क्यों नहीं बन पा रहा है संविधान –
लीलानाथ गौतम:‘नया संविधान निर्माण’ का नारा सुनते-सुनते लोगों में इतनी निराशा पैदा हो चुकी है कि अब वे इस नारा को सुनना भी नहीं चाहते । फिर भी राजनीतिक परिवेश में इस की चर्चा कम नहीं है । ‘माघ ८ गते ही संविधान जारी होगा’ कहते हुए नेता लोग भाषण कर रहे हैं । लेकिन उनको ही अपने कथन के प्रति विश्वास नहीं है । देश, जनता और राजनीति के प्रति उत्सुक नागरिक इस नारा से तंग आ चुके हैं, फिर भी नये संविधान की प्रतीक्षा में हैं । नये संविधान के नाम में वषोर्ं से चल रही राजनीतिक बर्ेइमानी, आश्वासन और धोखाधडÞी ही इसके प्रमुख कारण हैं । यहाँ तक कि कुछ लोग तो कहने लगे हैं- इतने सालों से संविधान न होते हुए भी देश चल रहा है, तो अब संविधान नहीं होने से क्या आकाश गिर जाएगा – फिर भी ‘नया संविधान निर्माण’ सम्बन्धी चर्चा जोरों पर है ।
क्यों नहीं आ पाया संविधान –
इस प्रश्न का एक वाक्य में उत्तर दिया जाए तो नेताओं का व्यक्तिगत स्वार्थ ही इसका प्रमुख कारण है । हाँ संविधान निर्माण के लिए अभी तक जो प्रयास हो रहा है, वह सब व्यावहारिक और यथार्थ के धरातल में आधारित नहीं है । संविधान निर्माण के नाम में जितना भी क्रियाकलाप हो रहा है, उन में से कितने तो विधिसम्मत भी नहीं हैं । उदाहरण के लिए संविधानसभा के भीतर बहस करने से निर्ण्ाायक बनने वाले कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनको कुछ नेता रिसोर्ट में जाकर बहस करते हैं । पहली संविधानसभा की तरह इस बार भी वही गलती दुहर्राई जा रही है, जिसके कारण पहली सभा उपलब्धिहीन साबित हर्ुइ थी ।
दूसरी बात, राज्य पर्ुनर्संरचना सम्बन्धी सोच और क्रियाकलाप उलटा ढंग से हो रहा है । अर्थात् राज्य पुनसंरचना के आधार क्या हैं और उस राज्य में रहने वाले नागरिक कैसे अधिकार सम्पन्न हो सकते हंै – बहस इस पर केन्द्रित होना चाहिए था । लेकिन संघीय राज्य की संख्या कितनी बनाई जाए और नामकरण कैसे किया जाए – इस तरह के गौण मुद्दे में राजनीतिक दल विभाजित होकर बहस में संलग्न हैं और सहमति नहीं जुटा पा रहे हैं । अर्थात् दलों का ऐसा ही रवैया संविधान निर्माण के लिए बाधक सिद्ध हो रहा है । पहचान के नाम में किसी जाति और समुदाय विशेष पर जोरÞ देनेवाले कुछ पक्ष हैं तो दूसरे पक्ष उसे स्वीकार करने की मनःस्थिति में नहीं हैं । इन्हीं परस्पर विरोधी दो विपरीत ध्रुवों के बीच चल रहा संर्घष्ा ही संविधान निर्माण के लिए बाधक बनता जा रहा है ।
इतना ही नहीं, दूसरे संविधानसभा के निर्वाचन के बाद निर्मित शक्ति सन्तुलन भी समस्या के रूप में दिखाई दे रही है । संविधानसभा को अपना एजेण्डा दावा करने वाले पहचानवादी पक्षधर दूसरे संविधानसभा में कमजोर साबित हुए हैं । उन लोगों की पराजित मानसिकता और राजनीतिक हठधर्मिता के बीच सन्तुलन नहीं होने के कारण भी पहचान पक्षधर शक्ति वास्तव में क्या चाहती है, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है । परस्पर विरोधी विचार और शक्ति समूह के रूप में परिचित एमाओवादी नेतृत्व के २२ दलीय मोर्चा और उसकी गतिविधि इस तथ्य को साबित करती है । उधर पहचान का मुद्दा जनता से पराजित हो चुका है, कहते हुए पुराने संसदवादी शक्ति अपने दम्भ पर खडÞी हैं । संविधान निर्माण कार्य इन्हीं दो शक्तियों के मुठभेडÞ में गुम हो गया है ।
