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परिवर्तन का स्वामित्व जनता नहीं ले रही है : दमननाथ ढुगाना,पूर्वसभामुख

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दमननाथ ढुगाना,पूर्वसभामुख

हिमालिनी, अंक मई 2019 । नेपाल के इतिहास में दमननाथ ढुंगाना  एक चिरपरिचित नाम हैं । नेपाल के लोकतान्त्रिक आन्दोलन में आप का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । वि.सं. २०४६ साल पूर्व हुए लोकतान्त्रिक आन्दोलन में आप भौतिक रूप में सक्रिय रहे । वि.सं. ०४८ साल में सम्पन्न प्रथम आम निर्वाचन के बाद निर्मित संसद् में आप सभामुख थे । व्यवसायिक रूप में आप सफल कानून व्यवसायी भी हैं । नेपाल में लोकतन्त्र को संस्थागत करने के लिए ही नहीं, १० वर्षीय सशस्त्र माओवादी द्वन्द्व को शान्तिपूर्ण अवरतण में भी आपकी भूमिका चर्चा योग्य है । लेखक, श्रमजीवी पत्रकार, राजनीतिक योद्धा, कानून व्यवसायी, मानव अधिकारवादी आदि कई विशेषण आप के नाम के आगे जुड़ सकते हैं । आपका जन्म सन् १९४२ जनवरी ३० के दिन काठमांडू (ओमबहाल) में हुआ । आप के पिता जी का नाम केदारनाथ ढुंगाना और माता जी का नाम लक्ष्मीदेवी है । जीवन का अधिकांश समय आपने नेपाली कांग्रेस निकट रहकर काम किया । लेकिन आप खुद को कांग्रेस के बदले‘लोकतन्त्रवादी’ योद्धा के रूप में परिचित कराना चाहते हैं । आज आपके समक्ष कर्मयोद्धा व्यक्तित्व दमनाथ ढुंगाना का ‘जीवन–सन्दर्भ’ प्रस्तुत है–

पारिवारिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक यात्रा
काशीबास के सिलसिला में मेरे दादा–दादी बनारस में रहते थे । इसीलिए मेरे माता–पिता भी वहीं रहते थे । मेरे जन्म होने से ३–४ साल पहले ही पिता जी बनारस से नेपाल आए थे । काठमांडू में हमारी जमीन थी, लेकिन राजनीतिक कारणों से घर को बिक्री करना पड़ा था । जब पिता जी नेपाल आए तो हमारे पास घर नहीं था । मेरे पिता जी भारत में संचालित स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय थे, नेपाल में भी राणा शासन के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था । नेपाल के आन्दोलन में प्रत्यक्ष संलग्न न होते हुए भी उनका उसमें नैतिक समर्थन था । इसके बारे में स्व. वीपी कोइराला ने अपने आत्मवृतान्त में भी उल्लेख किया है । राणा प्रधानमन्त्री चन्द्र शमशेर के समय में भारतीय शहर बनारस में अंग्रेज और राणा दोनों के विरुद्ध आन्दोलन हुआ था, उसमें कई नेपाली सक्रिय सहभागी थे । राणाविरोधी गतिविधि में संलग्न होने के आरोप में नेपाल में हमारी जो भी भौत्तिक सम्पत्ति थी, उसकी बिक्री करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था । सिर्फ हमारे परिवार का ही नहीं, वीपी कोइराला के पिता कृष्णप्रसाद कोइराला के नाम की सम्पत्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था ।

