मैं भी चुनाव लडने जा रहा हूं
मुकुन्द आचार्य:एक पागल औरत मेरे सामने खड है। वह दोनों हाथ ऊपर उठाकर भगवान र्सर्ूय नारायण को घंटो से प्रणाम कर रही है। मुझे पागलों से बड डर लगता है। फिर भी डरते-डरते मैंने उससे पूछा- देवी तुम क्यों इतनी कठोर तपस्या कर रही हो – उसने अपनी लाल-लाल आँखों से मुझे कसकर घूरा, मैं पीला पडÞ गया। वह बोली, चेहरे-मोहरे से तो तुम बूढेÞ से लगते हो। मगर अकल के अभी कच्चे हो।
वो कैसे माते – -मैने अपनी झेंप मिटाने के लिए पूछा। वह बोली- इतना भी नहीं जानते। देश में चुनाव आ रहा है। सब अपनी-अपनी डफली में अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। मैं भी किसी से कम नहीं। मैं भी चुनाव लडÞने जा रही हूँ। मैं तो अभी से र्सर्ूय भगवान को मख्खन लगा रही हूँ कि हे प्रभो मुझे चुनाव में जरूर जिताना। और अगर मैं चुनाव जीत गई तो सबसे पहले मुझे पगली कहनेवाले जितने बदमाश हैं, सबको जेल भें ठूस दूंगी -इतना कहकर वह फिर मुझे घूरने लगी।
उस पगली से आगे बात करने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया। कुछ दूर गया ही था कि एक बुजर्ुग औरत सामने पडÞ गई। इससे भी मुझे डर लगता है, क्योंकि यह जब भी सामने पडÞती है- पाँच रूपयाँ मांगती है। और मैंने आज तक उसे एक पैसा नहीं दिया। कभी दिया भी होगा तो अभी याद नहीं आ रहा। भूलना भी बूढÞापे का एक आभूषण है।
इस वृद्धा ने पूछा- यह प्रचण्ड कौन है – और क्या करता है – मैंने कहा- माई तुम्हें इस लफडÞे से क्या लेना-देना ! चाय पिओगी –
उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। फिर कहने लगी- कुछ दिनों से कुछ लोग मुझसे भोट मांगने आ रहे हैं। मैं समझती थी, सिर्फमैं ही भिखारिन हूँ। लेकिन अब लगता है, यहाँ बहुत सारे भिखारी पडÞे हुए हैं। वे लोग कहते हैं- प्रचण्ड को भोट दो। मैं प्रचण्ड को नहीं जानती। क्या वह भी मेरी तरह भिखमंगा है – मैं तो खुद भिखारन हूँ। मुझसे भी जब लोग कुछ मांगते है,ं तो मुझे बडÞी हंसी आती है। तब तक चाय आ गई थी। उसने चाय पी। मैंने पैसे दिए। और वह ‘प्रचण्ड कौन – कौन प्रचण्ड -‘ कहते हुए चल दी।
मैंने सोचा, जब चुनाव आ ही गया है तो मैं भी एक स्वतन्त्र उम्मीदवार क्यों न बन जाऊँ। स्वतन्त्र उम्मीदवार बनने के भी अलग मजे हैं। मजा नम्बर वान- जब आप खुद उम्मीदवार होंगे तो कोई दूसरा आपसे सहयोग मागने की जर्ुरत नहीं करेगा। नम्बर टू- अब चुनावी मदद के नाम पर आप भी दूसरे से भीषण भिखमंगी कर सकते हैं। आपका मांगने का तरिका होगा- चुनाव के पहले आप मुझे मदद करें, चुनाव के बाद मैं आपकी सेवा करूंगा। नम्बर थ्री- स्वतन्त्र प्रत्याशी को अपना आय-व्यय -लेनी-देनी) को दिखाने की जरूरत नहीं होती, जो मिल जाय, उसे अपने बाप की कमाई समझकर अंटी में खोंस लीजिए।
चुनावी अखाडÞे का एक पुराना उस्ताद मिल गया। मैंने उससे पूछा, यार एक बात बताना तो। मैं अभी-अभी जेल से छूट कर आया हूँ, भ्रष्टाचार के लफडÞे में फंस गया था। क्या मैं भी चुनाव लडÞ सकता हूँ –
