*”प्रेम”… एक निर्मोही प्रेम,सीता का प्रेम… राधा का प्रेम…मीरा का प्रेम…यशोधरा का प्रेम…”*”नव्या”
रीमा मिश्रा”नव्या”
*”प्रेम”…सीमाओं से परे भी प्रेम ही होता है एक निर्मोही प्रेम,सीता का प्रेम… राधा का प्रेम…मीरा का प्रेम…यशोधरा का प्रेम…”*
प्रेम मात्र एक शब्द नही है इसमे पूरा संसार समाया है और प्रेम जीवन का आवश्यक अंग है | बिना प्रेम के जीवन निरस और बोझिल है, किंतु यँहा यह समझना अत्ति आवश्यक है कि प्रेम है क्या भला……
एक स्त्री और पुरुष के मध्य होने वाला ही सिर्फ प्रेम नही होता ! प्रेम के विभिन्न स्वरुप है माँ बेटे का पिता पुत्री का भाई बहन का किसी जीव के प्रति किसी को नेचर से प्रेम तो किसी को साहित्य से ! कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि प्रेम की व्याख्या असंभव है ! प्रेम मे आपको जताने या बताने की आवश्यकता नही होती वह सिर्फ अनुभूत किया जा सकता है !
लेकिन आज के संदर्भ मे कहूँ तो प्रेम मात्र दिखावा बन कर रह गया है , प्रेम मे आप किसी से किसी चीज की कोई अभिलाषा नही करते लेकिन आजकल आपका किसी के प्रति प्रेम है तो आपको उसको बार बार बोलकर बताना पड़ेगा ! उसके लिए वह सब भी करना पड़ेगा जो आप नही करना चाहते तो प्रेम है, लेकिन मेरा निजी विचार यह है कि सच्चा प्रेम दर्शाने की जरुरत नही होती वह अपने आप आपको अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है! जबकि दिखावटी प्रेम झणिक होता है………
माता का प्रेम निस्वार्थ होता है हम भी उनसे सच्चा प्रेम करते हैं ! किंतु जताते नही हैं क्योंकि हम जानते हैं कि वह है उसको बोलने या दिखाने की आवश्यकता नही है ! वह एक ऐसी अदृश्य डोर है जिससे हम बंधे हुए होते है, किंतु इसके बिल्कुल उलट जब हमारा दिखावटी प्रेम होता है तो हमे हर पल झूठ बोलना पड़ता है! हम जानते हैं कि नही है प्रेम लेकिन फिर भी दिखाना पड़ता है , क्योंकि हम दिखावे का जीवन जी रहे हैं
हमे पता है कि नही करेंगे तो वह नाराज हो जाएगा! लेकिन सच्चा प्रेम होता है वहाँ हम निश्चिंत होते हैं क्योंकि हम एक दूसरे के मन के भावों को बीना बोले ही समझ लेते हैं…….
एक तरफ हम बोलते हैं कि बिना प्रेम के जीवन अधूरा है किंतु आज के समय मे अधिकतम प्रेम विवाह असफल होते नजर आते हैं , उनका कारण क्या है ? जब प्रेम है तभी तो प्रेम विवाह किया होगा ! किंतु उनका नतीजा अलगाव के रुप मे सामने आता है मेरे किसी बेहद करीबी ने मेरी इस शंका का बड़ी समझदारी से समाधान किया उन्होंने बताया कि जिस भी रिश्ते मे झूठ होगा वह अधिक दिन तक नही चल सकता ! अगर आपका रिश्ता सत्य पर आधारित है तो वह हमेशा आपके साथ रहेगा ! होता यह है कि शादी से पहले बड़े बड़े सपने दिखाए जाते हैं आदमी के पास कुछ भी न हो फिर भी वह बढ़ा चढ़ाकर बोलता है ! किंतु विवाह के बाद जब धीरे धीरे सच सामने आता है, तो परिस्थितियाँ बदल जाती है और आपसी कलह शुरु हो जाती जो अलगाव का कारण बनती है !
