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“भारत और पाकिस्तान” के अवैज्ञानिक विभाजन से भारत आज भी लहु लुहान हो रहा है : कैलाश महतो

भारत की आजादी में गाँधी की मायूसी और सत्ता की लालच

कैलाश महतो, नवलपरासी | भारत के आजादी में लॉर्ड माउंटबेटन एक ऐसा शख्स है जो शुभ अशुभ की दकियानुसी और संकीर्ण मानसिकता तथा अहंकार से भरे वो इंसान थे, जिन्होंने अपने अहंकार और कन्जरभेटिव मानसिकता के आधार पर ही भारत आजादी की तिथि की घोषणा की थी ।

भारतीय इतिहासकारों को मानें तो भारत पर ई. पू. ४८० में हुए प्रथम विदेशी (इरानी) आक्रमण के बाद से ही भारतीय लोग विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध लडाई करते रहे, और अन्तत: सन् १९४७ अगस्त १५ को भारत आजाद हुआ । दर्जनों देशों से आये विदेशी आक्रान्ताओं के संख्या के कारण भारत में उस समय के वास्तविक भारतीय नागरिकों से कई गुणा ज्यादा उनकी संख्या हो गई । भारत के पास रहे अन्न, मुद्रा, बहुमूल्य धातुएँ, उर्वर भूमि, समुद्री पहुँच आदि सुविधाओं को देख ज्यादातर विदेशी लोग भारत में ही बस गये । वे भारत को ही अपना देश मान लिये । मगर सन् १६०० ई. में व्यापार के सिलसिले में भारत आये अंग्रेज लोग भारत का शासक बन गये ।

अंग्रेज हुकुमत के विरोध में भारत ने खुलकर सन् १८५७-५९ ममें बेमिशाल जंग लडी । भारतीय सैनिकों तथा जन विद्रोह के सामने अंग्रेज सहम गया था । उसने उसी समय भारत छोडने का उदघोष कर दिया था । भारत छोडने को तैयार रहे अंग्रेजों ने गोर्खा सैनिकों के कारण भारत में थप नब्बे सालों तक शासन किये । लेकिन एक तरफ गाँधी की अहिंसक आन्दोलन, दूसरे तरफ सुवास चन्द्र बोस के सैन्य बल के गरम मिजाज तथा तीसरे ओर सन् १९३९ से १९४५ तक चले द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की आर्थिक अवस्था दयनीय हो जाने के कारण वह भारत में अपने शासन को टिका पाने में असमर्थ हो रहा था । वैसे अंग्रेजों ने सन् १९४२ में ही भारत छोडने का ऐलान कर चुका था । उसने (ब्रिटेन) भारत से अपना शासन खत्म करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बर्मा में ब्रिटेन के अगुवाई में २६ देशों के मित्र राष्ट्र सेना का नेतृत्व करने में सफल रहे लॉर्ड माउंटबेटन को भारत से अंग्रेजी शासन को सकूसल अन्त करने के लिए भारत भेजा था । उस युद्ध में जापान ने बिना शर्त लॉर्ड माउंटबेटन के आगे आत्म समर्पण किया था जिससे उनकी उंचाई काफी बढी हुई थी । वे जाने पहचाने सफल अंग्रेज सैन्य अधिकारी थे । २६ देशों का मित्र राष्ट्र सैनिक मोर्चा सन् १९४२ में उन्हीं के नेतृत्व में बनी थी ।

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ब्रिटेन ने अपने योजना के मुताबिक़ ही फरवरी १९४७ में लॉर्ड माउंटबेटन को अन्तिम वायसराय के रूप में भारत भेजा । माउंटबेटन ने अपने सरकारी योजना के अनुसार सन् १९४८, जून ३ के दिन भारत को आजाद करने का दिन तय किया । उसके लिए माउंटबेटन ने भारतीय नेताओं से गंभीर बातचीत करनी शुरू की । जैसा कि अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन की नीति रही कि उन सारे देशों को टुकडे टुकडे में विभाजित कर देना होता था जिसको वह अपने औपनिवेशिक शासन से मुक्त करता था, उसी शैली का प्रयोग उसने भारत पर भी लागू किया । वैसे उसने तो विशाल भारत को ५६५ रिसासतों में ही विभाजन करने की साजिश की थी, मगर भारतीय रियासतों की आपसी सहमति और सरदार वल्लभभाई पटेल के लौहयता के कारण अंग्रेज पूर्णत: सफल नहीं हो पाये, मगर भारत से पाकिस्तान को अलग करने में सफल रहे । कहा जाता है कि पाकिस्तान के बंटबारे को जवाहर लाल नेहरू ने भी आसान कर दिया था ।