वह मूछें ऐंठते हुए बोला- कौन साला रोकेगा, चुनाव लडÞने से ! नेपाल में कौन सा नेता भ्रष्टाचारी नहीं है, जरा मुझे बताना तो सही। लंका में विभीषण बना था, डा. बाबुराम। वह अपनी बीबी के माध्यम से घूस लेता था। और नेता डाइरेक्ट लेते हैं, यह इनडाइरेक्ट लेता था। नाक को हाथ घुमाकर पकडÞने की जैसी बात है। यहाँ कोई दूध का धुला नहीं है। इनकी नस-नस से मैं वाकिफ हूँ। आराम से चुनाव लडÞो और बहती गंगा में गोते लगालो। जीत गए तो बेडÞा पार। हार भी गए तो अपने बाप का क्या जाता है। साल दो साल का खर्च तो ऐसे भी वसूल हो जाएगा न।
इतना गुरुमन्त्र देकर उसने फिर कहा- देखो मैं हर बार चुनाव लडÞता हूँ, हालांकि कभी जीतता नहीं, फिर भी मैं कभी हार नहीं मानता। चुनाव के चार महीने पहले से और चार महीने बाद तक हर शौचालय के भीतर-बाहर हाथ जोडÞते मुस्कुराते तुम्हारी तस्वीरों वाला पर्चा चिपका रहेगा। और हाजतमन्द लोग फारिग होते समय तुम्हारा हंसता हुआ चेहरा देखकर खुद हंसेंगे और उनके दिलों दिमाग पर तुम छाए रहोगे। यह क्या कम फायदे की बात है ! सपने में भी उनको तुम मुँह चिढÞाते नजर आओगे।
इस तरह मैंने चुनाव लडÞने का इरादा बना लिया। जेल में मेरे साथ जो अपराधी मित्रगण कैद थे, उन्हीं हमसफर को प्रचारबाजी में झोंक दूंगा। मेरी खातिर सब के सब चुनाव के मैदानेजंग में कूद पडेंगे। नौबत आन पडÞी तो मरने-मारने के लिए भी ये उतारू रहेंगे। इनसे बेहतर प्रचारक मिलना मुश्किल है। किसी पुराने खिलाडÞी से पर्चा-पैम्फलेट, बडेÞ-बडेÞ पोष्टर सब कुछ लिखवाना-बनवाना पडेÞगा। नाचने उठे तो घूंघट कैसा। सबों के दिलों दिमाग पर छा जाना है।
मगर निहायत ही गौरतलब बात एक और भी है। यह साला चुनाव जब तक निपट नहीं जाता, तब तक मुझे बेहद शरीफ इन्सान बन कर जीना होगा। वैसे तो यह बडÞा ही मुश्किल काम है। कोई दो-चार गाली भी बक दे तो हंस कर टाल देना होगा। बाहरी तौर पर हद दर्जे की इमानदारी की चादर ओढÞनी होगी। कोई लात से मारे भी तो हंसते हुए कहना होगा, बेचारा फिसल गया था, इसीलिए अनजाने में लात लग गया। नहीं तो बेचारा दिल का बडÞा ही साफ है। भला ऐसा शरीफ इन्सान क्या किसी को लात मार सकता है – इस चुनावी दौर में अपने दामन को पाक साफ रखना बहुत ही मुश्किल तो है, मगर नामुमकिन भी नहीं। जब ओखल में सर दिया तो मूसल से क्या डरना। देखा जाएगा।
अपने चुनाव क्षेत्र में जितने भी गुंडे, बदमास, तस्कर, चोर, डकैत, हत्यारे, लुटेरे हैं, उन सबों से दिल खोल कर बातें करनी होगी। सबके पाँव पकडÞने होंगे। यह साली राजनीति, जो न करावे ! गधे को भी बाप कहना पडÞता है।
अब आप क्या कहते है, मैं चुनाव लडंू या नहीं – वैसे तो मैंने चुनाव लडÞने का पक्का इरादा कर लिया है। फिर भी आप मेहरवान, कदरदान लोगों की राय मेरे सर आँखों पर रहेगी। मेरी बात गलत निकले तो आपकी जूती मेरे सर। इसे चुनावी लफ्फाजी समझें। मैं जुवान का पक्का और दिल का साफ हूँ। हालांकि कुछ बर्ेदर्द लोग कहते हैं, मेरे पास तो दिल ही नहीं है। उनकी बातों को आप कान न दें, ध्यान न दें।
तो बात पक्की रही ! आप मुझे अपना अमूल्य, बहुमूल्य मत जरूर देंगे और देश का सुहाना भविष्य मुकम्मल करेंगे। खुदा आपको सलमात रखे, कम से कम चुनाव के दिन तक। तो मेरी उम्मीदवारी और आपकी जिम्मेवारी तय रही न –