गोपाल सिंह नेपालीः साहित्य से सिनेमा तक : राजेन्द्र परदेसी
राजेन्द्र परदेशी, हिमालिनी अंक अगस्त 024 । जब कोई व्यक्ति समय और समाज में सामान्य से ऊपर उठकर विशिष्ट बन जाता है तब वह अपनी कृति और कीर्ति से समाज को प्रभावित करने लगता है और समाज भी उसकी चेतना के विस्तार में निरंतर सहयोगी बनता जाता है । इस प्रकार रचनाकार सामाजिक स्वीकृति और समर्थन से अपने व्यक्तित्व में निखार लाता है और समाज के लिए उपादेय बनता है । उसकी यही उपादेयता हर काल और परिस्थिति में उसे जीवंतता प्रदान करती है और वह रचनाकार आमजन के बीच अपनी स्थायी पहचान बनाकर कालजयी बन जाता है । कबीर, तुलसी, प्रेमचंद, निराला, नागार्ज‘न, दिनकर इत्यादि कवियों की एक सुदीर्ध श्रृंखला का निर्माण इन्हीं संदर्भों में हुआ और जिसकी प्रासंगिकता निरंतर बढ़ती ही गई । समय की सीमाओं में सिमट कर उनका व्यक्तित्व कभी संकुचित नहीं हुआ । हिन्दी साहित्य के छायावादोत्तर काल के कवियों में गोपाल सिंह नेपाली भी इन्हीं कालजयी कवियों की श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी हैं, जो बिहार की वरेण्य वसुधा पर गीतों की एक नयी परम्परा को जन्म देकर विद्यापति, दिनकर, नागार्ज‘न की काव्यधारा के साथ–साथ महेन्द्र मिश्र और भिखारी ठाकुर की लोक परम्परा को विकसित करने में अहम् भूमिका प्रस्तुत किया ।
गोपाल सिंह नेपाली का नाम साहित्य क्षेत्र में सन् १९२७–३० के बीच उस समय उभरा, जब छायावादी कविता का परिपक्व स्वरूप हिन्दी में उभरकर आ चुका था और साहित्य के क्षितिज पर उससे जुड़े संस्कारों का साहित्य ही अधिक सशक्त एवं सक्रिय बना हुआ था । नेपाली इसी छायावादी संस्कारों के बीच गीतों की नयी सर्जनात्मकता द्वारा अपने व्यक्तित्व को विराट बनाने का आरम्भिक प्रयास किया, जो बाद में चलकर उनके नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का परिचायक बना । कविता में लोकभाषा के शब्दों को पिरोकर उसमें माधुर्य और मासूमियत लाने के माध्यम से गीत में एक नये प्रयोग को जन्म दिये और गीतात्मक लय में बांधकर उसे लोकग्राही बनाने में उन्होंने सफलता प्राप्त किया । इस प्रकार गोपाल सिंह नेपाली ने छायावादी संस्कारों के बीच कविता की एक नयी धारा को जन्म दिया । जिसका कथ्य यथार्थता से गहरा सरोकार रखने वाला था ।
छायावाद की कोमलकांत पदावली से मुक्त करके यथार्थोन्मुख बनाकर गीतों के नये सांचे में ढालने का प्रयास किया । उन्होंने कल्पना और यथार्थ के बीच एक ऐसा संतुलन स्थापित किया, जो छायावाद की कविता से जुड़कर भी उससे अलग अपनी निजी पहचान प्रस्तुत करके पूर्णतः नवीन था । कविता यथार्थोन्मुख आदर्श में युगबोध से अनुप्राणित अपना नया स्वरूप धारण करती हुई नेपाली को आम आदमी से जोड़कर जनमन का अमर गायक बनाने का श्रेय हासिल करती गई, प्रगतिवादी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से अलग होकर नेपाली प्रगतिशील रचनाकार की भूमिका में साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए आम आदमी के बीच आदरणीय और अनुकरणीय बनते गए । लोग उनके गीतों से प्रभावित होकर स्वतः करीब आते गए तथा आत्मसात करते हुए अपने अधरों पर गीतों को उतारने लगे । इन्हीं विशेषताओं से नेपाली आम आदमी के बीच भी खास बनते गए और उनके गीतों का अविरल प्रवाह सहज गति से बढ़ता गया ।
