Thu. Apr 18th, 2024
himalini-sahitya

रुक नहीं तू चलता चल नदी की तरह बहता चल… : कविराज

1. तुम उस किताब की तरह हो
तुम उस किताब की तरह हो
जिसे मैं भूलना नहीं चाहता….,
जो हर वक़्त मुझे आगे बढ़ने के लिए
प्रेरित करती है….,
जो अकेले में देती है अक़्सर साथ मेरा…,
जब छुड़ा लेते हैं संगी, साथी हाथ मेरा
तुम उस किताब की तरह हो
जो टूट जाने पर मुझे
देती है साहस, हिम्मत और…
जो भी एक हारे हुए इंसान को चाहिए
फिर से खड़ा होने के लिए…,
फिर से उसी जोश में बरकरार रहने के लिए,
फिर से उसी जज़्बे के साथ टिके रहने के लिए,
फिर से हुंकार भरने के लिए ।
जिसे पढ़कर मैं हारी हुई बाजी को पलट,
जीत में तब्दील कर देता हूं
अब मैं तुमसे पूछता हूं
हां, हां तुम्हीं से
क्या तुम वो किताब बनकर
मेरी जीवन में सदा के लिए
मेरी हमसफ़र बनकर रहोगी
जवाब तुम्हारा जो भी हो,
पर मैं सुनना जरूर चाहूंगा,
जवाब हां में होगी तो मैं
आह्लादित हो जाऊंगा ,
और ना होगी तो
मैं चाहता हूं कि
तुम बनी रहना
बस उसी किताब की तरह
जिसे मैं भूलना नहीं चाहता
उम्मीद है तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगी
जिससे कि मैं तुम्हें भूलने की कोशिश करूं
और अगर ऐसा होता भी है तो
मैं तुम्हें भूलने की कोशिश करूंगा
और तुम भुलाए ना मुझसे भुला पाओगी,
तुम्हारी इस अदा से तो मैं,
अच्छी तरह वाकिफ हूं।
2. रुक नहीं तू चलता चल
रुक नहीं तू चलता चल
नदी की तरह बहता चल
बुराइयां आएगी बहुत
लंबी रास्ते मे तेरे
समाहित कर
खुद को परिष्कृत कर
अनवरत, धुन में राम के
तू रमता चल।
रुक नहीं तू चलता चल
नदी की तरह बहता चल।
थमे हुए को भी रगड़ता चल
थामे का हाथ पकड़
चमक और चमकाता चल
ज्यादा प्यार दुलार ठीक नहीं
डाँट-डपट फिर धैर्य से
उसे समझाता चल।
रुक नहीं तू चलता चल
नदी की तरह बहता चल।
ग़मों की अँधियां चलेगी बहुत
मुसीबते आकर टालेगी बहुत
घबरा नहीं तू, मत पीछे चल
अडिग अटल विश्वास से
कदम-कदम बढ़ाता चल
हंसता मुस्कुराता चल।
रुक नहीं तू चलता चल
नदी की तरह बहता चल…।
3. फटी जेब
*फटी जेब*
जीवन की आपा- धापी में
जीने के लिए नहीं है समय
ना मिलती है श्वास सुकून की
जोड़ तोड़ गुना भाग कर
कि आज से बेहतर होगी कल
की आस जगती जाती है
प्रतिदिन इसी तरह कटती जाती है
सोचता हूं कुछ करने की
करना कुछ और होता है
परिस्थितियां कुछ और करा जाती है
प्रतिदिन बेवजह मुझे डरा जाती है
सौ की मेहनत करता हूं
चालीस की मजदूरी पाता हूं
पैंतीस रोजमर्रा खर्च हो जाती है
पांच रुपया जो बचाने की सोचता हूं
पर बीस रुपए की उधारी हो जाती है
इस तरह मेरी फटी हुई जेब
फटी की फटी रह जाती है।
संतोष कुमार वर्मा 
उपनाम : कविराज
परिचय : नाम-संतोष कुमार वर्मा
उपनाम : कविराज



About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: