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हिम्मत और जज्बा को सलाम

कहते हैं कि अगर मन में जज्बा हो तो दुनिया की कितनी ही कठिनाईयों का मुकाबला कर अपना अलग ही मुकाम बनाया जा सकता है। नेपाल में साहित्य के क्षेत्र में दिये जाने वाले सबसे बडे मदन पुरस्कार की घोषणा के साथ ही एक ऐसी साहित्याकर चर्चा और सर्र्खियों में आयी जिन्होंने शारीरिक विषमता होने के बावजूद कभी भी हिम्मत नहीं हारी।
झमक घिमिरे जो कि जन्मजात ही असाध्य मानसिक रोग से ग्रसित है, ना चल सकती है ना ही बोल सकती है हां सुन और समझ सकती है। अपने दोनों ही पैर में रहे सिर्फतीन ऊंगलियों के सहयोग से झमक ने कई महत्वपर्ूण्ा साहित की रचना कर डाली है। गत ४७ वषर्में यह पहली बार है जब किसी महिला को साहित्य के इस सबसे बडे सम्मान से नवाजा गया।
औपचारिक शिक्षा से भी वंचित झमक ने अब तक संकल्प’, ‘आफ्नै चिता’, ‘अग्निशिखा तिर’, ‘मान्छे भित्रका योद्धाहरू’, ‘सम्झनाका बाछिट्टाहरू’, ‘झमक घिमिरेका कविताहरू’, ‘जीवन कांडा कि फूल’, ‘अवसानपछिको आगमन’, ‘क्वांटी संग्रह’ जैसी अनेक पुस्तकों की रचना की है।  ऋभचभदचब उिबकिथ  नामक रोग से ग्रसित झमक की विश्व के १० प्रतिभाशाली साहित्यकारों में गिनती होती है।
हाथ पैर और शरीर से विकलांग झमक का जन्म नेपाल के धनकुटा जिले में हुआ था। जन्म के साथ ही उनके परिवारजनों ने मर्ूकट्टा कह कर संबोधित करते हुए कहा था कि इसका तो जीना ही बेकार है। दशहरा में टीका के दिन जब सभी बडे बुजर्ुग अपने बच्चे को लम्बी आयु का आशिर्वाद देते हैं ऐसे में झमक के स्वजन उसे जल्द ही मौत आने की दुहाई देते थे। कारण कि उसका कष्ट किसी से नहीं देखा जाता था। जब बचपन में झमक पढने की जिद करती थी तो उसे यह कह कर ताना दिया जाता था कि आखिर पढ लिख कर वो क्या करेगी।
अपनी ही पैर के ऊंगली से बहे खुन से पहली बार उसने क लिखा था। इस पर भी उसे बहुट डांट पडी थी। जब वह ५ वर्षकी हर्ुइ तो उसे खाना खिलाने वाली दाई का देहांत हो गया तो उसने अपने पैर में रही ऊंगली से ही भात खाना शुरू किया था। भूखा, प्यासा, नंगा उसने अपने जीवन के दश वर्षऐसे ही काटे। घर वालों ने फटे कपडे दिये जिसमें उसके शरीर का पूरा अंग भी नहीं ढक पाता था तो उसे अपने हमउम्र वालों की फब्तियां सुनने को मिलती थी।
उसे किसी ने पढना नहीं सिखाया बल्कि जब उसकी बहन पढती थी तो उसे ही सुन कर ज्ञान हासिल किया करती थी। लेकिन इसमें भी उसे काफी डांट सुनने को मिली। जब उसकी बहन पर्ढाई किया करती थी तो उसे डिर्स्र्टब हुआ कह कर वहां से चले जाने को कहा जाता था। अपने अन्दर की ऐसी ही अनगिनत पीडा को वो अपने शब्दों में कुछ इस कदर बयां कर लिखती है, ‘मेरा भी मन था कि जिस तरह मेरे पापा मेरी छोटी बहन को हाथ पकड कर लिखना सिखाते थे वैसे ही मुझे भी सिखाये लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ मेरे अन्दर की इच्छा ऐसे ही रह गयी।’
‘मेरे अन्दर भूख थी लेकिन भूख कहने के लिए मेरे पास जबान नहीं था प्यास लगने पर सिर्फसुराही की तरफ इशारा कर देती थी। मैंने जमीन भी बहुत कुरेदी। ओस की बूंदों से लिखने का प्रयास किया, अपनी ऊंगली के चमडे को अपने ही पैरों के नाखुन से काटा, खुन भी बहुत बहा। आदमी ओस की बूंदों को आंसू कहते हैं मैने  उसी आंसू से अक्षर लिखकर जिन्दगी में नयां रंग भरा है।
करीब २८ वर्षकी उम्र में ही अपनी शारीरिक कमजोरी को मात देते हुए झमक ने जो कर दिखाया है वो अच्छे अच्छे के लिए नामुमकिन है। अपने पैरों की सिर्फतीन ऊंगलियों से खाना, नहाना धोना और जिंदगी के सभी काम करने के साथ साथ साहित्य की भी रचना करती है। उनके पुस्तक को पढने के बाद लगता है कि कोई ना कोई चमत्कारिक शक्ति है जो उनके अन्दर है। वरना उनकी किताब पढकर कोई भी नहीं कह सकता है कि वो एक विकलांग है जो ना बोल सकती है ना चल सकती है ना उठ सकती है ना बैठ सकती है। झमक के संर्घष्ा, उनकी लगन, उनके जज्बे, और कुछ कर गुजरने की क्षमता को हमें सलाम करना ही होगा।

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