मां के सहनशील,निष्काम भाव ही सुंदर सृष्टि चलाते हैं : सुचित्रा झा
नारी श्रेष्ठ
तू समान नहीं पर है श्रेष्ठ ,
निष्काम भाव का नहीं लेना श्रेय ।
जन्म से बचपन तक जीवन एक समान ,

होश आने के साथ होने लगी असमान ।
घर का काम बिटिया निपटाए,
बाहर की दुनिया बेटा जाए ।
चुल्हा चक्की लड़की के हाथ,
मोटर, कार लडके के साथ ।
जन्मदाता ने ही किया कामों का बंटवारा,
दोनों को अलग अलग जीवन डगर पर संवारा ।
अब कैसे हो नारी एकसमान,
जब जन्मभूमि से हो गयी असमान।
पौढ़ थी पर शादी में नहीं लिया विचार,
शादी में पति अकेले करते रहे मंत्रोच्चार।
घर की सफलता का नर होते रहे हकदार ,
घर की असफलता की नारी होती रही जिम्मेवार।
मां की निर्मल ममता को भी न छोड़ा ,
कह दिया तेरे प्यार ने बच्चों को बिगाड़ा ।
बड़े होकर बच्चों ने न छोडी कमी ,
बात बात पर निकालते मां की कमी।
सब सहन करती देखकर अपना परिवार,
व्याकुल मन को शांत करता सुख संसार।
खिलकर उठती कांटों के बीच जैसे गुलाब।
जीवन वृद्ध और लाचार हुआ,
सहन शक्ति असहाय हुआ ।
सोचा व्यथा किसे करूं समर्पण,
तभी हुआ धरती मां के दर्शन ।
धरती मां के सुने दो शब्द,
जिसे सुनकर हो गई निःशब्द।
नारी तू बच्चों की हो मां,
मैं तो हूं संसार की मां,
तू है परिवार की रक्षिणि,
मैं संसार की यक्षिणी।
मल मूत्र सहन कर धरती चलती,
सहनशील सद्भाव परिवार चलाती।
जब सहनशीलता असहनीय हो जाती ,
प्रलय से विध्वंस संसार होता ,
झगड़ा से परिवार टूट जाता।
जीवन जीने का मूल्य पीछे छूट जाता
मां की निर्मल ममता ही संसार को चलाते हैं।
मां के सहनशील,निष्काम भाव ही सुंदर सृष्टि चलाते हैं।
हे मां हे जननी तू समान नहीं श्रेष्ठ है।