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गुटनिरेपक्षताः एक आकलन:प्रो. नवीन मिश्रा

शीत युद्ध के युग में कई ऐसे संकट उत्पन्न हुए, जिनके समाधान में गुटनिरपेक्ष देशों ने र्सार्थक भूमिका निभाई और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने अपना महत्त्व प्रमाणित किया। इन में १९५६ का स्वेज संकट और १९६० से १९६३ के बीच का कांगो में लडÞा गया गृहयुद्ध, विशेष रुप से उल्लेखनीय है। लेकिन अब तक किसी ऐसे बडेÞ संकट में रचनात्मक भूमिका निभाने का अवसर गुटनिरपेक्ष देशों को नहीं मिल सका, जिस में दो महाशक्तियों के अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील हित जुडेÞ थे। उदाहरणस्वरुप मध्यपर्ूव में अथवा वियतनाम-संर्घष्ा में १९५४ में जिनेवा समझौता द्वारा युद्ध विराम लागू किया गया और वियतनाम का विभाजन किया गया था। युद्धविराम को र्सार्थक रुप से लागू करने के लिए एक नियन्त्रण मंडल का गठन भी किया गया था। भारत इसका अध्यक्ष था और पोलैण्ड तथा कनाडा इसके ऐसे सदस्य थे, जिनकी पक्षधरता अलग-अलग महाशक्तियों के साथ थी। जल्द ही यह नियन्त्रण मण्डल विफल हो विघटित हो गया। इस घटना का यह अर्थ नहीं है कि गुट निरपेक्षता नाकाम हो गया था। बल्कि इस विफलता का प्रमुख कारण था खाद्यान्नों के आयात के सम्बन्ध में भारत पर अमेरिका की निर्भरता और दूसरे १९६२ के सीमा युद्ध में चीन से बुरी तरह पराजय के बाद भारत की अन्तरराष्ट्रीय छवि बहुत ही खराब हो गई थी।
गुट निरपेक्ष आन्दोलन पर अनेकों बार यह भी आरोप लगाए गए है कि अन्तरराष्ट्रीय संकटों के समाधान में इनकी मध्यस्थता को निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। इनके द्वारा अधिकांशतः दोहरे मापदण्ड का इस्तेमाल किया गया है। १९५६ में जहाँ एक ओर इन्होंने स्वेज प्रसंग में इजरालय, प|mान्स, ब्रिटेन और अमेरिका को कटघरे में खडÞा कर दिया तो ठीक इसी समय हंगरी में उदारवादी-सुधारवादी इमदेनागी की सरकार को अपदस्थ करने और तोपों टैंकों के बल पर उस देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित करनेवाले सोवियत हस्तक्षेप के विरुद्ध भारत तथा अन्य गुट निरपेक्ष राष्ट्रों ने चूँ तक नहीं किया। फिर १९६८ में चेकोस्लाविया की भी घटना कुछ ऐसी ही है। इसी समय सोवियत नेता ब्रेजनेव के द्वारा प्रतिपादित ब्रेजनेव सिद्धान्त के कारण पर्ूर्वी यूरोप के सहयोगी साम्यवादी देशों की स्थिति दयनीय बन गई थी। कुछ लोगों ने तो इसे सीमित संप्रभुता तक की संज्ञा दे डÞाली। इस घटना के बाद सोवियत संघ को ऐसा राष्ट्र मानना कठिन हो गया, जो समतापर्ूण्ा अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना का पक्षधर था। बल्कि इस घटनाक्रम ने उसे एक तानाशाही राष्ट्र के रुप में ही प्रतिष्ठित किया। माओ युगके चीन ने इस घटना की निन्दा करते हुए सोवियत संघ पर साम्राज्यवादी राज्य होने का आरोप लगाया। साम्यवादी देश ही दूसरे साम्यवादी देश की आलोचना कर रहा था लेकिन गुटनिरपेक्ष देश चुप्पी साधे बैठे थे। इसके पश्चात् १९७० के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के समय भी गुटनिरपेक्ष देश सोवियत संघ के विरुद्ध खुल कर नहीं बोल सके। इस समय भारत खुल कर सोवियत संघ के पक्ष में खडÞा नजर आया। भले ही यह उस की तत्कालीन मजबूरी रही हो लेकिन इस बात से तो इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इससे उसकी गुटनिरपेक्षता वाली छवि धूमिल अवश्य हर्ुइ थी।
