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मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं : रामधारी सिंह दिनकर



डा श्वेता दीप्ति

दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार

रामधारी सिंह दिनकर एक ऐसे कवि जो हमेशा सान्दर्भिक रहे । बिहार की ही नहीं भारत की शान और हिन्दी साहित्य जगत के सिरमौर दिनकर की आज पुण्यतिथि है । रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम रवि सिंह और माता का नाम मनरूप देवी था. दिनकर के पिता एक साधारण किसान थे और जब दिनकर दो वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी. इसीलिए दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा मां ने किया था. दिनकर का बचपन देहात में बीता, जहाँ दूर-दूर तक फैली खेतों की हरियाली, आम के बाग और कंसास का फैलाव था. प्रकृति की इस सुंदरता का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, शायद इसीलिए उनपर वास्तविक जीवन की कठोरता का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।रामधारी सिंह दिनकर ने राष्ट्रीय भावनाओं से भरे क्रांतिकारी संघर्ष को प्रेरित करने वाली अपनी शक्तिशाली कविताओं के कारण अपार लोकप्रियता हासिल की. उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाना जाता था।उन्होंने ‘मोकामाघाट’ से मैट्रिक (हाईस्कूल) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए. ऑनर्स करने के पश्चात् आप एक वर्ष तक मोकामाघाट के प्रधानाचार्य रहे। सन् 1934 ई. में आप सरकारी नौकरी में आए तथा 1943 ई. में ब्रिटिश सरकार के युद्ध-प्रचार-विभाग में उपनिदेशक नियुक्त हुए। कुछ समय बाद आप मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। 1952 ई. में आपको भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया, जहाँ आप 1962 ई. तक रहे। सन् 1963 ई. में आपको भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया। आपने भारत सरकार की हिंदी-समिति के सलाहकार और आकाशवाणी के निदेशक के रूप में भी कार्य किया। सन् 1974 ई. 24 अप्रैल को आपका निधन हो गया।

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दिनकर जी के साहित्यिक जीवन की विशेषता यह थी कि वे राजनीति में शामिल होने के बावजूद सरकारी सेवा में रहते हुए स्वतंत्र रूप से साहित्य की रचना करते रहे। उनकी साहित्यिक चेतना उसी प्रकार राजनीति से विलग रही जिस प्रकार कमल जल में रहकर भी जल से पृथक रहता है।राष्ट्रकवि रामधारी सिंह का हिंदी के ओजस्वी कवियों में शीर्ष स्थान है।

दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशीष समाज की ले न सका,

उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।

राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत उनकी कविताओं में प्रगतिवादी स्वर भी मुखरित है, जिसमें उन्होंने शोषण का विरोध करते हुए मानवतावादी मूल्यों का समर्थन किया है। वे हिंदी के महान कवि, श्रेष्ठ निबंधकार, विचारक एवं समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं।

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है

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दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

दिनकर जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। उर्दू एवं अंग्रेजी के प्रचलित शब्द भी उनकी भाषा में उपलब्ध हो जाते हैं। संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ-साथ व्यावहारिक भाषा भी उनकी गद्य रचनाओं में उपलब्ध होती है। कहीं-कहीं देशज शब्दों के साथ-साथ मुहावरों का प्रयोग भी उनकी भाषा में मिल जाता है। विषय के अनुरूप उनकी शैली के विविध रूप दिखाई पड़ते हैं। गंभीर विषयों के विवेचन में उन्होंने विवेचनात्मक शैली का प्रयोग किया है तो कवि हृदय होने से उनकी गद्य रचनाओं में भावात्मक शैली भी दिखाई पड़ती है। समीक्षात्मक निबंधों में वे प्राय: आलोचनात्मक शैली का प्रयोग करते हैं तो कहीं-कहीं जीवन के शाश्वत सत्यों को व्यक्त करने के लिए वे सूक्ति शैली का प्रयोग करते हैं।

दिनकर जी को कवि-रूप में पर्याप्त सम्मान मिला। ‘पद्मभूषण’ की उपाधि, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार, द्विवेदी पदक, डी० लिट् की मानद उपाधि, राज्यसभा की सदस्यता आदि इनके कृतित्व की राष्ट्र द्वारा स्वीकृति के प्रमाण । सन् 1972 ई० में इन्हें उर्वशी’ के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया।

मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है

कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन-पुलक जगा कर;

कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से

मन का दीपक बुझा, बनाकर तिमिराच्छन्न ह्रदय को.

किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?

फिर होता संघर्ष तिमिर में दीपक फिर जलाते हैं.

दिनकर जी की सबसे प्रमुख विशेषता उनकी परिवर्तनकारी सोच रही है। उनकी कविता का उद्भव छायावाद युग में हुआ और वह प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि के युगों से होकर गुजरी। इस दीर्घकाल में जो आरम्भ से अन्त तक उनके काव्य में रही, वह है उनका राष्ट्रीय स्वर। ‘दिनकर’ जी राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक रहे हैं। इन्होंने देशानुराग की भावना से ओत-प्रोत, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति की भावना से परिपूर्ण तथा क्रान्ति की भावना जगाने वाली रचनाएँ लिखी हैं। ये लोक के प्रति निष्ठावान, सामाजिक दायित्व के प्रति सजग तथा जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि रहे हैं। कृतियाँ-दिनकर जी की साहित्य विपुल है, जिसमें काव्य के अतिरिक्त विविध-विषयक गद्य-रचनाएँ भी हैं। इनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ—(1) रेणुका, (2) हुंकार, (3) कुरुक्षेत्र तथा (4) उर्वशी हैं। इनके अतिरिक्त दिनकर जी के अन्य काव्यग्रन्थ निम्नलिखित हैं(5) खण्डकाव्य-रश्मिरथी, (6) कविता-संग्रह–(i) रसवन्ती, (ii) द्वन्द्वगीत, (iii) सामधेनी, (iv) बापू, (v) इतिहास के आँसू, (vi) धूप और धुआँ, (vii) नीम के पत्ते, (viii) नीलकुसुम, (ix) चक्रवाल, (x) कविश्री, (xi) सीपी और शंख, (xii) परशुराम की प्रतीक्षा, (xiii) स्मृति-तिलक, (xiv) हारे को हरिनाम आदि, (7) बालसाहित्य-धूप-छाँह, मिर्च का मजा, सूरज को ब्याह। साहित्य में स्थान–दिनकर जी की सबसे बड़ी विशेषता है, उनका समय के साथ निरन्तर गतिशील रहना। यह उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व और ज्वलन्त प्रतिभा का परिचायक है। फलत: गुप्त जी के बाद ये ही राष्ट्रकवि पद के सच्चे अधिकारी बने और इन्हें ‘युग-चरण’, ‘राष्ट्रीय-चेतना का वैतालिक’ और ‘जनजागरण का अग्रदूत’ जैसे विशेषणों से विभूषित किया गया। ये हिन्दी के गौरव हैं, जिन्हें पाकर सचमुच हिन्दी कविता धन्य हुई।

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