जब राणा प्रधानमन्त्री परिवर्तन होते थे, तब विगत की कमजोरियों को दिखाते हुए जमीन पर से प्रतिबन्ध हटा दिया जाता था ।  इसी तरह जब भीम शमशेर प्रधानमन्त्री बने तो हमारी सम्पत्ति पर से भी प्रतिबन्ध हटा दिया गया । सम्पत्ति मुक्त होने के बाद मेरी दादी जीवन कुमारी जी को लगा कि मेरा पुत्र (मेरे पिता जी केदारनाथ) पुनः राणा विरोधी आन्दोलन में भाग लेगा । इसीलिए उन्होंने अपनी जमीन और घर को बेचने का निर्णय लिया । उस वक्त हमारा घर चावहिल (महांकाल) में था । इसीलिए जब पिता जी बनारस से नेपाल आए तो हम लोगों को किराए में रहना पड़ा । हम लोग ओमबहाल में किराए का कमरा लेकर रहने लगे । वही मेरा जन्म हुआ है ।
वि.सं. २००४ साल की बात है । वीपी कोइराला नेपाल आए । उस वक्त आन्दोलन के बारे में विचार–विमर्श करने के लिए कोइराला जी मेरे पिता जी से मिलने के लिए हमारे घर में भी आए थे । आन्दोलन के दौरान ही उनको जेल जाना पड़ा । मेरे बड़े भाई वैजनाथ उपाध्याय भी जेल में ही थे । भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था, उसी दौरान भारतीय नेता जयप्रकाश नारायण को जेल में रखा गया था । उनको जेल मुक्त कराने के लिए नेपाल में भी आन्दोलन हो रहा था  । उस आन्दोलन में मेरे बड़े भाई भी सक्रिय थे । उसी आरोप में उनको भी अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार किया गया । सप्तरी में भी हमारी जमीन थी । सप्तरी से ही मेरे बड़े भाई वैजनाथ को गिरफ्तार किया गया था । वहां से उनको काठमांडू लाया गया । उस समय पटना से प्रकाशित अखबारों में भी इसके बारे में लिखा गया है । यह सब घटनाक्रम मैं नजदीक से देख रहा था । हो सकता है कि इन सब बातों ने मुझे राजनीति में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया हो ।
बनारस से वापस होने के बाद हम लोग जिस घर में रहते थे, उसी घर में शहीद धर्मभक्त माथेमा भी रहते थे । उक्त घर धर्मभक्त की दीदी (पिता के बहन) का था । मेरी मां लक्ष्मीदेवी धर्मभक्त की जीवनी को भली भांति जानती थी । मेरी दीदी इन्दु को धर्मभक्त किस तरह अपनी गोद में लेते थे और धर्मभक्त को किस तरह मृत्युदण्ड दी गई, इसके बारे में मेरी मां बारबार हम लोगों को सुनाती थी । शायद ये सारी घटनाएँ मुझे राणा शासन के विरुद्ध अभिप्रेरित कर रही थी, अर्थात् मेरे बाल–मस्तिष्क में भी लग रहा था कि नेपाल में राणा शासन विरुद्ध राजनीतिक क्रान्ति अत्यावश्यक है, इसके लिए मुझे भी सक्रिय रहना चाहिए । वि.सं. २००७ साल में हुए राणा शासन विरुद्ध के आन्दोलन में मेरे परिवार के सभी सदस्य सक्रिय थे । राणाशासन विरुद्ध शुरु आन्दोलन को किस तरह आगे बढ़ाना है ? इस विषय को लेकर हमारे ही घर में विचार–विमर्श होते थे । उस समय मैं सिर्फ ७–८ साल का था, लेकिन मेरे अन्दर राजनीतिक चेतना बढ़ रही थी । ऐसी कई घटनाक्रम में मैं राजनीति से निकट रहा ।
मेरी औपचारिक शिक्षा भक्तपुर स्थित पद् मोदय हाइस्कुल से शुरु हुई । बाद में मैं त्रि–चन्द्र कॉलेज, नेशनल कॉलेज और त्रिभुवन विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहा, जहां से मैंने एम.ए. और बी.एल तक का अध्ययन किया । पारिवारिक आर्थिक हैसियत मध्यम थी । पिता जी निःशुल्क पढ़ाते थे, अन्य कोई आमदनी नहीं थी । खेती–किसानी से जीवन निर्वाह करना पड़ता था । भूमि सुुधार ऐन लागू होने के बाद आमदानी का स्रोत भी कमजोर पड़ता जा रहा था । हमारे पास जो भी जमीन थी, सभी में मोहियानी हक लागू हो गया था । स्नातक (बी.ए.) की परीक्षा देकर घर में ही बैठा था, उसी समय में ऐसी परिस्थिति बनी, जिसने मुझे राजनीति में घसीट लिया ।
वि.सं. २०१७ साल पुस १ गते तत्कालीन राजा महेन्द्र शाह ने जननिर्वाचित सरकार को अपदस्थ कर सत्ता अपने हाथ में लिया । उसके बाद ही मैंने राजनीति में सक्रिय सहभागिता के लिए औपचारिक निर्णय किया । अगर राजा की ओर से सत्ता अपने हाथ में नहीं लिया होता तो शायद मैं राजनीति में कभी भी नहीं आता । उक्त घटना होने से पहले मैं सामाजिक कार्य के लिए ज्यादा उत्साहित होता था । इतना ही नहीं, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी कुछ करने का खयाल आता था । लेकिन राजा द्वारा जननिर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने के बाद मैं निष्क्रिय नहीं रह पाया, स्वतन्त्रता वापसी की चुनौती को स्वीकार किया ।
नेविसंघ के संस्थापक
नेपाली कांग्रेस की सशक्त भातृ संगठनों में से नेपाल विद्यार्थी संघ (नेविसंघ) भी एक है । नेविसंघ के जेष्ठ संस्थापकों में से मैं भी एक हूँ । मेरे राजनीतिक जीवन की उपलब्धिमूलक घटनाओं में से यह भी एक है । हम लोगों ने ही नेविसंघ गठन कर नयी पीढ़ी को राजनीतिक चेतना प्रदान की थी । उस समय असुरक्षा के कारण पार्टी के कई शीर्ष नेता भारत में निर्वासित जीवन जी रहे थे, कई नेपाल में ही जेल जीवन जी रहे थे । ऐसी पृष्ठभूमि में जनता के बीच में राजनीतिक चेतना पहुँचाने की जिम्मेदारी हम लोगों की ही थी । वि.सं. २०१९–०२० साल की बात है, उस समय मैंने स्वतन्त्र विद्यार्थी आन्दोलन का नेतृत्व भी किया, त्रि.वि. युनियन के लिए उप–सभापति भी बन गया । आन्दोलन को साथ देने के कारण मानते हुए बाद में सभापति (अध्यक्षता) की जिम्मेदारी भी मुझे मिल गई । उस समय विश्व विद्यालय में नेतृत्व प्रदान करने वाले अनुभवी सीनियर सदस्य मैं ही था । मेरी ही वैचारिक प्रतिबद्धता (ब्रेन ट्रस्ट) के अनुसार नेविसंघ गठन किया गया था । वि.सं. २०१९ साल में त्रिभुवन विश्वविद्यालय में स्वतन्त्र विद्यार्थी युनियन का निर्माण हम लोगों ने ही किया था । युनियन उपाध्यक्ष होते हुए मैं अध्यक्ष तक बन गया । वि.सं. २०२७ साल में नेपाल विद्यार्थी संघ (नेविसंघ) गठन की गई थी । जिसके चलते मैं और मेरे अन्य २१ साथियों के विरुद्ध ‘ दमन ढुंगाना–विरुद्ध श्री ५ का सरकार’ नाम देकर ‘राजकाज’ मुद्दा पंजीकृत किया गया था ।
मैंने वीपी कोइराला और सरोज कोइराल के साथ निकट रह कर काम किया । पार्टी के शीर्ष नेताओं के निकट होकर काम तो किया, लेकिन संगठन में रहकर पद प्राप्त करना चाहिए, मेरी ऐसी मानसिकता नहीं थी । इसीलिए मैंने खुद को पार्टी नेतृत्व के लिए कभी भी तैयारी नहीं की, लेकिन आज आकर कभी–कभार लगता है कि यह मैंने ठीक नहीं किया !