कहने तात्पर्य सिर्फ इतना है कि निस्वार्थ भाव से सच्चा प्रेम करे अगर जीवन को खूबसूरत बनाना है तो ! सीधा सरल फंडा है जैसा दोगे वैसा मिलेगा, इसलिए हर रिश्ते मे सच्चे रहे और प्रेम रखें तो प्रेम ही मिलेगा वो भी बिना मांगे…।
**आख़िर प्रेम क्या है! क्यूँ कठिन है इसे समझना और उससे भी कठिन इसे निभाना**
जितना आप प्रेम को सुलझाने की कोशिश करते हैं, उतना ही इसकी जटिलता बढ़ती महसूस होती है। प्रेम में समान्य कुछ नहीं होता और जो होता है वो आपकी समझ से परे होता है। ख़ुद को संयमित रखना, प्रियतम की भावना न आहत हो इसका ख़्याल रखना, मान-मर्यादा का सम्मान करना और न जाने क्या-क्या।
वो जो फ़िल्मों में दिखाते हैं या किताबों में लिख गये हैं सच कह रही हूँ, प्रेम वैसा कुछ भी नहीं है। जो हक़ीक़त में प्रेम है, उसमें हज़ारों उलझनें, दुनियादारी सब समाहित है। आपकी कल्पना का प्रेम आपको नहीं मिल सकता क्यूँकि वो सिर्फ़ आपने अपने मन में सोचा है। ज़रूरी नहीं कि आप जिससे प्यार करे वो आपकी भावनाओं को अक्षरस: वैसे ही समझ ले, जो सोच कर आप उन्हें बतायें।
प्रेम अत्यंत जटिल है सोच-समझ से परे।इसकी सारी थेयोरि अपने आप में ही कॉन्ट्राडिक्ट्री है। हमें ये समझाया जाया जाता है, प्रेम में स्वार्थ नहीं होता, प्रेम सिर्फ़ समर्पण है मगर सबसे ज़्यादा स्वार्थ प्रेम में ही है और जब आप ख़ुद को किसी को समर्पित कर देते हैं, तो आपकी अपेक्षाएँ भी होती हैं और होना स्वाभाविक है। इसीलिए सब उलझा हुआ है प्रेम में!
प्रेम होने को तो यूँ हो जाता है मगर जब हो जाता सारी आफ़त उसके बाद आती है और हर बार आप उस आफ़त से दूर रहने की क़सम खाते हैं लेकिन रोक कहाँ पाते हैं ख़ुद को। हर बार की तरह इस बार भी वही उम्मीद, वही सपने लिए डूबने लगते हैं प्रेम में, जीने की कोशिश करने लगते हैं और जो नहीं जी पाते तो सब सड़ने लगता है, इस बार वाला भी और पहले वाला भी।
मुक्ति नहीं है प्रेम में…।
आपको क्या लगता है कि यूं अचानक ,उनकी याद आ जाना !दिल का उदास हो जाना !बेवजह आँख भर आना !भीड़ में तनहा हो जाना !फूलों से नज़र चुराना बिन बात मुस्कुराना !रात भर नींद न आना !ख्वाब में आना-जाना !ये महज संयोग है? जी नहीं, ये संयोग नहीं, ये एक प्रयोग है !एक ऐसा प्रयोग जो यदि सफल हुआ तो प्रेम,
और खुदा न खास्ता,
असफल हुआ,
तो भी , प्रेम ही है…!
“ये उपवास रखना फिर साँझ को दीया लगा कर पूजा करना। बदले में भगवान जी से उनको माँगना।”
गुड्नेस!! सो नॉट मी!!