दूसरी तरफ नेपाल को पुनः हिन्दू राज्य बनाना चाहिए, इस मांग को लेकर देशव्यापी आन्दोलन हो रहा है । जिस के कारण संसद की सबसे बडÞी और सत्ता को नेतृत्व प्रदान करने वाली नेपाली कांग्रेस में भूचाल आ गया है । इससे पहले यह मांग सिर्फराप्रपा नेपाल की ही थी, लेकिन अभी नेपाली कांग्रेस के भीतर रहे कुछ नेता तथा सभासद् भी इस मुद्दा को लेकर जागरुक हो गए हैं । ऐसे कांग्रेस नेताओं ने यहाँ तक चेतावनी दी है कि भावी संविधान में नेपाल हिन्दूराष्ट्र घोषित नहीं होने पर देश में व्रि्रोह की आग भडÞक उठेगी और नेपाली कांग्रेस पार्टर्ीीी उस आग की लपेट में आ सकती है । बहुसंख्यक हिन्दू बसने वाले इस देश में उठ रहा यह मुद्दा आसानी से खत्म होने वाला भी नहीं है । अन्य विषयों में सहमति होने पर भी यह मुद्दा -हिन्दू राष्ट्र नेपाल) इस तरह उठने पर सत्ता नेतृत्वदायी पार्टर्ीीी संविधान जारी करने से पहले दो बार सोचने के लिए बाध्य हो सकती है ।
गलत क्रियाकलाप
हर नागरिक का अधिकार कैसे सुरक्षित हो सकता है, इस बात को लेकर संविधानसभा में बहस होनी चाहिए, लेकिन विशेष जाति, भाषा और समुदाय का अधिकार को लेकर नेता लोग रिसोर्ट मंे बहस करते हैं । इसी बहस में केन्द्रित रहकर राज्य की संघीय संरचना निर्माण करने की बात होती है । अपना व्यक्तिगत राजनीतिक भविष्य सुरक्षित रखने के लिए और हो सके तो भावी मुख्यमन्त्री बनने के सपनो को साकार करने के लिए नेता लोग संघीय मोडेल की बात चलाते हैं । इसीलिए संघीय संरचना की संख्या और इसका नक्सांकन बार-बार फेरबदल होता आ रहा है । इससे स्पष्ट होता है कि ऐसी बहस से सिर्फनेता लाभान्वित हो सकते हैं, नागरिक नहीं । आज जो पीडित हैं और सत्ता से जिनको ढÞेर सारी शिकायतें हैं, कल बनने वाले संघीय राज्य के शासक के समक्ष भी उनकी पीडÞा और शिकायत वैसी ही रह जाएगी तो देश को संघीय स्वरूप में ले जाने की क्या आवश्यकता है – अर्थात् जैसी व्यवस्था आने पर भी देश में सिर्फगिनेचुने कुछ व्यक्ति ही लाभान्वित होते रहेंगे और सीमान्तकृत जनता पीडिÞत हीं रहेगी तो ऐसे परिवर्तन का क्या अर्थ हुआ –
ऐसी पृष्ठभूमि में संविधान निर्माण के नाम में हो रही कुछ गतिविधियाँ भी विधिसम्मत नहीं दिखाई देती । उदाहरण के लिए संवैधानिक राजनीतिक संवाद तथा सहमति समिति को ले सकते हैं । जहाँ परस्पर दो विपरीत विचारधारा वाली राजनीतिक शक्ति और राष्ट्रीय विखण्डन की अभिव्यक्ति देने वाले को भी समावेश कर संविधान बनाने का प्रयास किया जा रहा है । जो हवा में महल बनाने जैसा ही है । हाँ, ऐसे लोग भी बहस में सहभागी किए जा सकते हैं, लेकिन उससे पहले राष्ट्रीयता, र्सार्वभौमिकता, नागरिक अधिकार, अन्तर्रर्ाा्रीय सम्बन्ध तथा संविधान के मूलभूत आधार क्या हैं – इसका निर्ण्र्ााहो जाना चाहिए । लेकिन उससे पहले ही ऐसे तत्वों से बहस करने का मतलव सिर्फसमय गंवाना है । इसीलिए गणतन्त्र के कट्टर विरोधी चित्रबहादुर केसी ही नहीं, इतिहास बन चुका राजतन्त्र वापस लाने का सपना देखने वाले कमल थापा और नेपाल को ही खण्डित कर अलग देश बनाने का ख्वाव देखने वाले सीके राउत के साथ समिति के संयोजक डा. बाबुराम भट्टर्राई द्वारा किया