पत्रकारिता, वकालत और राजनीति
जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से नेपाल बार एशोसियसन और उसमें मेरी भूमिका भी एक है । कानून व्यवसायी होते वक्त भी मैंने खुद को लोकतान्त्रिक आन्दोलन से अलग नहीं किया, आन्दोलन में सक्रिय रहा । राजनीतिक पार्टी के प्रति आस्थावन होते हुए भी न्यायिक मूल्य–मान्यता के प्रति मैं हरदम प्रतिबद्ध रहा । इसतरह मैंने लगभग दो दशक कानून व्यवसायी होकर काम किया । आज हम लोग नेपाल बार एशोसिएन नामक जो संस्था देखते है, उसको संस्थागत करने में मेरी भी उल्लेखनीय भूमिका है । प्रथम कानून व्यवसायी सम्मेलन उस समय (वि.सं. २०३४ साल वैशाख) में हुआ था, जिस समय मैं प्रथम निर्वाचित महासचिव था ।
वैसे तो मैं कानून व्यवसाय में प्रवेश करने से पूर्व ही प्रजातान्त्रिक आन्दोलन में सक्रिय हो चुका था । लोकतान्त्रिक आन्दोलन को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से ही मैं श्रमजीवी पत्रकार, शिक्षक, साहित्यकार लेखक आदि के रूप में सक्रिय रहा । मैंने ‘कमनर’, ‘दैनिक नेपाल’ नामक पत्रिका में श्रमजीवी पत्रकार होकर काम किया है । साहित्यिक पत्र–पत्रिकाओं में लेख–रचना प्रकाशित करता था । वि.सं. २०२६ साल की बात है, एक बार मधुपर्क में प्रकाशित मेरे लेख के कारण सम्पादक भैरव अर्याल को राज्य की ओर से चुनौती का सामना भी करना पड़ा ।
वि.सं. २०२८ साल में भुवन कोइराला के साथ मेरी शादी हो गई । शादी के बाद पारिवारिक दायित्व बढ़ गया । स्वतन्त्र रूप में किसी भी व्यवसाय में आबद्ध होना मेरी बाध्यता थी । वि.सं. २०२६ साल से पहले ही मैंने बी.एल. (कानून) पास किया था । मुझे लगा कि पत्रकारिता करने से ज्यादा कानून व्यवसायी होकर काम करना अधिक सुरक्षित है । वकालत शुरु करने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था, लेकिन लाइसेन्स लेने के लिए आवश्यक ३५० रुपैया भी मेरे पास नहीं था । उक्त रकम मैंने भुवन से ही लिया था । इस तरह मेरा वकालती जीवन शुरु हुआ ।
शुरुआती दिनों में काम नहीं मिलता था । अनुभव भी नहीं था । अपने से वरिष्ठ कानून व्यवसायियों के साथ दोस्ती बढ़ाने लगा, काम भी सीख रहा था, धीरे–धीरे काम मिलने लगा । मैं विरोधी राजनीतिक पार्टी के साथ जुड़ा हुआ था । लेकिन न्याय सेवा में राजनीतिक विचार हावी होना नहीं चाहिए, मेरी ऐसी मान्यता थी । स्वतन्त्र न्यायपालिका के प्रति भी मैं पूर्ण प्रतिबद्ध था, उसी के अनुसार मैंने कार्य सम्पादन किया । नेपाल बार एशोसियशन को भी राजनीतिक छायां से मुक्त रखना चाहिए, ऐसी मान्यता के प्रति भी मै प्रतिबद्ध था । उसके लिए मैं एक ही उदाहरण पेश करना चाहता हूं– वि.सं. २०४५ साल की बात है, नेपाल बार एशोसियशन में चुनाव हो रहा था, सभापति में मेरी उम्मेदवारी तय थी । उक्त चुनाव में वरिष्ठ अधिवक्ता वासुदेव ढुंगाना के विरुद्ध मुझे चुनावी प्रतिस्पर्धा करना था । लेकिन मुझे लगा कि यह तो बार के हित विपरित है । बाद में ढुंगाना और राधेश्याम अधिकारी के बीच प्रतिस्पर्धा हो गयी । अधिकारी जी भी मेरे ही ‘ दियाद ल फर्म’ में कार्यरत मित्र थे । लेकिन मैंने स्वतन्त्र रूप में एक वोट देने के अलवा और कुछ भी नहीं किया, अर्थात् किसी के पक्ष में भी लॉविङ नहीं की । बार को तीव्र दलीय ध्रुवीकरण से बचाने के लिए भी मैंने ऐसा किया ।
शुरुआती दिनों में न्याय क्षेत्र के प्रति मेरा प्रश्न होता था– ‘वकील बदनाम हैं, ऐसी अवस्था में इस पेशा में आना क्या ठीक है ?’ यही प्रश्न मैंने वरिष्ठ अधिवक्ता गणेशराज शर्मा से भी किया था । प्रश्न के जवाब स्वरूप उन्होंने अमेरिकन बार एशोसियन की आचारसंहिता पढ़ने के लिए कहा । उक्त आचारसंहिता मैंने नेपाली भाषा में भी अनुवाद किया । उक्त अनुवादित लेख ‘न्यायदूत’ (२०२९ साल) में प्रकाशित है । संक्षेप में कहे तों मैं पत्रकारिता की प्राथमिकता छोड़कर न्याय क्षेत्र में शरण लेने के लिए प्रवेश किया था । लेकिन इस क्षेत्र में रहकर जितना भी काम किया, निष्ठापूर्वक और नैतिक धरातल में रहकर किया । मेरे लिए यह सन्तोषप्रद विषय भी है ।
नेपाल बार एशोसियशन वकीलों की राष्ट्रीय और साझा संस्था है । लेकिन उस समय में यह संस्था सिर्फ काठमांडू उपत्यका के भीतर सीमित थी । देशभर के वकीलों का साझा संगठन बनाना था । उसके लिए मैंने ही पहल शुरु की । वि.सं. २०३३ साल की बात है, सर्वज्ञरत्न तुलाधर बार के निर्वाचित अध्यक्ष थे । निर्वाचित प्रथम महासचिव की हैसियत से बैठक में मैंने प्रस्ताव किया– बार का राष्ट्रीय सम्मेलन किया जाए । अध्यक्ष लगायत बार के अन्य कुछ सदस्यों ने मेरा प्रस्ताव तत्काल स्वीकार किया । आकस्मिक रूप में प्रस्तुत मेरे प्रस्ताव से ही बार एशोसियशन को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया । बार के इतिहास में यह प्रस्ताव मील का पत्थर साबित हुआ । उसके बाद हर ३–३ साल में बार का राष्ट्रीय सम्मेलन होने लगा, जो आज तक अटूट है । हमारे ऐसे ही प्रयासों का विकसित स्वरूप है– आज का नेपाल बार एशोसियशन । सच कहें तो अगर मैं वकालत में नहीं आया होता तो आज मेरा जो परिचय है, वह सम्भव नहीं था, मेरे व्यक्तित्व निर्माण के पीछे शुरुआती दिनों में साहित्य लेखन और बाद में वकालत ने काम किया है ।

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मन्त्री नहीं, सांसद् और सभामुख बन गया
वि.सं. २०४६ साल में जनआन्दोलन सफल हो गया, बहुदलीय व्यवस्था शुरु हो गई । २०४८ साल में प्रथम आम निर्वाचन सम्पन्न हुआ । उक्त निर्वाचन में मैं नेपाली कांग्रेस की ओर से काठमांडू से निर्वाचित एक मात्र सांसद् था । ऐसी अवस्था में अगर चाहते तो मैं सहज ही मन्त्री बन जाता । प्रधानमन्त्री गिरिजाप्रसाद कोइराला भी चाहते थे कि मन्त्रिपरिषद् में काठमांडू से कोई प्रतिनिधि हो । तत्कालीन प्रमुख प्रतिपक्षी दल के नेता मनमोहन अधिकारी ने तो मुझे कहा भी था कि आप परराष्ट्र मन्त्री बन जाइए । इसके लिए उन्होंने पार्टी सभापति गिरिजाप्रसाद कोइराला से भी बात की थी । उन्होेंने क्यों ऐसा किया, मुझे भी पता नहीं है । लेकिन मेरे अन्दर मन्त्री नहीं, सभामुख बनने की चाहत थी । अगर सभामुख नहीं बन पाता तो सिर्फ सांसद् होकर ही रहूँगा, मेरी ऐसी सोंच थी । सभामुख की महत्ता को समझ कर ही मैंने ऐसा निर्णय लिया था । क्योंकि मुझे पता था कि ०१७ साल में संसद् विघटन होने के कारण राष्ट्र का कितनी पीड़ा झेलनी पड़ी है । मैं चाहता था कि संसद् सशक्त हो सके, सरकार के प्रति जवाबदेही बन सके और राजा से दुबारा संसद् का अधिकार न छीना जाए और विघटन भी न हो । इसीलिए मैंने सभामुख बनने का निर्णय लिया था । कानून और विधि के शासनप्रति मेरी प्रतिबद्धता देखकर ही नेपाली कांग्रेस ने मुझे २०४७ साल के संविधान निर्माण संबंधी जिम्मेदारी भी दी दी । विश्वनाथ उपध्याय के नेतृत्व में निर्मित ९ सदस्यीय संविधान सुझाव आयोग में मैंने भी एक सदस्य के रूप में काम किया ।
रामहरि जोशी, जगतनाथ आचार्य जैसे नेता, जो मेरे से सीनियर भी थे, सभामुख के लिए उन लोगों की भी चर्चा थी । लेकिन बाद में उन लोगों ने भी मुझे ही सभामुख बनने के लिए आग्रह किया । इसीलिए मैं सहज रुप में सभामुख बन गया । नेपाल के राजनीतिक इतिहास में प्रथम सभामुख कृष्णप्रसाद भट्टराई हैं । लेकिन जिस वक्त भट्टराई जी सभामुख थे, उन्होंने चुनाव नहीं जीता था । जनआन्दोलन के बाद निर्मित प्रथम संसद् का प्रथम निर्वाचित सभामुख बनने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त हुआ ।