और फिर आपको एक दिन प्रेम हो जाता है। जिन चीज़ों के लिए आप दूसरों का मज़ाक़ बनाते थे, ये प्रेम उनके मायने आपको समझाने लगता है। आपकी मान्यताओं को हौले-हौले बदलने लगता है।
आप भी किसी के लिए फ़ास्ट रखने लग जाते हो। उनकी ख़ुशी का सोच कर ही भूख-प्यास कम-कम लगने लगती है। उनका साथ रहे और जन्म-जन्म तक रहे इसलिए आप अम्मा की कही हर बात को मानने लग जाते हैं।
बहाने से अम्मा से पूछते हैं ये जन्माष्टमी वाली पूजा कैसे होगी? और अम्मा का रीऐक्शन आता है, “तू पापी तुझे पूजा, नेत-धर्म से क्या लेना-देना।” अम्मा का ये रीऐक्शन आना लाज़मी है तब जब आप कभी पूजा नहीं करते हो। अव्वल दर्जे के नास्तिक हो। वैसे दो-चार लाइन का और टेलर दे कर अम्मा बता भी देती है कि भोग कैसे लगेगा, क्या-क्या बनाना है।
देखिए न कैसे नास्तिक थोड़ा सा आस्तिक हुआ जाता है प्रेम में। वैसे भी श्री कृष्ण से बढ़ कर शायद ही किसी ने प्रेम किया हो। प्रेम को समझा हो…।
*आखिर माताएं राधा और मीरा क्यों नहीं चाहती..? *
एक विचार प्रस्तुत किया गया कि “हर माँ चाहती है कि उनका बेटा कृष्ण तो बने मगर कोई माँ यह नहीं चाहती कि उनकी बेटी राधा बने”। यह कटु सत्य है और मैं इससे पूर्णतः सहमत हूँ। लेकिन यह विचार मात्र है विमर्श उससे आगे है। क्या राधा की माँ चाहती थी कि राधा कृष्ण की प्रेमिका बने? नहीं। क्या अन्य गोपियां जो कृष्ण के प्रेम में दीवानी थी जिनमें से अधिकांश विवाहित और उम्र में उनसे बड़ी थी उनके परिवार और पति में से किसी की ऐसी इच्छा थी की वे गोपियां कृष्ण से प्रेम करे? नहीं। तो क्या यह विशुद्ध व्यभिचार था? या प्रेम था ? राधा और गोपियां तो फिर भी खैर है उस पागल मीरा को क्या सनक चढ़ी कि कृष्ण के हज़ारों हज़ारो साल बाद पैदा होने के बावजूद उनसे ऐसा प्रेम कर बैठी कि उनके प्रेम में घर परिवार पति राजभवन का सुख त्याग कर वृन्दावन के मंदिरों में घुंघरू बांध कर नाचने लगी एक राजसी कन्या?क्या उनका परिवार ऐसा चाहता था? नहीं। फिर क्यों राधा, गोपियां और मीरा हुई? जवाब जानने के लिए प्रेम को जानना नहीं समझना होगा उसे महसूस करना होगा। प्रेम मुक्ति है सामाजिक वर्जनाओं से मुक्ति, लोकलाज से मुक्ति। प्रेम विद्रोह है सामाजिक रूढ़ियों से बंधनों से विद्रोह। प्रेम व्यक्ति के हृदय को स्वतंत्र करता है उसे तमाम बंधनो से मुक्त करता है। जिसे प्रेम में होकर भी सामाजिक वर्जनाओं का ध्यान है स्वयं के कुशलक्षेम का ध्यान है वह प्रेम में नहीं है केवल प्रेम होने के भ्रम में है। क्योंकि प्रेम एकनिष्ठता है “जब मैं था तो हरि नहीं, जब हरि है तो मैं नहीं’ की स्थिति प्रेम है, एकात्मता प्रेम है। कृष्ण का राधा हो जाना राधा का कृष्ण हो जाना प्रेम है। कृष्ण के जाने के बाद राधा का कृष्ण बन भटकना प्रेम है क्योंकि कृष्ण से राधा का विलगाव संभव ही नहीं। प्रेम सामाजिक मर्यादा की रक्षा नहीं उसका अतिक्रमण है। प्रेम सही गलत फायदा नुकसान नहीं समझता इसीलिए वह प्रेम है। जिसमें लाभ हानि का विचार किया जाए वह व्यापार है प्रेम नहीं। क्या मीरा अपने एकतरफा प्रेम की परिणति नहीं जानती थी? जानती थी फिर क्यों ? क्योंकि प्रेम सोच समझकर नहीं किया जाता, प्रेम लेनदेन नहीं है कि आप बदले में प्रेम देंगे तब ही प्रेम किया जाएगा, जो नि:शर्त हो निःस्वार्थ हो वही प्रेम है। हाँ ये सच है कि माताएं राधा नहीं चाहती मगर ये भी सच है कि जो राधा कृष्ण के प्रेम में सीमाओं को लांघ लेती है तमाम विरोधों के बावजूद वह ‘आराध्या’ ‘देवी’ की तरह एक दिन पूजी जाती है। कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है। जो मीरा कृष्ण के प्रेम में सामाजिक आलोचना