नयन को घेर लेते घन, स्वयं में रह न पाता मन लहर से मूक अधरों पर व्यथा बनती मधुर सिहरन : नामवर सिंह
पथ में साँझ
पथ में साँझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना ।
सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना ।
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना ।
याद है : चूड़ी की टूक से चाँद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना ?
कभी जब याद आ जाते
नयन को घेर लेते घन,
स्वयं में रह न पाता मन
लहर से मूक अधरों पर
व्यथा बनती मधुर सिहरन ।
न दुःख मिलता, न सुख मिलता
न जाने प्रान क्या पाते ।
तुम्हारा प्यार बन सावन,
बरसता याद के रसकन
कि पाकर मोतियों का धन
उमड़ पड़ते नयन निर्धन ।
विरह की घाटियों में भी
मिलन के मेघ मंडराते ।
झुका-सा प्रान का अम्बर,
स्वयं ही सिन्धु बन-बनकर
ह्रदय की रिक्तता भरता
उठा शत कल्पना जलधर ।
ह्रदय-सर रिक्त रह जाता
नयन घट किन्तु भर आते ।
कभी जब याद आ जाते ।
फागुनी साँझ
फागुनी शाम अंगूरी उजास
बतास में जंगली गंध का डूबना
ऐंठती पीर में
दूर, बराह-से
जंगलों के सुनसान का कुंथना ।
बेघर बेपरवाह
दो राहियों का
नत शीश
न देखना, न पूछना ।
शाल की पँक्तियों वाली
निचाट-सी राह में
घूमना घूमना घूमना ।