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आपदा की इस घड़ी में, सद्भाव होना चाहिए, धैर्य करुणा शांति का, प्रादुर्भाव होना चाहिए : स्मृति श्रीवास्तव

वो सुबह कभी तो आयेगी : स्मृति श्रीवास्तव

देखती हूँ खोल के,



मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

दूर तक फैली हुई,

थी डर की सिसकियाँ।

देखती हूँ खोल के,

मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

थी सड़क सन्नाटों वाली,

आसमां बदरंग था,

मन भर बेचैनियों से,

शिथिल पड़ा हर अंग था,

गिर रही थी शाखों से,

सूखी हुई कुछ पत्तियाँ।

देखती हूँ खोल के,

मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

 

अन्न का दाना न होगा,

पेटभर खाना न होगा,

भूख से तड़पती देखी,

मुफ़लिसों की बस्तियाँ।

देखती हूँ खोल के,

मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

 

आपदा की इस घड़ी में,

सद्भाव होना चाहिए,

धैर्य करुणा शांति का,

प्रादुर्भाव होना चाहिए।

 

फिर भी देखो दिल बटें है,

बढ़रही रुसवाईयाँ।

देखती हूँ खोल के,

मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

 

उम्मीदों की धूप देखी,

जो आ रही थी आस्ते,

आरोग्य की बहती हवाएँ,

हर गली हर रास्ते,

जीतेगी इंसानियत ही,

हारेंगीं दुश्वारियाँ।

देखती हूँ खोल के,

मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

देखती हूँ खोल के,

मैं जब घरों की खिड़कियाँ।

स्मृतिश्रीवास्तव
शि़क्षिका,
डी.ए.वीविद्यालय, ललितपूर

 



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