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परिचय दास

बुद्ध ने कहा था— संयोगोत्पन्न पदार्थ का क्षय अवश्यम्भावी है

 




बुद्ध का अर्थ : जो सम्बुद्ध हो, जिसे सम्बोधि प्राप्त हो. हमारे समय में सम्यक दृष्टि का अभाव होता जा रहा है . संतुलन की कमी. यह कमी सब जगह परिलक्षित होती है : चित्त में , विचार में, जीवन में, देशीयता में, पर्यावरण आदि में. इसी लिए बुद्ध की दृष्टि चाहिए , वैसा ही मन. सम्पूर्ण विश्व में बढ़ती हिंसा के बीच बुद्ध की आवश्यकता पहले से अधिक है . उन देशों के लिए तो और भी जरूरी , जहां बुद्ध किसी न किसी रूप में पहले से विद्यमान हैं. जैसे एशियाई देश : नेपाल, भारत , चीन, कम्बोडिया ,जापान , लाओस, भूटान आदि.
बुद्ध एक ऐसा विचार–स्तम्भ हैं, जो एशिया को “एशिया’’ बनाते हैं . जिनकी वजह से एशिया की गुरुता बढ़ती है. अकेले बुद्ध एशिया को जोड सकते हैं या विश्व को गूंथ सकते हैं अथवा गांधी. बुद्ध को केवल धार्मिक व्यक्ति के रूप में देखना एकांगी दृष्टि है . वे सांस्कृतिक आभा हैं , जिससे यह धरती आलोकित होती है.
बुद्ध अतिवादिता से परे थे. हमारा सामान्य भी ऐसा ही है. वहां अतिवादिता की जगह नहीं . इसीलिए मध्य मार्ग एक आवश्यकता है. वीणा के तार इतने कसे नहीं जाने चाहिए की टूट जाएँ या इतने ढीले न हों कि ध्वनि ही न आये. वास्तविक जीवन में भी बहुत कड़ाई हमें तोड़ देती है तथा बहुत ढिलाई कर्मच्युत कर देती है.
कई बार यशोधरा के दुःख से हम दुखी होते हैं . सिद्धार्थ को कोई रास्ता अलग किस्म का निकालना चाहिए था.
शायद वह मार्ग अधिक सिद्ध अर्थ होता ! परन्तु जो हुआ , वह एक इतिहास है और इतिहास बदला नहीं जा सकता. हमारे स्वप्न , स्मृतियाँ एक अलग इतिहास के लिए संयोजित करते हैं परन्तु यथार्थ का पक्ष इतिहास को भाता है. मेरा मानना है कि यथार्थ का कोई एक रूप नहीं होता और स्वप्नहीन यथार्थ का कोई अर्थ नहीं. यशोधरा कि कसक प्रेम की कसक है , सम्बन्ध की कसक है , स्वप्न की कसक है. दूसरी और सिद्धार्थ मृत्यु से पार जाने को समझना चाहते हैं. क्या मृत्यु मनुष्य का अंत है ? सिद्धार्थ जानना चाहते हैं. यशोधरा आकाश में आदमी के दुःख दर्द का अंतहीन महाकाव्य रच रही हैं, सिद्धार्थ भी बिलकुल वही , अलग तरीके से.
सिद्धार्थ की शीतल स्फटिक तरंग — उच्छ्वास सारनाथ में अगणित तरीके से प्रकट हो रही है . वृक्ष की छाया में रमने वाला व्यक्ति स्वयं वृक्ष बन जाता है. पावों की सांकल को उतार फेंकना चाहते हैं— सिद्धार्थ. व्यवस्था, वर्ण, लिंग, धर्म : सबकी सांकल. एक विद्रोही मन. सम्यक चित्त. ऐसा स्वप्नशील व्यक्तित्व, जिसमें नए दिनों के , नए समाज के , नए जीवन के रंग हैं. जहां अत्याचार नहीं, विभेद नहीं , विसंगति नहीं , शोषण नहीं ! समाज व व्यक्ति का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध स् स्नेहपूर्ण.