गोपाल सिंह नेपाली का जन्म ११ अगस्त १९११ को बिहार की उर्वर धरती पर कालीबाग दरबार (नेपाली रानी महल) बेतिया (पश्चिमी चम्पारण) में हुआ था । इनके पिता का नाम रेलबहादुर सिंह था । जो गोरखा राइफल में हवलदार मेजÞर थे । इनका विवाह वीणा रानी नेपाली से हुआ था । जो नेपाल सरकार के गुरू पुरोहित पंडित विक्रमराज की पुत्री थी । अल्पवय में ही नेपाली की माता सरस्वती देवी का निधन हो गया था । इनकी विमाता भी इन्हें छोड़कर अपने भाई के साथ वर्मा चलीं गयी और कभी वापस नहीं आयी । बचपन में मां के बिछुड़ जाने के बाद नेपाली की जिन्दगी अस्थिर हो गयी । सैनिक पिता के साथ देहरादून, मसूरी अफगानिस्तान और पेशावर की सैनिक छावनियों में नेपाली और उनके छोटे भाई बंब बहादुर पलते रहे । इन हालातों में इनकी शिक्षा–दीक्षा की कोई नियमित–समुचित व्यवस्था नहीं हो पायी, विपरीत परिस्थितियों में जैसे–तैसे समय काट रहे गोपाल सिंह नेपाली का विकास थम–सा गया । मातृ–स्नेह से वंचित नेपाली का जीवन दुर्भाग्यपूर्ण बनता गया और यायावर की जिन्दगी जीने के लिए वे मजबूर हो गये । यही कारण है उनकी शिक्षा प्रवेशिका से अधिक हो नहीं सकी । सन् १९२६ में मिडिल स्कूल तथा १९३२ में बेतिया राज हाई स्कूल बेतिया से प्रवेशिका तक शिक्षा अर्जित कर सके । आरम्भ में इनका नाम गोपाल बहादुर सिंह था । जो बाद में गोपाल सिंह नेपाली हो गया । नेपाली परिवार के होने के कारण इनके नाम के साथ नेपाली उपनाम जुड़ गया । इनका जन्म कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ था । इसलिए इनके पिता ने इनका नाम गोपाल रख दिया ।’प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच गोपाल सिंह नेपाली एक यायावर की भांति जहाँ–तहाँ जिन्दगी के एक–एक क्षण को ढोते रहे । अभाव और अकेलापन के बावजूद मस्तमौला स्वभाव होने के कारण नेपाली की मनीषा कभी कुंठित नहीं हुई और उनकी कारयित्री प्रतिभा ने सर्जनात्मक मोड़ ले लिया ।
काव्य प्रतिभा के धनी गोपाल सिंह नेपाली का बचपन सैनिक पिता के संग मसूरी, देहरादून के मुख्य प्रकृतिक परिवेश में तथा बेतिया के बन–बीहड़ों के बीच घाटियों–निर्झरों की शीतल स्वर काकली से गुंजित प्रकृति की गोद में किशोर और किशोरोपरान्त जवान हुआ । यही कारण है कि उनकी कविता प्राकृतिक सुषमा की सतरंगी छटाओं से आपूरित मोहक छवियों में आकारित हुई, दृष्टव्य है–
पीपल के पत्ते गोल–गोल
कुछ कहते रहते डोल–डोल
यह लघुसरिता का बहता जल
कितना शीतल कितना निर्मल
देहरादून के मधुर बेर
जंगल में मिलते ढेर–ढेर
जैसी कविताओं का सृजन प्रकृति के साथ कवि के अन्तर्मन के गहरे लगाव को दर्शाते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि सौंदर्य के प्रति नेपाली के मन में जो आकर्षण था । उसके पीछे प्रकृति ही प्रेरक रही । स्वयं नेपाली ने भी यह स्वीकार किया है–सुरम्य हरियाली की गोद में फौजी छावनी टिकी हुई है । सुबह–शाम सैनिकों की कवायद होती है । बैंड और पाइप बजते हैं और हवा में नंगी–नंगी संगीनें–चमकती हैं । सामने तुलसीदासजी की रामायण खुई हुई है और किर्चे साफ हो रही हैं । वहाँ गांधी और टालस्टाय को कोई नहीं जानता । दुनिया गेंदे की तरह फूलती है और हमेशा टंगी ही रहती है । इसी के चारों ओर खेत हैं, वन हैं, नदी–नाले हैं और