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अन्ध राष्ट्रभक्ति मधेश का मुद्दा अब नहीं हो सकता : कैलाश महतो

कैलाश महतो, नवलपरासी | परापूर्व काल से ही मधेश और इसकी जीवन पद्धति लोकतान्त्रिक और गणतान्त्रिक रही है । मधेश अपने अराध्य देवी देवताओं के लोकतान्त्रिक पद्धति को अपना जीवन पद्धति मानता है । सिन्ध के उच्च सभ्यता का प्रभाव मधेश पर भी रहा है । इस सभ्यता में सौम्य व सम्यक वाणी, लोक कल्याणकारी व्यवहार और आचरण की पूजा होती है । यहाँ अनेक विचार, व्यवहार, भाषा, संस्कृति, संस्कार और बोलियों ने विकास करने का अवसर पाया है । यहाँ मत्स्य को सम्मान करने का संस्कार, वामन (बाँदर) को अवतार मानने का इतिहास, मानव मन में रमने बाला राम, कलात्मक जीवन की रचयिता कृष्ण, न्याय के लिए हथियार उठाने बाले परशुराम और ज्ञान विज्ञान साधक सन्त बुद्ध जैसे अवतारों से लेकर हिन्दु, मुस्लिम, बुद्ध, सिख, जैन, इसाई तथा प्राकृत धर्म समेत को स्थान मिला है । इसी भूमि पर हिन्दी, उर्दु, अंग्रेजी, फारसी, कर्नाटक, मराठी, नेपाली, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, थारु, मगही, ठेठ, पंजाबी, पाली, प्राकृत तथा संस्कृत जैसे भाषाओं को उत्पत्ति होने और स्थान ग्रहण करने का अवसर मिला है ।

राष्ट्र चन्द समय में भी छोटा बडा होता रहता है । उसका सीमा घटता बढता रहता है । राजनैतिक शासन समय समय पर बदलता रहता है । कभी कभी चन्द ही पलों में राष्ट्र समेत विलीन हो जाता है । नयाँ राष्ट्र भी बन जाता है । मगर भाषा वह यन्त्र है जिसकी समाप्ति में हजारों लाखों साल, काल और शदी लग जाती है । हिन्दी भी एक कालजयी णाषा है । इसे मारने बाले निश्चित ही मर जायेंगे और यह विकसित होता रहेगा ।

राष्ट्र केवल देश की भूमि नहीं, वहाँ की जनता, उसकी भाषा, भावना, संस्कृति, परम्परा, रहनसहन, सुखदुःख, आनन्द और पीडा भी राष्ट्र है । जिस जनता को राज्य राष्ट्र मानता है, उसके भाषा, संस्कृति, चाहत, अरमान आदि को स्वतन्त्रतापूर्वक फलने फूलने और प्रयोग होने की ग्यारेन्टी होनी चाहिए । ऐसा नहीं हो सकता कि कोई यह कहे कि उसे औलाद चाहिए, मगर उसका हाथ पैर, चेहरा और आत्मा नहीं चाहिए । भाषा और संस्कृति राष्ट्र (जनता ) का आत्मा होता है । उसके बिना वह कुछ भी नहीं कर सकता ।

नेपाली शासक और उसके मिडिया को माने तो संसद में हिंदी बोलने की संवैधानिक प्रावधान नहीं है । यहाँ विचार करने बाली बात यह है कि मधेश ने उस संविधान को तो आजतक माना भी तो नहीं है । संविधान किसी भी मुल्क का दस्सातावेजीय साझा सम्पत्ति होता है । वह साझा इसलिए होता है कि वह देश के समस्त लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, सम्बोधन करता है और मर्म व भावना का सम्मान करता है । जब संविधान देश के सारे समाज का होने का तस्वीर दिखाता है तो स्वाभाविक रुप से उससे सारे समाजों व समुदायों का अपनत्व व लगाव हो जाता है । नेपाल के किसी भी कालखण्ड के संविधान ने क्या वह समतामूलक भाव दिखाया जो मधेश और पर्वतीय पीडित समुदाय भी चाहता है ? कागजी संविधान जबतक देश के समस्त लोगों के “मन के विधान” को नहीं पढ पायेगा, तबतक वह संविधान एक समाज के लिए गहना और दूसरे के लिए शैतानी शक्ति से ज्यादा और कुछ नहीं हो सकता । नेपाल के उसी विभेदी संविधान के कारण मधेशियों के साथ भौतिक, मानसिक, भाषिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षिक और अवसरीय विभेद, दोहन, शोषण, तिरष्कार, गाली, बेइज्जती और क्षति होता रहा है । दैनिक सडक जीवन से लेकर नेपाली टेलिभिजन, सिनेमा, सिरियल्स, फेसबुक संजाल, अनलाइन मिडिया, पत्र पत्रिका में भी मधेशियों को अपमान ही किया जाता है । कृषि टेलिभिजन उसका ताजा उदाहरण है ।

भाषा जीवन में तीन चार प्रकार से प्राप्त होता है : १. अन्तर्निहित (प्राकृतिक) रुप में, २. पढाई लिखाई के क्रम में, ३. शान शौकत, शौक या फेसन के रुप में और, ४. बाध्यात्मक रुप में ।

मैं अपनी उदाहरण दूँ । मैं ठेठ मैथिल परिवार में जन्मा । ठेठ मैथिली परिवार से सिखी । हिन्दी में लिखित मनोहर पोथी से मैंने क ख की पढाई शुरु की । बाद में नेपाली भाषा ने हमें अपने गिरफ्त में ली । तीन क्लास से स्नातकोतर तक हमने नेपाली भाषा का प्रयोग किया । विभिन्न शैक्षिक संस्थानों में अध्यापन और प्राध्यापन की । मगर आज भी नेपाली बोलने में हमारी आवाज उस तरह स्पष्ट नहीं हो पाया है जिस तरह बिना पढे हम हिन्दी बोल लेते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि घर में बोली जाने बाली और बिना पढे बोलने में आसान रहे ठेठ मैथिली और हिन्दी हमारे जीवन के अन्तर्निहित भाषायें हैं । नेपाली और अंग्रेजी पढने का भाषा रहा । वे भाषायें बाद में कार्यालीय और रोजीरोटी के माध्यम बने । मगर जीवन और खून से जुडा भाषा ठेठ मैथिली और हिन्दी ही रहा है । बाँकी हम जो भी भाषायें सिखते/बोलते हैं, वे शौख या थप ज्ञान के लिए ।

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कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा के साथ ही आजकल नेपाली राजनीति का केन्द्र हिन्दी भाषा भी बनने का सौभाग्य पाया है । संसद में सांसद सरिता गिरी और अमृता अग्रहरी द्वारा हिन्दी में दिये गये मन्तव्य ने नेपाली राजनीति को सिर्फ सडक पर नहीं, अपितु नेपाली मानसिकता को भी निर्वस्त्र कर रखा है । सारा राजनीति, मिडिया, पाखण्डी और मधेशी विरोधी मानसिकता तिलमिलाते नजर आ रहे हैं । हिन्दी के साथ में नागरिकता, चुनाव, वैवाहिक अंगीकृत नागरिकताधारियों के प्रवेशपन जैसे मद्दे भी जुड चुके हैं । एक तीर से कई डालों में हडकम्प मच गई है ।

आज जिसे नेपाली भाषा कहा जा रहा है, उसका कानुनी मान्यता भी नेपाल में वि. स.२०१४ में मिली है । यह भाषा पश्चिम नेपाल के खस जनजाति द्वारा बोली जाने बाली पर्वते भाषा है जिसे भाषा नहीं, खस कुरा कहा गया है । बाद में यह गोर्खा के तरफ पलायन हुआ और इसे गोर्खा भाषा कहा गया । राज्य विस्तार के क्रम में गोरखा जब नेपाल (काठमाडौं) में पसरा तो गोरखा साम्राज्य के साथ ही उसने वहाँ भी गोरखा भाषा ही कहलाया और आजतक वह गोरखा पत्र में उसी नाम से चर्चित है । गोरखा पत्र और गोरखा सेना के नाम से ही बेलायत, भारत, हंगकंग जैसे देशों में इनका परिचय आज भी कायम है ।

जहाँतक हिन्दी भारत का होने का नेपाली दावा है तो २०३४-३५ साल में हमें नेपाल में मनोहर पोथी नहीं पढाया जाता । समान्य सी तर्क की बात है कि जो नेपाली अपने को हिन्दु कहता है, वो भला हिन्दी और हिन्दुस्तान से नफरत कैसे कर सकता है ? वैसे भी हिमाली और विकट पहाडों में बोली जाने बाली आदिवासी जनजातियों के भाषाओं को छोडकर नेपाल में बोली जाने बाली अधिकांश भाषायें भारोपेली भाषा ही हैं । नेपाली भाषा का लिपी, शब्द और व्याकरण निर्माण समेत देवनागरी लिपि में हैं जो हिन्दी से ही विकसित है ।

भारत में मात्र ०.२४% लोगों द्वारा बोली जाने बाली नेपाली भाषा को भारत के संविधान ने ८वें धारा में स्थान दिया है । जिस भाषा को नेपाल अपना राष्ट्रभाषा कहता है, वह संविधानतः भारत का राष्ट्र भाषाओं में से भी एक है । इस भाषा की उत्पत्ति ही भारत के कुमाउँ और गढवाल में हुई है और समय के कालखण्ड में भारतीय खस लोगों के आगमन के साथ ही आज के कर्णाली में इसने हल्का अस्तित्व कायम की । इससे यह प्रमाणित होता है कि खस इस भाषा का प्रयोगकर्ता भी भारतीय ही हैं । राजा महाराजा के साथ ही आजके सारे खस और आर्य नेपाली नेता भी भारत से ही आने का इतिहास पुष्टि किया जा सकता है ।

नेपाली अगर नेपाल का ही भाषा होता तो इसे नेपालीकरण करने की गुण्डागर्दी नहीं होती । महज लगभग तीन करोड के संख्या में रहे नेपालियों के उपर जबरजस्ती थोपने की आवश्यकता न होती । सन् २०११ के जनगणना अनुसार भी नेपाल में इस भाषा को प्रयोग करने बाले लोग केवल ३२.८% ही है जबकि नेपाल सरकार ने सही तथ्याङ्क का गला घोटा ही होगा । नेपाली भाषा को नेपाल का ही राष्ट्रभाषा माना जाय तो फिर यह भारत के साथ साथ भुटान और म्यानमार जैसे देशों में समेत लाखों लोग बोलते हैं । गोर्खाली लोग किस आधार पर यह दावा कर सकते कि यह सिर्फ नेपाल की राष्ट्रभाषा  है ? नेपालियों का अन्धराष्ट्रभक्ति मधेश का मुद्दा अब कतई नहीं हो सकता । मधेश अब गोरखों के मनसाय और बदलते चरित्र को समझ रहा है ।

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२०६६ के लगभग वैशाख का तीसरा सप्ताह रहा होगा । मैं सुकुम्बासी समस्या समाधान सुझाव आयोग का राष्ट्रिय अध्यक्ष था । मेरे गाडी चालक धनुषा के पंचे राई रहा । मधेश बन्द के कारण हम सब परिवार बचते हुए सिन्धुली के रास्ते काठमाडौं जाना अनिवार्य था । जाते जाते काभ्रेपलाञ्चोक के एक वस्ती में गाडी बिगड गई । काठमाडौं से दूसरी गाडी न आनेतक हमें वहीं रुकना पडा ।  अन्धेरा छाने लगा था । परिवार के साथ हमारे हिन्दी बोलते सुनने के कारण वहाँ के स्थानीय लोग हमें दुकान में भी सामान खरीदने नहीं दिये शायद यह समझकर कि हम भारतीय हैं । सस्ते में प्याज और टमाटर बेच रहे स्थानीय किसान प्रेम सिंह लामा ने भी हमें सब्जियाँ देने से इंकार कर गये । हम नेपाली बोले । फिरभी हमें फोरम कहकर गालियाँ दी गई जबकि हमारे पास सरकारी गाडी थी । बाद में पञ्चे ने उन्हें समझाया तो दुकान बाले ने खाने के सामान दिये और लामा जी ने बेच रहे दामों से भी घटाकर टमाटर और प्याज दिये । जब हम उनसे फोरम पार्टी की सही अवधारणा बताये तो वे हमें रात को अपने घर पर अतिथि बनने को अनुरोध करने लगे । एक लडकी अपने घर पर पके मुर्गे का मांस और भात खाने चलने के लिए हैरान करने लगीं । मगर मैंने उन लामाओं से नेपाली ठीक से न बोल पाने का जब कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि किसी तरह वे लोग काम चलाउ नेपाली बोल लेते हैं । नेपाली उनकी भाषा नहीं है । वे अपना भाषा बोलते हैं ।
नेपाल में ही नेपाली भाषा बोलने बालों की संख्या अति कम है । कारण यह राष्ट्रभाषा नहीं, यह खस भाषा है । गोरखा भाषा है ।

हिन्दी परापूर्व काल की वह भाषा है जो वर्तमान भारत से पहले भी भारतीय उपमहाद्वीप और भूखण्डों पर बोली जाती थी । सन् २०११ के भारतीय जनगणना के अनुसार भारत में आज ४३.६३% हिन्दी, २.६% अंग्रेजी, ८.३०% बंगाली, ७.९% मराठी, ६.९३% तेलगु, ५.८९% तमिल, ४.७४% गुजराती, ४.३४% उर्दु, ०.०१३% थारु आदि जैसे भाषा प्रयोगकर्ता हैं । वहीं भारत में मैथिली बोलने बालों की संख्या ५० मिलियन और भोजपुरी बोलने बाले ५०.१ मिलियन हैं । भारत के संसद में जिसको जिस भाषा में सुविधा हो, उस भाषा में ही शपथ लेने का प्रावधान है । फिर भी वहाँ भारतीय अखण्डता और राष्ट्रभाव जिन्दा ही नहीं, फलता फूलता भी रहा है । राष्ट्र और राष्ट्रियता मजबूत है । मगर आश्चर्य की बात है कि हिन्दी बोलते ही नेपाल का राष्ट्रियता डगमगाने लगती है ! क्यों चाहिए इतना कमजोर राष्ट्र, राष्ट्रियता और राष्ट्रवाद… ?

नेपाल के लगभग तीन करोड के बीच ३२.८% नेपाली बोलने बालों को छोडकर सबसे ज्यादा मैथिली बोली जाती है । भोजपुरी का भी प्रतिष्ठित स्थान है । उस अवस्था में मधेशी समुदाय के सारे लोग अगर मैथिली या भोजपुरी ही बोलने लगे, जो संभव प्रायः नहीं है, तो गोर्खाली शासक यह कहते फिरसे देर नहीं करेंगे कि वे तो भारतीय भाषा है । उसपर बन्देज लगनी चाहिए । गोर्खाली शासन के लिए भाषा कम और मधेशी आवाज शर का दर्द बना हुआ है जिसका इलाज राँची हस्पिटल भी नहीं कर सकता ।

“A lingua franca is a language or way of communicating which is used between people who do not speak, or may be, do not understand one another’s native language.”

हिन्दी पूरव से पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण, मधेश से लेकर पहाड, शासक से लेकर शासित, राष्ट्रपति से लेकर पियन, यूनिवर्सिटी से लेकर फ्याक्ट्री और मालिक से लेकर मजदूरतक का Lingua Franca (सम्पर्क भाषा) है । इस भाषा ने नेपाल और भारत के ही नहीं, नेपाल-भारत-बर्मा-भुटान, मरिसस तथा हंगकंग लगायत के देशों में उल्लेखित सारे देशों के लोगों के लिए रोजीरोटी तलासने की भी भाषा है । मंडरीन, स्प्यानिश और अंग्रेजी के बाद बोली जाने बाली यह भाषा संसार के भाषाओं में चौथे सबसे ज्यादा और उर्दु सहित के हिन्दी भाषा संसार के तीसरा सबसे ज्यादा बोली जाने बाली भाषा है । इसकी उत्पत्ति प्राचीन शदी में होने की बात बतायी जाती है । “परशियन” भाषा के काउण्टर में “रेख्ता” भाषा का रुप बदलकर “खरी” भाषा के रुप में इसका प्रयोग तत्कालिन दिल्ली से शुरू हुई थी जो कालान्तर में मारवाडी व्यापारियों ने इसके प्रयोग को जोडतोड से फैलाया । कालान्तर में वही खरी भाषा “हिन्दुई”, “हिन्दावी” होते हुए “मानक हिन्दी” बना जो आज “हिन्दी” के नाम से विश्व चर्चित है ।