संसदीय अभ्यास के लिए मजबूत
वि.सं. २०१५ साल में सांसद् होकर अनुभव लेने वालें व्यक्ति ०४८ साल में मुश्किल से २–३ थे । ०१६ साल की संसद में गिरिजाप्रसाद कोइराला, मनमोहन अधिकारी जैसे कोई भी नेता सांसद् नहीं थे । अर्थात् कांग्रेस के भीतर भी पुस्तान्तरण हो गया था, नयी पीढ़ी के युवाओं ने चुनाव जीत लिया था । कांग्रेस से निर्वाचित अधिकांश नेता विद्यार्थी राजनीति के अगुवा कार्यकर्ता थे । तत्कालीन एमाले से निर्वाचित सांसद् भी विद्यार्थी नेता तथा शिक्षक ही थे । आन्दोलन की पृष्ठभूमि से आनेवाले नेताओं में संसदीय व्यवस्था के प्रति अभ्यास ना होना स्वाभाविक ही था । उन लोगों को शुरुआती दौर में संसदीय अभ्यास में अभ्यस्त होने में कठिनाई हुई । प्रथम अधिवेशन में मैं भी समय में संसद् सञ्चालन नहीं कर पाया । संसद् में प्रवेश होनेवाले अनेक विषयों के कारण भी संसद् को व्यवस्थित करने में कठिनाई हुई । संक्षेप में कहें तो प्रथम अधिवेशन सन्तोषप्रद नहीं रहा । लेकिन सेकेण्ड अधिवेशन से संसद् प्रभावकारी बन गई । निर्धारित समय में संसद् शुरु होने लगा, विषयों के ऊपर होनेवाले बहस ने भी राष्ट्र को ध्यानाकर्षित किया ।
जिस देश में संसदीय व्यवस्था है, वहां एक कथन प्रचलन में रहता है– सरकार बहुमत की और संसद् प्रतिपक्ष की । यही मान्यता के साथ मैंने भी प्रतिपक्षी दलों को प्रशस्त समय दिया । कम्युनिष्ट पार्टी प्रमुख प्रतिपक्ष के रूप में था । आलोचना होने लगा कि सभामुख कम्युनिष्ट प्रतिपक्षी को ज्यादा समय दे रहे हैं । लेकिन मैं कहता था– ‘नक्सलाइट पृष्ठभूमि से आए कम्युनिष्टों को संसद् में जगह मिलनी चाहिए । अगर उन लोगों को संसद् में जगह नहीं मिलेगी तो वे लोग सडक में उतर जाएंगे, जिसके चलते व्यवस्था के प्रति अनास्था बढ़ जाएगी ।’ संसदीय अभ्यास के प्रति उन लोगों को विश्वस्त बनाने के लिए ही मैंने ऐसा कहा था । इसीलिए मुझे लगता है कि मैंने निष्ठापूर्वक सभामुख की भूमिका निर्वाह की है । सभामुख की भूमिका को प्रभावकारी बनाने के लिए मैं खूब अध्ययन करता था । विशेषतः संसदीय व्यवस्था से संचालित देशों में हो रहे अभ्यास के संबंध में मैं अध्ययन करता था । उस समय मैंने जो परम्परा शुरु की, वह आज संसदीय अभ्यास के लिए एक मजबूत आधार बन गया है, ऐसी बात सुनने से मुझे खुशी मिलती है ।
लेकिन दुःख की बात यह भी है कि आज सभामुख के ऊपर आरोप लग जाता है कि वह राजनीतिक पार्टी के पक्षधर हो गए हैं । सभामुख के ऊपर इसतरह का आरोप दुर्भाग्यपूर्ण है । सभामुख को सिर्फ एक पार्टी के लिए नहीं, सम्पूर्ण सांसद् तथा संसद् को देखकर काम करना चाहिए, जो देश और जनता के हित में भी हो । यह सन्देश सम्प्रेषण होना चाहिए कि सभामुख निष्पक्ष होकर कार्य सम्पादन कर रहे हैं । मैंने इसी मान्यता के साथ काम किया । इसीलिए भी हो सकता है, मुझ पर पार्टी–विशेष सभामुख होने का आरोप नहीं लगा । हां, मैं नेपाली कांग्रेस से प्रतिनिधित्व करते हुए सभामुख बन गया था । लेकिन विपक्षी पार्टी की ओर से भी मेरी भूमिका को लेकर प्रश्न नहीं आया । उलटे ही कांग्रेस के सांसद लोग कहते थे कि सभामुख ने विपक्षी को ज्यादा समय प्रदान किया ।

अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के कारण जान बच गई !
वि.सं. २०४६ साल में मैं नेपाली कांग्रेस का प्रवक्ता था । माघ के महीने में वरिष्ठ पत्रकार होमनाथ दाहाल और मुझे एक साथ गिरफ्तार किया गया । गिरफ्तारी के बाद मैं एक महीना तक काठमांडू स्थित सेन्ट्रल जेल में था । एक दिन सुरक्षाकर्मी  मुझे काठमांडू सेन्ट्रल जेल से रसुवा की ओर लेकर चलने लगे । काठमांडू से रसुवा की ओर चलते वक्त अंधेरा ही था, सुबह हो रही थी । मेरे साथ में बद्रीप्रसाद खतिवडा, जितेन्द्र देव, प्रेमध्वज बस्नेत सहित ६ बन्दी लोग थे । मुझे एक जेल से दूसरे जेल में ले जा रहा था, लेकिन इसके बारे में मेरे परिवार को जानकारी नहीं दी गई थी । संयोग यह भी था कि उसी दिन मुझसे मिलने के लिए मेरी पत्नी जेल में आ रही थी ।
जब मेरी पत्नी भुवन ढुंगाना मुझसे मिलने के लिए जेल पहुँची तो वहां मैं नहीं था । उस समय मेरी पत्नी को जवाब मिला कि आपके पति जेल में नहीं हैं । उसके बाद परिवार में रोना–धोना शुरु हो गया । बाहर के लोगों के बीच भी हल्ला होने लगा । रसुवा ले जाने के पीछे कहीं हत्या की योजना तो नहीं थी ? उस समय ऐसा अनुमान भी किया जा रहा था । मेरे ही रूम में रहनेवाले मेरे गुरु श्री सूर्यबहादुर शाक्य ऐसी ही आशंका के साथ डर गए थे ।
लेकिन गजब का संयोग हुआ ! जिस दिन हम लोगों को रसुवा ले जाया जा रहा था, उसी दिन रास्ते (नुवाकोट) में हम लोगों को कुछ विदेशियों ने देख लिया था । बाद में पता चला कि वे लोग मानव अधिकारकर्मी भी थे । मेरे पास कुछ भिजिटिङ कार्ड भी था, जिसको रास्तें में गिराते हुए मैं चल रहा था । चाय पीते वक्त एक दुकान में  भी मैंने अपना कार्ड दिया । यह सभी काम मैंने उस वक्त हम लोगों को लेकर जानेवाले सुरक्षाकर्मी (सेना) की दृष्टि से छुपा कर ही किया था । उसी कार्ड के आधार में उन लोगों को पता चला कि हम लोग राजनीतिक बंदी हैं । वही विदेशी लोग काठमांडू आने के बाद मेरे परिवारिक सदस्यों के साथ मिलने के लिए पहुँच गए और कहा कि मुझे रसुवा ले जाया गया है । उसके बाद यह समाचार सञ्चार संस्था बीबीसी तक पहुँच गयी । बाद में सभी को पता चला कि हम लोग कहा हैं । मानव अधिकार संबंधी नियमानुसार राज्य के नियन्त्रण में रहे किसी भी व्यक्ति को अगर जेल में रखा जाता है या जेल से स्थानान्तरण किया जाता है तो परिवारिक सदस्य को सूचित किया जाता है । लेकिन हमारे मामले में ऐसा नहीं हुआ था । तत्कालीन परिस्थिति ऐसी थी, अगर हमारे ऊपर उन विदेशियों की नजर नहीं पड़ती तो परिणाम जो कुछ भी हो सकता था ।
मेरी सदाशयता
वि.सं. २०२६ साल की बात है । पार्टी के प्रति आस्थावान विद्यार्थियों को इकठ्ठा कर नेविसंघ गठन की तैयारी हो रही थी । लेकिन विश्वविद्यालय तक की मेरी पढाई खत्म हो चुकी थी । उस वक्त मैं केन्द्रीय कारागार में बन्दी जीवन जी रहा था । विद्यार्थी संगठन बनाते वक्त विद्यार्थी होना आवश्यक होता है । इसीलिए खुद को नेविसंघ अधिवेशन प्रतिनिधि दिखाने के लिए मैंने जेल में झूठा विवरण पेश किया था । मैंने कहा था कि मैं विश्वभाषा कैंपस का विद्यार्थी हूं । जेल के रिकार्ड फाइल में भी मेरा वही परिचय दर्ज था । मैं विश्वभाषा कैंपस का विद्यार्थी हूँ, इस बातपर तत्कालीन जेलर भी विश्वस्त थे । हमारे साथ जेल में रहनेवालों में से कुछ विदेशी नागरिक भी थे, जिसको मैं नहीं जानता । एक दिन एक विदेशी नागरिक के नाम की घर से चिठ्ठी आयी । जेल में जिसके भी नाम की चिठ्ठी आती थी, उसके अन्दर लिखे गए विषय को अध्ययन किए बिना बंदी को नहीं दी जाती थी । विदेशी के नाम से जो चिठ्ठी थी, उसमें लिखी गई भाषा जेलर को समझ में नहीं आयी । विश्वभाषा कैंपस के विद्यार्थी होने के नाते चिठ्ठी पढ़ने के लिए मुझे बुलाया गया ।
चिठ्ठी हाथ में ले लिया, लेकिन उस चिठ्ठी में लिखित भाषा मुझे भी समझ में नहीं आयी । उक्त चिठ्ठी किस भाषा में लिखी गई थी, मुझे आज भी पता नहीं है । लेकिन उस समय मुझे लगा कि जेलर के सामने मैं क्यों कमजोर पड़ जाऊ ! उसने भी मुझे नहीं पूछा था कि उक्त भाषा मुझे आती है या नहीं ? मुझे यह भी लगा था कि घर से आई चिठ्ठी तो बंदी तक पहुँचना ही चाहिए । इसीलिए मैंने अनुमान के आधार पर चिठ्ठी पढ़ दिया । चिठ्ठी पढ़ते वक्त मैंने कहा था– ‘घर में सभी ठीक है, मां भी स्वस्थ हैं, चिन्ता करने की कोई भी जरुरत नहीं है ।’ उसके बाद चिठ्ठी बन्दी के हाथ में पहुंच गयी । लेकिन विडम्बना ! चिठ्ठी में तो लिखा था कि उसकी मां मर गई है । चिठ्ठी पढ़कर वह रोने लगा, इस तरह मेरा झूठ पकड़ा गया ।