जब भारत और पाकिस्तान के बंटबारे का उपाय सुनिश्चित हो गया तो जादुई रुप में लॉर्ड माउंटबेटन ने ३ जून, १९४८ के तिथि को बदलकर १५ अगस्त, १९४७ कर दिया । उसके पीछे का कारण था कि उन्होंने १५ अगस्त के दिन को इसलिए तय किया कि वह तिथि उनके लिए शुभ था । द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति १५ अगस्त के दिन जापान द्वारा उनके सामने आत्म समर्पण के साथ ही हुआ था । वह दिन उनके लिए ऐतिहासिक तो था ही, अंग्रेज लगायत  विभिन्न उपनिवेशों से बहराईन, कंगो, द. कोरिया आदि जैसे मुल्क भी १५ अगस्त को ही स्वतंत्र हुए थे ।

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स्वतंत्रता तिथि की बात जब भारतीय ज्योतिषियों को पता चला तो सारे ज्योतिषियों ने विरोध यह कहते हुए किया कि १५ अगस्त की वह तिथि किसी भी मायने में भारत के लिए  शुभ नहीं है । भारत अगर उस दिन स्वतंत्रता प्राप्त करता है तो भारत के लिए अनिष्ट और कोहरामपूर्ण होगा । भारतीय लोगों ने माउंटबेटन से तिथि आगे या पीछे करने की आग्रह की । मगर उन्होंने एक न सुनी और १५ अगस्त का दिन मनमानी रुप में तय कर दी । विवश भारतीय समाज ने माउंटबेटन से अनुरोध यह किया कि १४ अगस्त के मध्य रात का समय तय किया जाय ता कि रात का बारह बजना अंग्रेजों के लिए दूसरा दिन (१५अगस्त) और भारतीय लोगों के लिए १४ अगस्त ही माना जायेगा । (भारत में सुबह के सूर्योदय के बाद से ही दूसरा तिथि शुरू होता है) । भारत के  उस अनुरोध को लॉर्ड माउंटबेटन ने मान लिया ।

तिथि तय होने के बाद १४ अगस्त के दिन रात के ९ बजे दिल्ली में भारी वारिस के बावजूद पांच लाख के संख्या में लोग आजादी की जश्न मनाने हेतु जमा हुए । रात के ११ बजे राष्ट्रपति भवन में लॉर्ड माउंटबेटन के साथ नेहरू, पटेल व राजेन्द्र प्रसाद की बैठक हुई । उस समारोह में उनके गरिमामय उपस्थिति के लिए हिन्दु मुस्लिम दंगों के विरोध में  पश्चिम बंगाल में अनसन पर बैठे स्वतंत्रता आन्दोलन के सर्वोच्च नेता महात्मा गाँधी को नेहरू ने पत्र लिखा । मगर गाँधी ने यह कहकर सहभागी होने से इंकार किया कि जिस देश में एक आपस में ही खून खराबा चल रहे हों, वहाँ कैसा स्वतंत्रता ? वह स्वतंत्रता का कोई खास अर्थ नहीं होता । मैं वैसे षड्यन्त्रतात्मक स्वतंत्रता दिवस पर उपस्थित नहीं हो पाऊंगा । भारत के दो टुकडों पर मिलने बाले स्वराज को गाँधी ने अस्वीकार कर दिया ।

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ज्योतिष शास्त्रियों के सुझाव अनुसार नेहरू ने रात के ११:५१ से १२ बजेतक आजादी भाषण दिये । १५ अगस्त के दिन सुबह ८:३० बजे के समय पर नेहरू ने तिरंगा और राष्ट्रगान के बिना ही शपथ ली । १६ अगस्त के दिन तिरंगा लहराया गया । मगर अगस्त १७ तारीख से पहले भारत और पाकिस्तान के बीच का कोई सीमा स्पष्ट नहीं किया गया था । अगस्त १७ के दिन भारत और पाकिस्तान की सीमा तय करने के लिए ब्रिटेन से पांच सप्ताह के लिए आये रेड क्लिफ (Red Cliff) ने अफरातफरी में ही हकलाते हुए चोरी चोरी अवैज्ञानिक, अप्राकृतिक, अराजनीतिक और गैर जिम्मेवारीपूर्ण ढंग से भारत और पाकिस्तान के बीच का सीमांकन कर चुपके से ब्रिटेन वापस हो लिया ।

इस तरह सत्ता के लालच में भारत के चन्द राज नेताओं ने भारत के आजादी पर गाँधी को मायूस किया था जबकि महात्मा ने कहा था, “भारत और पाकिस्तान की विभाजन किसी भी मायने में स्वीकार्य नहीं होगा । अगर ऐसा होता है तो उनके लाश पर ही संभव होगा ।” मगर वैसा न होना गाँधी और भारत के सीने में हमेशा के लिए एक चूभता हुआ खन्जर रोपकर भी सत्ता को प्राप्त किया गया । भारत आज भी उससे लहु लुहान हो रहा है ।

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