रूपी विष का प्याला पी जाती है एकदिन उसी के भजन गा कर भक्त कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करते है। क्या यह राधा और मीरा की जीत नहीं है? क्या उन्हें व्यभिचारी या विद्रोही कह कर आप कटघरे में खड़ा कर सकते है? कुछ भी मुफ़्त में नहीं मिलता सबके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। नीलकंठ कहलाने के लिए शिव को भी विषपान करना पड़ा था, मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाने के लिए राम को अपनी प्राणों से प्रिय सीता को निर्वासित करना पड़ा था वह भी तब जब वह गर्भवती थी। फिर प्रेम कैसे मुफ़्त में मिल सकता है? रूखमणी पत्नी होकर भी क्यों नहीं पूजी जाती है क्योंकि उसने वह अपमान वह वंचना नहीं झेली उसने उस प्रबल विरोध का सामना नहीं किया जिसका सामना राधा ने किया मीरा ने किया। माताएं राधा और मीरा होने की सलाह इसलिए नहीं देती क्योंकि वे जानती है कि देवियां रोज नहीं पैदा होती, ऐसी विद्रोहिणी सहस्त्र वर्षो में एक बार जन्म लेती है मगर जब जन्म लेती है तो इतिहास में अपनी छाप छोड़ जाती है। जिनकी मृत्यु के बाद भी मुझ जैसे कोई तुच्छ कलमकार उन पर लिख कर स्वयं को धन्य समझता है। माइकल मधुसूदन दत्त ने राधा कृष्ण के प्रेम के विषय में लिखा है-
“जिसने कभी न साधा मोहन रूप बिना बाधा,
वो ही न जान पाया है इस जग में क्यों कुल कलंकिनी हुई है राधा।”
कृष्ण,
जो सिर्फ़ प्रेम हो सकते हैं,जितने राधा के हुए,उससे ज़्यादा उन्हें मीरा ने पा लिया ,प्रेम का गूढ़ार्थ ऊधौ ने पाया और ब्रज के पत्ते-पत्ते ने समझा ,कृष्ण,जो न होकर भी थे प्रेम का अर्थ हो गए जिन्होंने प्रेम का रंग बदल दिया
जिन्होंने प्रेम की पराकाष्ठा को मायने दिए,कृष्ण,जो देवकी और यशोदा दोनों के रहे जिन्हें रसखान, सूर दोनों ने गाया जो मूरत होकर भी मीरा के प्रेम हो गए,वो कृष्ण ही तो थे जिन्होंने दुनिया को बताया कि प्रेम, ज्ञान से बहुत बढ़कर है…।
*हाथ से छूके इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो*
प्रेम का ज़िक्र चले और ‘हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू ‘ गीत की याद न आए ये नामुमकिन है। कोई विरला ही प्रेमी होगा जिसके हृदय ने इस गीत की मोहिनी को दिल से महसूस न किया होगा।दैहिक संबंधों के इस दौर में इश्क के सही मायने समझाता यह सुनहरा गीत प्रेम को नई ऊंचाइयों पर ले जाता है।
राजेश खन्ना, वहीदा रहमान और धर्मेंद्र अभिनीत, 1969 में रिलीज फिल्म ‘खामोशी’ के इस गीत में प्रेम अमृत की बूंद की तरह बरस रहा है। जिस प्रेमी ने इस बूंद के एहसास को सच्चे मन से छू लिया वो एक असीम आनंद में खो जाता है।
गुलजार के इस गीत को हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध किया है। लता मंगेशकर ने इसमें अपनी सदाबहार आवाज दी है। गीत के बोल प्रेम की सबसे सटीक और सच्ची परिभाषा देते हैं।
फिल्म में इस गीत के द्वारा नायक ‘अरूण’ को अपने कालेज के दिनों वाली प्रेमिका को याद करते हुए दिखाया गया है।इस गीत को अरूण की प्रेमिका एक रेडियो प्रसारण के दौरान गा रही है।
प्रेम एक ऐसा अंतहीन रहस्य है जिसे समझने के लिए भी केवल और केवल प्रेम का ही सहारा लेना पड़ता है। इस रहस्य को जानने का कोई दूसरा तरीका न कभी था, न है और न ही भविष्य में होगा। प्रेम को किसी भी नियम, कायदे कानून या व्याख्या के ज़रिए समझने और समझाने की कोशिश करने वाला सबसे बड़ा मूर्ख है।क्योंकि शायद वो नहीं जानता कि इसे समझने के लिए केवल इसमें डूबना ही एकमात्र विकल्प है. और हां! प्रेम में आकंठ डूबने के बाद भी कोई गारंटी नहीं कि आखिर में इसका रहस्य समझ में आ ही जाए!