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हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में मेरा समर्थन
जिस वक्त मैं सभामुख था, उस समय सद् भावना पार्टी से गजेन्द्रनारायण सिंह जी भी सांसद् थे । सद्भावना पार्टी से ६ सांसद संसद् में प्रतिनिधित्व करते थे, जो हिन्दी भाषा में बोलते थे । संसद् के भीतर हिन्दी में बोलने के कारण बहुत लोगों ने सिंह जी की आलोचना की थी । संसद् में भी उनके विरुद्ध बोलनेवाले सांसद् लोग थे । मुझ पर भी आरोप लगाया जाता था कि सभामुख के अनुमति के कारण ही सिंह जी संसद् में हिन्दी बोल रहे हैं । सिर्फ हिन्दी को ही नहीं, एक बार मैंने अन्य भाषाभाषी वाले सांसदों को भी अपनी मातृभाषा में बोलने के लिए छूट दिया था । लेकिन बाद में मुझे पता चला कि हिन्दी भाषा के प्रति राजा वीरेन्द्र खुश नहीं है । जवाब में मैंने कहा– ‘मै इस को मानवअधिकार की दृष्टिकोण से देखता हूं । हिन्दी भाषा को मैं सम्पर्क भाषा मानता हूं और मेरे खयाल से जो सांसद् अपनी मतदाताओं से जिस भाषा में मत मांगते हैं और जिस भाषावाले क्षेत्र से निर्वाचित होकर आते हैं, वे लोग उसी भाषा में संसद् में अपनी अभिव्यक्ति देते हैं तो क्यों परहेज ? इसमें प्रतिबन्ध लगाना ठीक नहीं है ।’ उसके बाद मुझे सुनने में नहीं आया कि अब भी राजा असन्तुष्ट हैं ।
सिर्फ भाषा ही नहीं, तराई–मधेश के लिए पहचान की अन्य कई चीजें हैं, जिसका संरक्षण होना चाहिए । विगत की राज्य विभेदकारी थी । मूलतः शासन–सत्ता में पहाडी समुदाय के लोग थे, उसमें भी विशेषतः खस भाषा–भाषियों की बाहुल्यता दिखाई देती थी । जिसके चलते मधेशी और जनजाति समूह को लगा कि हम लोगों को अधिकार नहीं मिल रहा है । अब इस तरह का विभेद अन्त होना चाहिए । नेपाल सिर्फ एक ही जात, एक ही भाषा और संस्कृति का देश नहीं है । नेपाली भू–भाग के अन्दर जो भी भाषा और संस्कृतिवाले लोग रहते हैं, उसको स्वीकार करना चाहिए, संरक्षण करना चाहिए । तराई–मधेश की बातें हों अथवा हिमाल पहाड की, नेपाल के भीतर रहे अलग पहचान, संस्कृति और भाषा की बात करना विखण्डनवादी राजनीति करना नहीं है, न तो यह संकीर्ण विचार ही है, न ही जातीय खलल है । सभी जाति और भाषा–भाषी को समान अधिकार की प्रतिभूति राज्य की ओर से होना आवश्यक है ।
तराई–मधेश में आज जो भी समस्या दिखाई दे रही है, वह मानवअधिकार संबंधी समस्या है । सरकार का जवाबदेह ना होना, राज्य संयन्त्र में पिछडे हुए समुदायों का प्रतिनिधित्व ना होना, सामाजिक सुरक्षा की अनुभूति न मिलना ऐसे कई कारण है, जिसके चलते यहां समस्या दिखाई देती है । अगर संघीय राज्य की मूल्य–मान्यता के आधार में जनता को स्वशासन का अधिकार मिलता है तो आधे से अधिक समस्याओं का समाधान हो जाता है । इसी मान्यता अनुसार शान्तिपूर्ण सहमति की सदाशयता के साथ मैंने मधेश आन्दोलन का समर्थन किया । सत्याग्रहियों से वीरगंज सीमा स्थित पुल में पहुँचकर मिला और शान्तिपूर्ण राजनीति के लिए आग्रह भी किया । उस समय मैंने नाकाबन्दी का समर्थन नहीं किया था । लेकिन कई लोगों ने मुझे नाकाबन्दी के समर्थक के रूप में प्रचार किया । मुझे लगता है मेरे ऊपर इसतरह का आरोप लगानेवाले असली देशभक्त नहीं हैं, निहित स्वार्थ से प्रेरित पूर्वाग्राही तत्व हैं ।
इतना ही नहीं, आज हमारे देश में ‘ नागरिकता’ भी बहस का विषय बना हुआ है । नागरिकता योग्य नागरिकों का अधिकार है, बहस का विषय नहीं है । लेकिन सत्ता और वोट के लिए राजनीति करनेवाले लोग इसको बार–बार बहस में लाते हैं । वोट के लिए कुछ व्यक्ति सीमा पार से आए नये आगन्तुक को भी नागरिकता दिलाने की बात करते हैं । वही कुछ लोग वोट के लिए ही योग्य नागरिकों को भी नागरिकता से वंचित रखने की बात करते हैं । जिसके चलते हमारे देश में कई योग्य नागरिकों को नागरिकता नहीं मिल रही है । अब नागरिकता संबंधी विषय में बहस और विवाद करना ठीक नहीं है ।
नकारात्मक परिवेश में राजनीतिक परिवर्तन
आज देश में बहुत बड़ा राजनीतिक परिवर्तन आ चुका है । हमारी पीढ़ी के युवाओं ने आन्दोलन से सक्रिय राजतन्त्र को संवैधानिक राजतन्त्र में रूपान्तरण किया था । मूलतः उसके बाद आई नयी पीढ़ी के युवाओं के आन्दोलन से देश में गणतन्त्र स्थापना हुई है । लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी जनता सन्तुष्ट नहीं हैं । लोगों का कहना है कि इन सारे आन्दोलन से कुछ नेताओं के जीवन में तो परिवर्तन आया है, जनता का जीवन वही है, जो कल था । जनता की बहुत सारी आशा और अपेक्षा पूरी नहीं हो पा रही है । इसीलिए मुझे लगता है– जो भी परिवर्तन आया, वह सब नकारात्मक परिवेश में आया । इसीलिए कई लोग कहते हैं– देश में और भी एक परिवर्तन आवश्यक है, जिसके चलते आम–जनता के जीवन में भी परिवर्तन आ सके ।
अगर हम सब लोग जनता की सार्वभौमसत्ता को मानते हैं और संविधान के मर्म और भावना अनुसार चलते हैं तो अवश्य ही परिवर्तन संस्थागत हो जाता है, धीरे–धीरे जनता के जीवनस्तर में भी परिवर्तन आ जाता है । लेकिन हमारे यहां शुरु से ही ऐसा नहीं हो रहा है । वि.सं. २०१७ साल में राजा महेन्द्र ने जनता के अभिमत को अस्वीकार किया और निर्वाचित सरकार को अपदस्थ कर निरंकुश शासन व्यवस्था शुरु किया । उसके विरुद्ध लम्बा संघर्ष होने के बाद ही २०४६ साल में प्रजातन्त्र आया । लेकिन उसके ३–४ साल बाद ही माओवादी ने संविधान को अस्वीकार करते हुए हिंसात्मक राजनीति शुरु किया । नयी संसदीय व्यवस्था ठीक से काम भी शुरु नहीं कर पा रही थी, जल्दबाजी में उसी व्यवस्था के विरुद्ध हिंसात्मक आन्दोलन शुरु करना इसमें कहीं से भी बुद्धिमानी नहीं दिखाई देती । बाद में वि.सं. २०५९ साल में राजा ज्ञानेन्द्र ने संवैधानिक मर्म को अस्वीकार किया और सत्ता अपने हाथ में लिया । इसतरह की ही नकरात्मकता में नेपाल में राजनीतिक परिवर्तन होता आ रहा है । आज भी कुछ राजनीतिक  शक्ति और नेता ऐसे हैं, जिनके आचारण और चरित्र से पता चलता है कि वह खुद अपने को संविधान से शक्तिशाली मानते हैं । संविधान अस्वीकार करनेवाले माओवादी कम्युनिष्ट पार्टी हो या महत्वांकाक्षी राजा, दोनों यथास्थान में गलत थे । आज जो भी परिवर्तन हमारे सामने है, उसकी पृष्ठभूमि भी गलत ही है, जिसका स्वामित्व आम जनता नहीं ले पा रही है ।