गया वार्तालाप कोई भी मायने नहीं रखता । इसीलिए वर्तमान पर्रि्रेक्ष्य में संविधान निर्माण के लिए परस्पर विरोधी सभी शक्तियों का समावेश होना चाहिए, ऐसी मानसिकता ही गलत है । जिसके कारण संविधान निर्माण कार्य और विलम्बित हो जाएगा । अगर सच में ही सभी राजनीतिक शक्ति को समेटकर उनकी भावना को भावी संविधान में प्रतिनिधित्व करना चाहेंगे तो संविधानसभा के लिए चौथी बडÞी शक्ति कमल थापा की मांग को भी सम्बोधन करते हुए राजसंस्था पुनःस्थापित करना पडÞेगा, चित्रबहादुर केसी के अनुसार संघीयता सम्बन्धी मुद्दा भी खारेज होना चाहिए । क्या अपने को बडÞे और र्सर्वेर्सवा कहलाने वाले कांग्रेस, एमाले, एमाओवादी और मधेशवादी दल इस में सहमत हो सकते हैं – अगर सहमत हो सकते हैं तो ०४७ साल के ही संविधान को पुनर्स्थापित करने में क्या हर्ज है – अगर नहीं तो ऐसे तत्वों के साथ बहस करके क्यों समय बर्बाद किया जा रहा है –
सिर्फथापा और केसी जैसे लोगों द्वारा उर्ठाई गई मांग ही नहीं, भविष्य में उठने वाले सवाल को भी सम्बोधन करते हुए संविधान निर्माण होना चाहिए, यह आज की आवश्यकता है । उसके लिए कोई भी विचारधारा लेकर चलने वाली पार्टर्ीीगर निश्चित प्रक्रिया के माध्यम से बहुमत में आ सकती है तो उसको संविधान संशोधन करने का हक होना चाहिए, जिसकी ग्यारेन्टी संविधान में ही होनी चाहिए । अगर ऐसी व्यवस्था करेंगे तो कमल थापा बहुमत लाकर राजसंस्था पुनर्स्थापित कर सकते हैं और चित्रबादुर केसी संघीयता को खारिज कर सकते हैं । जो राजतन्त्र का नाम सुनने के लिए तैयार नहीं हैं और जिन्होंने गणतन्त्र एवं संघीयता के लिए अपना सारा जीवन कर्ुवान किया है, वे ऐसी बात पर राजी नहीं हो सकते हैं । लेकिन सभी मांग को सम्बोधन करने का सबसे सरल उपाय यही है । शायद प्रजातन्त्र भी इसी को कहते हैं । यह बात जानते हुए भी हमारे नेता लोग इस बात को स्वीकार करने से डÞरते हैं । ताकि भविष्य में उनकी व्यक्तिगत राजनीति खत्म न हो जाए ।
क्या कर सकते हैं –
संविधान बनाना ही चाहते हैं तो प्रक्रिया में जाने के लिए विलम्ब नहीं करना चाहिए । स्मरणीय है- प्रक्रिया को अस्वीकार करनेवाले राजतन्त्रवादी कमल थापा और गणतन्त्र विरोधी चित्रबहादुर केसी नहीं हैं । उन लोगों ने तो कहा है कि संविधासभा से बहुमत द्वारा पारित संविधान उन को स्वीकार्य है । लेकिन ऐसा करने में मुख्य बाधक के रूप में अभी एमाओवादी और मधेशवादी दल दिख रहे हैं । एमाओवादी और मधेशवादी दल के नेता में डर है- अगर प्रक्रिया में जाएंगे तो कांग्रेस-एमाले हमारी कोई भी बात नहीं सुनेगी और संविधान में अपना मुद्दा भी मजबूत नहीं हो सकेगा । इसीलिए एमाओवादी और मधेशवादी दल के लिए पहचान का मुद्दा उनके राजनीतिक भविष्य के साथ जुडÞा हुआ है । इतना ही नहीं, पहचान का मुद्दा खत्म होने पर वे अपने व्यक्तिगत राजनीतिक भविष्य का भी अन्त देखते हैं । इसीलिए वे कांग्रेस-एमाले द्वारा निर्माण होने वाले सम्भावित संविधान से डर रहे हैं ।