‘हम ने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू
हाथ से छूके इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो
सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो
हम ने देखी है …’।
तो यकीन मानिए कि जिसने भी आंखों से आती इस खुशबू को एक बार देखकर महसूस कर लिया, उसका रोम-रोम इसकी खुशबू से महक जाता है.
इन पंक्तियों का अर्थ कुछ यूं भी लगा सकते हैं कि किसी कि भी आंखों में हमें खुशी, उदासी, भय और घृणा के भाव आसानी से दिख जाते हैं, परंतु यहां तो प्रेमी आंखों से आती खुशबू भी देख कर महसूस कर लेते हैं,ये पंक्तियां प्रेम की एक खूबसूरत परिभाषा गढ़ कर हमारे सामने रख देती हैं।
जिस प्रकार कोई बिना किसी फूल को देखे, केवल सुगंध से रिश्ता बना लेता है उसी प्रकार प्रेम में भी केवल प्रेम का सिर्फ़ अहसास ही ज़रूरी होता है,यहां प्रेमी का खुद उपस्थित होना कोई मायने नहीं रखता।
और दोनों प्रेमियों के बीच रिश्ते को कोई नाम देना भी उतना ही बेमानी लगता है जिस प्रकार कि खुशबू महसूस करने वाला फूल से अपने रिश्ते को परिभाषित नहीं कर सकता,ये एकदम सच है कि सच्ची मुहब्बत केवल अहसास से ही अपने साथी को साथ महसूस करने की कोशिश होती है, बाकी सब छलावे और भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
यहां केवल सुगंध से रिश्ता महत्वपूर्ण है, फूल से नहीं,
‘प्यार कोई बोल नहीं प्यार आवाज नही
एक खामोशी है सुनती है कहा करती है
न ये बुझती है न रुकती है न ठहरी है कहीं
नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है’
आजकल के प्रेमियों के बीच जहां ‘I love you! ‘ कहने और कहलवाने की होड़ मची हुई है उनके लिए एक बुरी ख़बर मेरे पास ये है कि वास्तविक प्रेम कहने या इजहार करने में नहीं बल्कि खामोशी में छिपा है. अगर प्रेम सच्चा है तो दो प्रेमियों के दिल बिना एकदूसरे से एक शब्द बोले बात समझ जाते हैं.
कहा भी गया है कि –
‘ प्रेम में, शब्द तो सिर्फ तमाशा हैं ! मौन ही असली भाषा है! ‘
मेरा यकीन मानिए कि जब दिल में सच्चा प्रेम अंकुरित होता है तो इसे किसी हाव-भाव या संवाद की आवश्यकता नहीं होती।
प्रेम प्रकाश की एक ऐसी बूँद है जो अनंत काल से बह रही है और जब भी कोई व्यक्ति इसे अपने हृदय में इसे महसूस कर इसकी छुअन के सर्वथा योग्य बन जाता है तो यह नूर की बूंद उसे भीतर तक प्रकाशित कर देती है. समय समय पर प्रेम के इसी नूर से जगमगाते प्रेमी हमारे सामने आकर प्रेम के पवित्र, गहरे और ऊँचे अस्तित्व का उदाहरण प्रस्तुत करते रहते हैं. जैसे कि कृष्ण-राधा का प्रेम, मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम आदि. प्रेम के नूर की वही एक बूँद आज भी अपने उसी रूप में, लेशमात्र भी किसी बदलाव के,इस धरती पर हम सबके जीवन में ज्यों की त्यों बह रही है जिसने कभी राधा कृष्ण और मीरा को प्रकाशित किया थ. सदियां बीतने पर भी ये नूर की बूंद अपने उसी विशुद्ध रूप में बिना बुझे, रुके और ठहरे निरंतर सच्चे प्रेमियों के हृदय में बह रही है.