सिद्धार्थ की सम्बोधि में आकाश का रंग सिंदूरी हो गया. उनके अस्फुट उच्चारण से चिडि़याँ चहक उठीं. रेशमी हवा भोर ही भोर में सिहर उठी. जैसे बुद्ध के रूप में संसार का पुनर्जन्म हुआ . महाकरुणामय ! मदमत्त अभियान में निकले हुए संसार के जलहीन, प्रकाशहीन,करुणाहीन, निर्जीव समाजों के लिए एक सम्पूर्ण मनुष्य ! सजीव समाधि में महानिद्रित ! महाजागृत !! पारम्परिक भारतीय समाज की श्रेणीबद्धता से मेघाच्छन्न क्षितिज से साफ होता आकाश . भारतीय समाजों की ऊँच–नीच यंत्रणाओं के घने अँधेरे की परिधि से अलग अभिकेंद्रक बनाते सिद्धार्थ बुद्ध बने. ललित विस्तर सूत्र, बुद्ध चरित काव्य ,लंकावतार सूत्र, अवदान कल्पलता, महावंश महानिर्वाण सूत्र , महावग्ग , जातक, कोपान भि–चि–चि , शाकजित सुरोकु, मललंगर वत्तु , गच्छका रोल्प आदि से बुद्ध के बारे में पता चलता है. प्रमुख रचनाकारों : अमर सिंह , राम चंद्र , विदेह, क्षेमेन्द्र , अश्वघोष आदि ने उन पर काव्य–प्रकाश डाला है.
यदि कोई मनुष्य आग जलाने की इच्छा से भीगी लकड़ी को पानी में डुबो रखे और फिर उसी लकड़ी को भीगी अरणी से रगड़े तो वह उससे कभी आग नहीं निकाल सकता . उसी प्रकार जिसका चित्त रागादि से अभिभूत है, वह कदापि ज्ञान–ज्योति–लाभ नहीं कर सकता. यही उपमा बोधिसत्व के मन में पहले-पहल उदित हुई. बाद में उन्होंने सोचा कि जो भीगी लकड़ी को जमीन पर रख कर अरणी से उसे रगड़ता है , वह भी जिस प्रकार अग्नि-उत्पादन करने में समर्थ नहीं होता , उसी प्रकार जिसका ह्रदय रागादि द्वारा अभिषिक्त है, उसे भी ज्ञान–ज्योति नहीं मिलती. यह दूसरी उपमा हुई. इसके बाद उनके मन में यह उत्पन्न हुआ कि जो सूखी लकड़ी को जमीन पर रख कर सूखी अरणी से रगड़ता है , वह उससे अनायास आग जला सकता है : इसी तरह जिसके चित्त से रागादि बिलकुल चला गया है , वही सिर्फ ज्ञानाग्नि लाभ करने में समर्थ होता है . यह तीसरी उपमा कहलाई. वे पहले सुवितर्क , दुसरे सुवितर्क , तीसरे निष्पीतिक और चौथे अदुःखादुःख ध्यान में विहार करने लगे.
बुद्ध ने कहा था— संयोगोत्पन्न पदार्थ का क्षय अवश्यम्भावी है.
आकाश असीम है , ज्ञान अनंत स संसार अकिंचन , संज्ञा और असंज्ञा — दोनों ही अलीक हैं : इस प्रकार सोचते हुए ज्ञाता और ज्ञेय — दोनों का ध्वंस होने से बुद्ध ने परिनिर्वाण लाभ किया.
एक बार सिद्धार्थ ने छंदक से कहा था — मैंने रूप , रस, गंध, स्पर्श और शब्द इत्यादि अनेक प्रकार की काम्य वस्तु का इस लोक तथा देवलोक में अनंत कल्प तक भोग किया है किन्तु मुझे किसी से भी तृप्ति न मिली.
आज पूरे विश्व के आकाश में अविश्वास के तैरते मेघ , सागर से उठ आती व्याकुल हवा का हाहाकार — अन्धकार में चारोँ ओर इतिहास की फुसफुसाहट भरी बातें— अनुगूँजें. सिद्धार्थ यानी बुद्ध प्राणवंत व कविता की लहर . भारतीय समाजों में जाति व वर्गों की दीवारों के विद्रोही भेदक . बुद्ध यानी रंगों का समुज्ज्वल समारोह . प्राणियों के मीत. अहिंसा के गीत



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