तांडव सीने में उसके,
प्रतिशोध के कीड़े रेंगने लगते हैं,
जिस्म में उसके,
उत्पीड़क अनुभूतियों की पीड़ा का
मारक कराह
लील जाता है नींद उसकी,
उसके क्रोध की रौद्रता
बेंध देती है आसमान की छाती को भी,
और फिर बरसता है एक कहर
कभी फूलन बनकर
पर जब कुचली जाती है
मासूमों की आत्माएं
दैहिक सुख के लिए
होती है निरीहों की हत्याएं
तब दहल जाती है हर माँ की छाती
रो पड़ते है हर पिता के अरमान
कांप जाती है समाज की रुह भी
विरोध की शक्ल में जलने लगती है
हजारों हजारों मोमबत्तियां
होता है सड़कों पर एक हुजूम
न्याय की गुहारों की आवाजों का
सियासी ताकतें करती है वायदें
नयां दिलाने के
मीडिया पीटती रहती है ढोल
हजारों शकुनि, दुर्योधन, दुःशासन
चलते हैं चाले
शराफत की शक्ल अख्तियार कर
कर कभी नहीं टूटता चक्रव्यूह में फंसी
मासूमों का व्यूह
और नहीं मिलती
युवतियों की लूटी अस्मत को
स्वाभिमान से जीने की तकदीर ।