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गोर्खाली शासकों का हिन्दी भाषा से घबराहट होने का सबसे बडा मनोवैज्ञानिक कारण यही है कि मधेश में रहे मधेशियों का भारतीय लोगों से चेहरा मोहरा, खानपान, रहन-सहन, रीतिरिवाज, धर्म-संस्कार, बोलीचाली, भाषा, बेटीरोटी, शादी विवाह तथा मनोविज्ञान का मिलना । और यह त्रास केवल हिन्दी भाषा के कारण नहीं, अपितु कल्ह मधेश मैथिली, भोजपुरी, अवधी या थारु भाषा ही बोलने लगे, तब भी बात वही होगा । हकिकत यह है कि गोर्खाली शासकों ने देश और देश के सारे मधेशी और पहाडों के आदिवासी जनजातियों पर इतना जुल्म किया है कि मधेशी जिस भी भाषा को बोले, वह उसके लिए त्रास बनेगा ही । पहाडों के सारे आदिवासी जनजाति भी अगर चाइनिज, तिब्बती या मंगोलियन भाषा बोलना शुरु कर दें तो उसका शिर दर्द बनेगा । वास्तविकता यही है कि भाषा तो महज एक बहाना है । भाषा से अगर राष्ट्र और राष्ट्रियता पर कोई बुरा असर होता तो स्वीट्जरल्याण्ड में इटालियन, फ्रेन्च, जर्मन और स्वीस भाषायें राष्ट्र भाषाओं के तौर पर बोले जाते हैं और सबका इज्जत और वजन एक समान है । फिर वह देश तो कम से कम चार टुकडों में बँट जाता !

जहाँतक नेपाली भाषा की बात है तो गोरखा राज्य जब नेपाल में प्रवेश किया तो नेपाल की भाषा तब का गोरखा भाषा और आज के नेपाली नहीं था । नेपाल का राष्ट्र भाषा नेपाल भाषा (नेवारी) और मैथिली थे । उससे पहले उसका भाषा ब्राम्ही रहा । नेपाल उपत्यका से पानी बाहर करने बाले और उसका नाम “नेपाल” तक रखने बाले “ने” ऋषि भी मधेशी ही थे । पशुपति के मन्दिर में आज भी जब भगवान का पूजा शुरु होता है तो मैथिली शब्दों का प्रथम उच्चारण होता है

हिन्दी किसी भी मायने में सिर्फ भारत की ही भाषा नहीं, यह मधेश का भी पौराणिक भाषा है । सारे वेद, महाभारत, धार्मिक ग्रन्थ, धार्मिक सेवा सत्कार, तीर्थ त्यौहार सब हिन्दी भाषा में करने बाले गोर्खाली शासक द्वारा हिन्दी से नफरत होना एक नाटक और राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक त्रास से ज्यादा और कुछ भी नहीं हो सकता ।

समान्य सी मनोविज्ञान की बात है कि साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी आक्रान्ता सम्बन्धित राज्य और भूमियों के मूल निवासियों के उपर अपना भाषा, संस्कृति, रहनसहन, खानपान, राजनीति, समाजनीति व चिन्तन लादता है । उसका मनोवैज्ञानिक कारण ही उसका मनोवैज्ञानिक डर होता है । गोर्खाली शासक भी मधेश से घबराने के कारण ही वह मधेश और मधेशियों पर अपना भाषा, संस्कृति, रीतिरिबाज आदि लादने के कोशिश में हैं जो अब मधेश बखुबी समझता है । मधेशी कहे जाने बाले सारे दल, नेता, सांसद, मन्त्री, पढेलिखे एलाइट समाज, कर्मचारी, व्यापारी, कानुन व्यवसायी, लेखक आदि सबको अब योजनावद्ध होकर हिन्दी भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए । नेपाली भाषा से सम्बन्धित सारे मिडिया को बहिष्कार करना बेहद जरुरी है ।

एक हिन्दी संस्कृति का कवि कहते हैं :
“कोयल कूक पपीहा बानी, ना पीपल की छांव,
सात समंदर पार बसाया हमने ऐसा गांव ।

रामायण के एक अनुच्छेद अादमी के अपने मिट्टी, भाषा, संस्कार व धरोहर के महत्व को दर्शाते हुए कहता है :

“नेयं स्वर्णपुरी लंका रोचते मम लक्ष्मण।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।”

 अर्थात जब लंका जीतने के बाद लक्ष्मण ने राम से कहा, “हे श्रेष्ठ भ्राता, यह स्वर्णपुरी सोने की लंका जीतने के बाद इसे छोड़कर हम वापस चलें ?” तब राम ने कहा,  “हे लक्ष्मण, तुम इस स्वर्णपुरी पर आकर्षित मत होओ । अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर होती है ।”

मधेश भगवान राम के इस महावाणी को अपने जीवन में सूत्रबद्ध करेगा और अपने भाषा, संस्कृति, संस्कार, रीतिरिवाज, रहनसहन जैसे पूर्खों की जायदादों को सुरक्षित रखेगा – इस पर हम सब विश्वस्त हैं ।

कैलाश महतो, नवलपरासी |

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