मुस्कराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं
और पलकों पे उजाले से झुके रहते हैं।
होंठ कुछ कहते नहीं, कांपते होठों पे मगर
कितने खामोश से अफ़साने रुके रहते हैं
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो
हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबू
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलजाम न दो
हमने देखी हैं …’
इन पंक्तियों की खूबसूरती देखिए कि जहां मुस्कुराहट, प्रेमी के होंठों की जगह उसकी आँखों में दिखाई देती है जिससे उसकी पलकें कितने ही उजालों से चमचमाने लगती हैं. और होंठों पर न जाने कितने ही अनकहे शब्द आ कर लौट-लौट जाते हैं , इस भावना से कि ये शब्द कहीं होंठों से बाहर निकल कर प्रेम को तुच्छ न साबित कर दें।
बिल्कुल वैसे ही जिस प्रकार ‘अहं ब्रह्मास्मि ‘ जिसका शाब्दिक अर्थ है कि मैं ब्रह्म हूँ, यहाँ ‘अस्मि’ शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। अहं ब्रह्मास्मि अर्थात अन्दर ब्रहमाण्ड की सारी शक्तियाँ है। मैं ब्रह्म का अंश हूँ।’ प्रेम में भी प्रेमी दो भिन्न व्यक्ति नहीं रह जाते, फिर चाहे उनके बीच कितने ही फासले हों. प्रेम की इस अवस्था में दोनों प्रेमी एक बिल्कुल अलग आयाम में एकाकार हो जाते हैं, बिना एक दूसरे की शारीरिक उपस्थिति के।
*As Rabindranath Tagore wrote in geetanjali —
‘ I shall ever try to keep my body pure knowing that thy loving touch upon all my limbs! ‘
‘मैं कभी यह जानकर अपने शरीर को शुद्ध रखने की कोशिश करूंगा कि तेरा प्यार मेरे सभी अंगों पर है! ‘
–बस इस गीत से मुझे एक शिकायत रह गई कि काश इसे किसी पुरूष का स्वर भी मिला होता…!
क्योंकि न जाने क्यों मुझे लगता है कि शायद कोई पुरूष इस प्रेम को उस प्रकार कभी महसूस ही नहीं कर सकता जिस प्रकार एक नारी करती है…।
अंत में बस यही कहना चाहूंगी कि, यदि मैं इस गीत के जरिए प्रेम का मर्म 1% भी आपको विस्तार से समझा पाने में सफल हो पाई हूं तो मेरी लेखनी सफल हो गई है…!
प्रेम के प्रति बस एक छोटी सी मेरी एक रिक्वेस्ट है यदि आप माने तो— किसी से प्रेम करना और प्रेम न निभा पाना बुरा नहीं है,बुरा है प्रेम के नाम पर धोखा देना… बुरा है किसी के विश्वास को तोड़ना… आप दिल तोड़ दीजिए कोई बात नहीं…इंसान फिर मुहब्बत कर लेगा, फिर दिल कहीं लग जाएग… मगर धोखा दिल को नहीं इंसान को तोड़ देता है,ये पाप है…ये ग़लत है, बस…!
रीमा मिश्रा”नव्या”
न्यू केंदा कोलियरी
पोस्ट-केंदा
जिला-पश्चिम बर्धमान
थाना-जामुड़िया
पिन-713342
खूबसूरत और बहुत उम्दा स्टोरी
हार्दिक शुभकामनाएं आपको।