सन् १९६२ की क्यूबाई मिसाइल लाईट शीत युद्ध काल की सबसे भयानक घटना थी, जिसने  दोनों महाशक्तियों को परमाणविक र्सवनाश के कगार पर लाकर खडÞा कर दिया था। इस घटना के बाद दोनों महाशक्तियों को भी इस बात का एहसास हो गया कि सम्बन्धों को इस हद तक नहीं बिगाडÞना चाहिए और सभी समस्याओं का हल संवाद में ढूँढना चाहिए। इसी समय अमेरिका और सोवियत संघ के बीच किसी भी गलत फहमी को समाप्त करने के लिए हाँटलाईन की व्यवस्था की गई। इससे गुटनिरपेक्ष मध्यस्थता की सम्भावना भी समाप्त हो गई। सन् १९६२ में भारत को चीन से मंुहकी खानी पडÞी। १९६५ में खूनी क्रान्ति के बाद सुकार्णो को इंडोनेशिया में गद्दी त्यागनी पडÞी। इंडोनशिया के ही माध्यम से चीन गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को शिकस्त देने में लगा था। पाकिस्तान में इस समय जनरल अयूब की फौजी तानाशाही का शासन चल रहा था। अयूब के विदेश मन्त्री, जुल्फीकार अली भुट्टो एक तेजस्वी राजनयिक थे, जिन्होंने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के मुकाबले अप|mो-एशियाई एक जूटता का नारा देकर पीकिंग-पिण्डी जकार्ता धुरी की स्थापना की। भारत में नेहरु की इसी बीच मृत्यु हो गई। लालबहादुर शास्त्री भी बहुत दिनों तक प्रधानमन्त्री नहीं रह सके और उनका आकस्मिक निधन हो गया। फिर सत्ता की कमान श्रीमती इन्दिरा गान्धी के हाथों में आ गई। श्रीमती गान्धी के नेतृत्व को कुछ पुराने कांग्रेसी स्वीकार करने के मूडÞ में नहीं थे, जिसके फलस्वरुप कांग्रेस पार्टर्ीीे भीतर ही अन्तरकलह शुरु हो गया, जिसने अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की सक्रियता को भी प्रभावित किया। इन्हीं सभी कारणों से इस वक्त अन्तर्रर्ाा्रीय पहल पर गुट निरपेक्षता लगभग मृतप्राय हो गई।
इसी कारण गुटनिरपेक्षता पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि इसकी अब उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। लेकिन यह बात निर्रथक है। यह अवश्य है कि गुटनिरेपक्षता की अवधारणा का जन्म शीत युद्ध तथा द्वि-ध्रुवीय व्यवस्थ्ाा के परिपे्रक्ष्य में हुआ था लेकिन इसका अस्तित्व मात्र दो महाशक्तियों के अतंरसंबंधों तक कभी भी सीमित नहीं रहा। गुटनिरपेक्षता की नीति से विकासशील समाजों, नवोदित राष्ट्रों की अभिलाषाओं तथा आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है। गुटनिरपेक्ष देशों ने शुरु से लेकर आज तक अपनी स्वतन्त्रता और स्वाधीनता को कायम रखा है। प्रारम्भ से ही गुटनिरपेक्षता का अर्थ सिर्फदो वैचारिक ध्रुवों के बीच टकराव को रोकने का प्रयास ही नहीं बल्कि सभी प्रकार की विषमता और उत्पीडन के विरुद्ध कारगर कदम उठाना रहा है। नस्लवाद, रंगभेद का विरोध, नव-उपनिवेशवाद, आर्थिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध संर्घष्ा, निःशस्त्रीकरण का अभियान, पर्यावरण का संरक्षण आदि इसके प्रमुख विषय रहे हैं। अतः यह कहना उचित नहीं होगा कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्षता आन्दोलन की उपयोगिता समाप्त हो गई है। वास्तविकता तो यह है कि २१वीं सदी के पहले दशक में ऐसी जटिल चुनौतियाँ सामने आई हैं, जिनका सामना करने के लिए गुटनिरपेक्षता देशों को पहले से भी अधिक र्सतर्कता बरतने की जरूरत है। मानवाधिकारों की रक्षा हो अथवा अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा, पर्यावरण का संरक्षण हो या आधुनिक टक्नोंलाँजी का प्रसार, सभी की सफलता गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सक्रियता पर ही निर्भर है।

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