कांग्रेस के बदले लोकतान्त्रिक विकल्प आवश्यक
आज जो भी सरकार है, वह जन निर्वाचित प्रतिनिधियों से निर्वाचित सरकार है । कम्युनिष्ट पृष्ठभूमि के नेता सत्ता का नेतृत्व कर रहे हैं । आज सत्ता में नेतृत्व करनेवाले कम्युनिष्ट वहीं है, जो कल राजतन्त्र के विरुद्ध प्रजातन्त्रवादी शक्तियों के साथ मिलकर संघर्ष में उतर आए थे । इसीलिए आज के परिवर्तन में उन लोगों का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । इतना होते हुए भी आज देश में लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था कायम रहेगी या नहीं ? इसकी ओर चिन्ता बढ़ने लगी है । प्रजातन्त्र के प्रति आस्थावान जनता में निराशा छा रही है । मुझे लगता है नेपाली कांग्रेस के कारण ही यह सब कमजोरी दिखाई दे रही है ।
संसदीय व्यवस्था को मुश्किल से स्वीकार करनेवाला कम्युनिष्ट पार्टी और संसदीय व्यवस्था के ही विरुद्ध हिंसात्मक आन्दोलन करनेवाले दूसरा कम्युनिष्ट पार्टी माओवादी आज एक हो गयी है । इसीलिए भी प्रजातन्त्रिक भविष्यको लेकर चिन्ता बढ़ने लगी है । अगर संसदीय व्यवस्था के प्रति निष्ठावान नेपाली कांग्रेस, खुद के प्रति विश्वस्त बनाती तो इसतरह कम्युनिष्टों की बाहुल्यता सम्भव नहीं थी । कांग्रेसी जनोें ने सोचा कि हम लोग प्रजातन्त्रवादी शक्ति हैं, हमारे बाद हमारा विकल्प हम ही हैं । यह हमारी गलत सोच थी । इस में नेपाली कांग्रेस चूक गया है, जिसने नेपाल में कम्युनिष्टों की राजनीति को मजबूत किया ।
इसीलिए राजनीतिक रूप में आज भी मेरी मुख्य चिन्ता लोकतन्त्र की रक्षा करना है । लोकतन्त्रवादियों का मनोबल किस तरह ऊपर उठाया जा सकता है, मैं इसी चिन्तन में हूँ । कम्युनिष्ट को लोकतान्त्रिक अभ्यास में आस्थापूर्वक प्रतिबद्ध बनाना और लोकतन्त्रवादियों का मनोबल उच्च रखना आज की प्रधान आवश्यकता है । इसके लिए राष्ट्रीय मेलमिलाप की आवश्यकता है । नेपाल के लिए आज तक सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक शक्ति नेपाली कांग्रेस ही है । अब उसको ही पहल करना चाहिए । अगर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं और खुद को सुधार करने में असफल है तो देश में दूसरी लोकतान्त्रिक शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी । क्योंकि लोकतन्त्र को मजबूत बनाना है तो विकल्प में लोकतान्त्रिक पार्टी ही आवश्यक होती है । दुर्भाग्य ! नेपाल में सत्ता के लिए कांग्रेस का विकल्प कम्युनिष्ट पार्टी बन रही है । इससे लोकतन्त्र सुरक्षित नहीं होगी ।
जनता का मन जीतने में असफल रहने के कारण कांग्रेस चुनाव में पराजित हो गई, यह कोई भी बड़ी बात नहीं है । लेकिन कांग्रेस के विकल्प में आने वाली दूसरी शक्ति कौन है ? यह मायने रखता है । कांग्रेस के विकल्प में अगर दूसरी कोई भी प्रजातान्त्रिक शक्ति चुनाव में विजयी हो जाती तो प्रजातन्त्र अधिक मजबूत बनता  । इसीलिए मैं विशेष जोर देकर कहता हूं– कांग्रेस में सुधार आना जरूरी है, नहीं तो नेपाल में कांग्रेस के विकल्प में कोई दूसरा वैकिल्पक पार्टी आना चाहिए । उसके लिए आज के ही कम्युनिष्ट पार्टी को प्रजातन्त्र के प्रति प्रतिवद्ध बनाया जा सकता है या नयां लोकतान्त्रिक पार्टी बनाना चाहिए ? अथवा नेपाली कांग्रेस को ही निर्वाचन से प्रथम पार्टी बनाया जा सकता है ? आजकल में इसी विषय पर चिन्तन करता रहता हूँ । शायद अब मेरा बाकी जीवन इसी चिन्तन को यथासम्भव व्यवहारिक रूप देने के लिए होगा ।
जब मैं सभामुख की जिम्मेवारी से मुक्त हो गया, उसके बाद कुछ शुभचिन्तकों ने नए वैकल्पिक पार्टी के निर्माण के लिए बहस शुरु की थी । उस वक्त उन लोगों ने नए वैकल्पिक पार्टी को नेतृत्व प्रदान करने के लिए भी आग्रह किया था । लेकिन मैंने अस्वीकार किया । मैंने कहा– अगर मुझे पार्टी में काम करना है तो मेरे लिए नेपाली कांग्रेस है ही । आज भी वह लोग कहते हैं– ‘उस समय आपने हम लोगों के प्रस्ताव को अस्वीकार किया । आज तो आप उम्र से बुढे भी हो गए हैं, तब भी आप को ही वैकल्पिक शक्ति निर्माण के लिए नेतृत्व लेना चाहिए ।’ मैं खुद के लिए भी प्रश्न कर रहा हूं– क्या अब यह सब मुझसे सम्भव है ? क्योंकि मैं पहले से ही संगठन में पीछे रहनेवाले व्यक्ति हूँ ।