इधर कांग्रेस-एमाले को भी डर है कि एमाओवादी और मधेशवादी दलों के मतानुसार संविधान निर्माण किया जाए तो संविधान में सिर्फवे ही लोग हावी होंगे और उसके बाद कांग्रेस-एमाले का राजनीतिक भविष्य धाराशायी हो सकता है । इसीलिए कांग्रेस-एमाले ने भौगोलिक नामकरण सहित ६ या ७ प्रदेश के संयुक्त अवधारणा भी र्सार्वजनिक किया है । हाँ, यह भी माना जा सकता है कि माओवादी और मधेशी दलों के अनुसार पहचान सहित का संघीय संविधान जारी हो जाएगा तो पहचान विरोधी दल के रूप में परिचित कांग्रेस-एमाले का राजनीतिक आधार इलाका भी समाप्त हो जाएगा । इसकी चिन्ता कांग्रेस-एमाले के नेताओं में व्याप्त हैं । विभिन्न दल के नेताओं के मन में रहे ऐसे ही त्रास के कारण संविधान निर्माण कार्य प्रभावकारी रूप से आगे नहीं बढÞ पा रहा है । विवादित विषय में सहमति जुटाने के लिए गठित संवाद समिति की समयावधि बारम्बार पुनरावलोकन होने के पीछे भी यही कारण है । संक्षेप में, सम्भावित भावी संविधान को लेकर सभी दल के सभी नेताओं में त्रास व्याप्त है । जब तक उन लोगों में ऐसा त्रास रहेगा, तब तक संविधान निर्माण कार्य आगे नहीं बढÞ पाएगा ।
परम्परागत शक्ति कांग्रेस-एमाले द्वारा प्रस्तावित राज्यपर्ुनर्संरचना सम्बन्धी प्रस्ताव और परिवर्तनकारी शक्ति एमाओवादी-मधेशवादी दल द्वारा प्रस्तावित राज्यपर्ुसंरचना सम्बन्धी प्रस्ताव का दूरगामी प्रभाव कैसा रहेगा – यह विश्लेषण का अलग मुद्दा है । लेकिन दोनों पक्ष द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव को लेकर एक-आपस में त्रास व्याप्त है- कहीं इससे मेरा राजनीतिक भविष्य तो समाप्त नहीं हो जाएगा – याद रहे, उन लोगों की चिन्ता सम्भावित संविधान का दूरगामी प्रभाव देश और जनता में कैसे रहेगा, इस ओर नहीं है । अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित हो सकता है कि नहीं, इस मानसिकता से ग्रस्त होकर नेता लोग राज्यपुनर्संरचना, शासकीय स्वरूप, न्यायप्रणाली तथा निर्वाचन प्रणाली के विषय में संविधानसभा के बदले रिसोर्ट में जाकर बहस का नाटक कर रहे हैं । अगर वास्तव में संविधान बनाना चाहते हैं तो ऐसी मानसिकता और क्रियाकलाप को भी त्याग करना चाहिए ।
अब तो तय है कि निर्धारित तिथि माघ ८ गते संविधान जारी होना सम्भव नहीं है । ऐसी ही राजनीतिक अवस्था कायम रहेगी तो आगामी वर्ष-०७२ के माघ ८) में भी संविधान जारी नहीं हो पाएगा । मुख्य बात तो यह है कि दलों के बीच आपसी त्रास और आशंका कायम रख कर आगे बढेंगे और प्रक्रिया में जाने से भी राजी नहीं होंगे तो कभी भी संविधान निर्माण नहीं हो सकेगा । परिणामतः पहले की तरह ही बिना उपलब्धि संविधानसभा अन्त हो जाएगा ।
इसीलिए संविधान जारी करना है तो विवादित विषयों को समेट कर मसौदा निर्माण करके उसके पक्ष/विपक्ष में वोटिंग के लिए संविधानसभा में ले जाना ही होगा । याद रहे, किसी भी हांल में विवादरहित और र्सवसम्मत तरीके से संविधान जारी नहीं हो सकेगा । इस यथार्थ को मनन करके सभी दल बहुमतीय प्रक्रिया में जाने को तैयार रहना चाहिए । तभी संविधान जारी हो पाएगा । सिर्फसहमति को रटते रहेंगे तो राजतन्त्र पुनर्स्थाना और संघीयता खारेज करने के लिए भी तैयार रहना पडÞेगा । बहुमतीय प्रक्रिया में जाएंगे तो कम से कम परिवर्तन विरोधी माने जाने वाली शक्ति पराजित हो सकती है और संविधान भी जारी हो पाएगा । नहीं तो पहले की तरह बिना उपलब्धि संविधानसभाका मृत्यवरण ही प्रतीक्षा का विषय रहेगा । खैर ! अन्तिम निर्ण्र्ाातो नेताओं के हाथ में है हीं ।