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माओवादी और मेरा सम्बन्ध
मेरा पूरा जीवन प्रजातान्त्रिक आन्दोलन के लिए समर्पित रहा । सभामुख रहते वक्त तत्कालीन कम्युनिष्ट पार्टी नेकपा एमाले को प्रजातान्त्रिक अभ्यास में अभ्यस्त बनाने के लिए मैंने प्रयास किया । बाद में माओवादी आन्दोलन शुरु हो गया । माओवादी आन्दोलन को भी शान्तिपूर्ण अवतरण के लिए मैंने एक राजनीतिकर्मी तथा मानव अधिकारकर्मी के रूप में काम किया । तत्कालीन सरकार और माओवादी के  बीच सम्पन्न शान्ति वार्ता की पृष्ठभूमि तैयार करनेवालों में से मैं भी एक हूं । कई लोग तो कहते हैं कि उसमें सबसे प्रथम स्थान में आनेवाला व्यक्ति मैं ही हूं, ऐसा सुनकर मुझे खुशी होती है । हां, पद्मरत्न तुलाधर जी के साथ मिलकर वि.सं. २०५८ साल भाद्र महीना में हम लोगों ने माओवादी–सरकार के बीच प्रथम शान्ति वार्ता की पृष्ठभूमि तैयार की थी । उसके बाद औपचारिक रूप में हम लोग सहजकर्ता बन गए ।
मैंने कभी भी नहीं सोचा कि मैं राजनीति करुँगा या सरकार का नेतृत्व करुंगा । इसीलिए जब वि.सं. २०४६ साल में प्रजातन्त्र स्थापना हो गयी, तब पार्टी के प्रतिमोह कम होना शुरु हो चुका था । परिस्थितिवश प्रजातन्त्र को संस्थागत करने के लिए सभामुख बनना पड़ा । लेकिन जब बाद में माओवादी ने प्रजातन्त्र के विरुद्ध हथियार उठाया, सशस्त्र आन्दोलन की घोषणा की, तब मुझे लगा कि अब फिर प्रजातन्त्र खतरे में पड़ सकता है । उसके बाद मैंने पार्टी के साथ मेरा जो संबंध है, उसको प्राथमिकता नहीं दिया । माओवादी को शान्तिपूर्ण संसदीय व्यवस्था में कैसे लाया जा सकता है, उसी चिन्तन में लग गया । इसी बीच में मैंने मानव अधिकारवादी और नागरिक समाज में रहकर जो काम किया, उसी काम के आधार में मुझे ‘नागरिक अगुवा’ भी कहा गया । माओवादी द्वारा संचालित सशस्त्र आन्दोलन को शान्तिपूर्ण रूप में अवतरण कराने के लिए विशेष भूमिका निर्वाह करते वक्त मैंने कांग्रेस को नहीं छोड़ा था । कांग्रेस की ओर से मुझे निष्काशित भी नहीं किया गया । हां, मैंने अपनी पार्टी सदस्यता नवीकरण नहीं की ।
बहुत लोगों का कहना है कि माओवादी को शान्तिपूर्ण राजनीति में अवतरण करने के लिए वैचारिक बहस चलाने वालों में से मैं ही सबसे आगे हूँ । जो भी हो, अन्ततः अन्य पार्टियों को संविधानसभा स्वीकार कराकर माओवादी को भी शान्तिपूर्ण राजनीति में अवतरण कराने में हम लोग सफल हो गए । अगर मैं पार्टी के साथ ज्यादा आबद्ध होता तो यह सब सम्भव नहीं होता था । मैंने जो कुछ भी किया, हिंसा अन्त के लिए किया, शान्ति पुनस्र्थापना के लिए किया और लोकतन्त्र को संस्थागत करने के लिए किया । माओवादी द्वारा उठाए गए आर्थिक–सामाजिक रूपान्तरण संबंधी मुद्दा गलत नहीं था । इसीलिए वि.सं. २०५४ साल में रोल्पा पहँुच कर मैंने कहा– ‘अगर मेरा जन्म रोल्पा में होता तो मैं भी माओवादी बन जाता ।’ आगे यह भी कहा कि खाओवाद बढ़ जाता है तो माओवाद बढ़ जाएगा । लेकिन सच तो यह भी था कि आम नागरिकों के जीवन परिवर्तन की खातिर माओवादी जिसतरह हिंसा और आतंक की राह पर चल रहे थे, वह भी सही नहीं था । इसीलिए हम लोगों ने माओवादी को भी राजनीतिक मूलधार में आने के लिए आग्रह किया । इसमें हम लोग सफल भी हो गए ।

कभी भी नेतृत्व के लिए प्रयास नहीं किया
नेपाली कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के साथ रहकर मैंने काम किया । लेकिन पार्टी के भीतर औपचारिक रूप में मै संगठित होकर नहीं रह पाया । आज आकर मेरे शुभचिन्तक कहते हैं– ‘आप को पार्टी नहीं छोड़ना चाहिए था ।’ उन लोगों का कहना है कि मुझे पार्टी नेतृत्व के लिए अग्रसर होना चाहिए था । नेपाली कांग्रेस और देश की परिस्थिति को देखता हूँ तो मुझे लगता है कि उन लोगों के कथन में भी दम है । लेकिन मेरा स्वभाव पार्टी नेतृत्व के लिए लालायित नहीं था । अब तो चाहकर भी अग्रसर होना मुश्किल है । जब देश में राजनीतिक संकट बढ़ जाता था, उस वक्त मेरा नाम भी सम्भावित प्रधानमन्त्री के चर्चा में आ जाता था । लेकिन पार्टीगत पहल के लिए पार्टी के भीतर मेरे साथ कोई भी समूह नही था । समूह और संगठन ना होनेवाला व्यक्ति अगर प्रधानमन्त्री की चाहत रखता है तो उसके सम्भव होने की सम्भावना भी नहीं है । इसीलिए व्यक्तिगत रूप में मैंने कभी भी पहल नहीं किया । आज भी मुझे लोग नेपाली कांग्रेस से आबद्ध व्यक्ति के रूप में जानते है । लेकिन आज मैं अकेला ही हूँ, पार्टी में नहीं के बराबर हूँ । इसके प्रति ज्यादा शिकायत भी नहीं है ।

सन्तुष्ट भी हू“ असन्तुष्ट भी
आज के दिन राजनीति लाभकारी पद सिद्ध हो गया है । राजनीति का मतलब राज्य से कुछ लेना है, दोहन करना है, इसतरह समझनेवाले लोग राजनीति में बढ़ रहे है । लेकिन मैंने वि.सं. २०१७ साल के बाद परिवारिक और निजी जीवन को कम महत्व दिया, पूरा जीवन राजनीति में लगा दिया, लोकतन्त्र के लिए समर्पित रहा । लेकिन राजनीति से मैंने पद और अनुचित लाभ की चाहत नहीं की । मुझे लगता है– इस देश से मुझे क्या मिला है ? इस सवाल से नहीं मैंने इस देश को क्या दिया है ? इस दृष्टिकोण से मेरे जीवन को खंगालना चाहिए । इसीलिए मैं व्यक्तिगत रूप में सन्तुष्ट हूँ, खुश हूँ । सिर्फ अपने लिए नहीं, जीवन दूसरों के लिए भी होना चाहिए, अगर ऐसा हो सकता है तो शायद हम सभी सन्तुष्ट और खुशी हो सकते हैं । सच कहें तो जीवन में सुख और दुःख होता ही नहीं । आप अपने कर्तव्य पथ में रहते वक्त जो कुछ भी करते हैं, उसकी अनुभूति से ही दुःख और सुख संबंधी दृष्टिकोण तैयार हो जाता है । कर्तव्य पथ में रहते वक्त आप जितने भी दुःख में पड़ जाए, उस में आप को सुखानुभूति होती है । अगर कर्तव्य पथ नहीं हैं तो सुख में भी आप दुःख की अनुभूति करते हैं ।
इसीलिए व्यक्तिगत जीवन के प्रति सन्तुष्ट होकर भी मैं राजनीतिक रूप में असन्तुष्ट हूँ, दुखी हूँ । क्याेंकि राजनीति में लगनेवाले पुरानी पीढ़ी के लोगों से ही नयां लोकतान्त्रिक और सुरक्षित नेपाल नई पीढ़ी को हस्तान्तरण होना चाहिए था । देश में निर्माण के खातिर आधारभूत जग निर्माण का काम भी मेरी पीढ़ी से ही होना चाहिए । लेकिन यह सब नहीं हो पाया । व्यक्तिगत रूप में इसमें मेरी भी कमजोरी रही होगी । हो सकता है,  मैं अगर चाहता तो नेतृत्व लेने में सफल रहता । क्योंकि आज भी हम लोग लोकतन्त्र के लिए ही चिन्ता कर रहे हैं । लोकतन्त्र में ईमान के बिना समृद्धि सम्भव नहीं है । और अगर मेलमिलाप के बिना लोकतन्त्र का अभ्यास करते हैं, तो उससे समृद्धि नहीं आने वाली ।

प्रस्तुतिः लिलानाथ गौतम

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