पहाड़–पहाडि़याँ हैं । कोई सहृदय प्रकृति प्रेमी यदि वहाँ पहुँच जाय तो आगे के लिए वह अपनी दिनचर्या ऐसी बनाएगा कि सबकी आँख बचाकर रोज वहाँ पहुँच जाया करे । यह हरी–हरी दूब की महिमा है कि आज मेरे हाथ में बन्दूक के बदले लेखनी है–(रागिनी–१९३५) । प्रकृति के प्रभाव में गोपाल सिंह नेपाली की कविता का सहज विकास होता रहा, किन्तु उनकी कविता वन–प्रान्तरों में ही अटकी नहीं रही । प्रकृति का इतना बड़ा प्रेमी कवि मानवीय संवेदनाओं को भी अपनी कविताओं का आधार बनाया और वस्तुपरक गीतों की रचना करके अपने को जन–मन का गायक बनने का गौरव प्राप्त किया । सामाजिक सरोकारों से युक्त नेपाली संवेदनाओं के सत्य को स्वीकार करते हुए मानव–मूल्यों को सर्जनात्मकता के केन्द्र में रखकर उसे वस्तुपरक बनाने की दिशा में निरंतर क्रियाशील रहे ।
गोपाल सिंह नेपाली की काव्य–यात्रा की शुरूआत सन् १९३२ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सभागार के काव्यमंच से हुई । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अभिनंदन समारोह के अवसर पर विराट कवि–सम्मेलन का आयोजन था । जिसमें दरभंगा नरेश, काशी नरेश, ओरछा नरेश और हथुआ नरेश की उपस्थिति में मैथिलीशरा गुप्त, शिवपूजन सहाय, श्यामसुन्दर दास, निराला इत्यादि साहित्य के महारथी भी मंचासीन थे । ११५ कवियों में मात्र १५ कवि काव्यपाठ के लिए चयनित हुए । उसमें नेपाली को भी जगह मिली । नेपाली का यह पहला अवसर था जब काव्यमंच पर उन्हें काव्य–पाठ के लिए आमंत्रित किया गया । जीवन में पहली बार उन्होंने काव्य पाठ किया और सबसे अधिक चर्चा के विषय निपाली ही बने । उसी दिन से नेपाली साहित्य की दुनिया में कदम रखकर निरंतर आगे बढ़ते रहे और स्थायी पहचान बनाते हुए नया कीर्तिमान स्थापित किया ।
साहित्य सफर के साथ ही नेपाली के जीवन में एक नया मोड़ आया और वे पत्रकारिता को अपनी अभिव्यक्ति का एक अहम् माध्यम बना लिये । यो तो वे सन् १९३२ से ही प्रभात (हस्तलिखित पत्रिका, बेतिया) का सम्पादन प्रारम्भ कर चुके थे ।’दि मुरली’ अंग्रेजी की टाइपयुक्त पत्रिका भी उनके द्वारा सम्पादित किया जाता रहा । कुछ समय तक वह ‘मासिक सुधा’ के सम्पादन विभाग में भी कार्य किये । उसके बाद वह ‘ऋषभचरण जैन के सम्पर्क में लखनऊ और दिल्ली में रहकर पत्रकारिता से जुड़े । सन् १९३४ में फिल्म पत्रिका ‘चित्रपट’ और सन् १९३५ में ‘रतलाम टाइम्स’ (मध्य प्रदेश) का सम्पादन किया । सन् १९३९ में वह पटना आ गये और ब्रजशंकर वर्मा के साथ साप्ताहिक ‘योगी’ का सम्पादन करने लगे । उसमें वह ‘बाबा बौड़मदास’ के नाम से ‘गोलघर के मुडेÞरे से’ स्तम्भ लिखा करते थे । इस प्रकार एक लम्बे समय तक वह हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े रहे और हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा और दृष्टि देते रहे । पत्रकारिता की दुनिया में आने से उनको साहित्यिक अभिव्यक्ति का अच्छा अवसर मिला । इससे आमजन के बीच उनकी एक स्थायी और प्रभावशाली जगह बनी ।
गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं प्रकृति की गोद में अवश्य ही जन्म ली थीं, किन्तु चेतना के क्षणों में वह जीवन के विविध क्षेत्रों में बहुत दूर तक गई और बड़ी गहराई तक जाकर जीवन–यथार्थ की पड़ताल करने में समर्थ और सफल हुई । प्रकृति–प्रेम के साथ–साथ मानव जीवन के विविध पहलुओं को नेपाली ने अपनी कविता में स्थान दिया है । स्वतंत्रता पूर्व से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आजाद हिन्दुस्तान की तस्वीर को अनेक कोणों से निहारते हुए अलग–अलग संदर्भों में चित्रित किया । चूंकि प्रेम जीवन का एक महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य पक्ष है, इसलिए उनकी कविता में प्रेम के आकर्षक एवं मनोरम चित्रों की असरदार भूमिका देखने को मिलती है–
किन्तु देव कब समझोगे–
है यही स्वर्ग जीवन संसार
यही पुण्य है एक जगत का
उतरेंगे इससे ही पार ।
जीवन में प्रेम की महत्ता और अनिवार्यता को समझते हुए गोपाल सिंह नेपाली ने उसके अनेक पक्षों का चित्रण अपने गीतों में किया है । रूप–सौंदर्य में, श्रृंगार, विरह–मिलन, प्यास, दरस–परस की आकुलता अभिव्यक्ति के स्तर पर गीतों में इन्द्रधनुषी रंग बिखेरती हुई मानव–मन को सम्मोहित करती है–
ओ मृगनैनी ओ पिक बैनी, तेरे सामने मधुर बसुरिया झूठी है
अंग–अंग में इतना रंग भरा, रंगीन चुनरिया झूठी है,
है दरस–परस इतना शीतल, शरीर नहीं है शबनम है,
तेरा मुखड़ा इतना गोरा, बिना चांद का पूनम है ।
अलके पलकें इतनी काली, घनस्याम बदरिया झूठी है ।
जीर्ण–क्षीर्ण मूल्यों को खारिज करते हुए सामाजिक विदू्रपताओं के प्रति भी कवि का आक्रोश कविताओं में देखने को मिलता है और समग्रक्रान्ति की बात उठाते हुए सच्चाई को बड़े बेबाक ढंग से उपस्थित करने में नेपाली साहस का परिचय देते हैं । संवेदना और अर्थ की सत्ता के बीच के द्वन्द को बड़े सख्त होकर वह कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं–
तुम–सा लहरों में वह लेता, तो मैं भी सत्ता गह लेता,
ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता,
तू दलबंदी पर मरे, यहाँ लिखने में तल्लीन कलम
मेरा धन स्वाधीन कलम
सामाजिक रूढि़यों, कुरीतियों, विद्रूपताओं, विषमताओं और विसंगतियों का विरोध करते हुए एक ऐसे भारत के निर्माण की कल्पना नेपाली के मन में जन्म लेती रही, जिसमें हर आदमी को सुखी–स्वतंत्र होकर सम्मान पूर्वक जीने की संभावना सन्निहित थी–
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो
अब घिस गई समाज की तमाम नीतियाँ
अब घिस गई मनुष्य की अतीत–रीतियाँ
है दे रही चुनौतियाँ, तुम्हें कुरीतियाँ
निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो ।
अलग–अलग संदर्भों में अलग–अलग समयों में गीतों की रचना करने वाले गोपाल सिंह नेपाली की सात काव्य–कृतियाँ प्रकाशित हुई–उमंग (१९३३), पंछी (१९३४), रागिनी (१९३५), पंचमी (१९४२), नवीन (१९४४), नीलिमा (१९४४), हिमालय ने पुकारा (१९६३) अप्रकाशित रचनाओं में हम तरूवर की चिडि़या रे, दो हमारे नयनःदो तुम्हारे नयन, नौ लाख सितारों ने लूटा, तूफानों को आवाज दो, प्रमुख हैं । इनके असंख्य गीत पत्र–पत्रिकाओं की धरोहर हैं । खासकर धर्मयुग में उनके गीतों को सर्वाधिक स्थान मिला ।
सन् १९४४ में उनकी जीवन–यात्रा साहित्य–जगत से निकलकर सिनेमा जगत में प्रवेश कर गयी । मुंबई में आयोति एक कवि सम्मेलन में मंच से काव्य–पाठ कर रहे गोपाल सिंह नेपाली के असरदार गीतों ने फिल्म निर्माण की संस्था फिल्मीस्तान के कन्ट्रोलर आफ प्रोडक्शन एस. मुकर्जी को सम्मोहित कर लिया और उन्होंने नेपाली को फिल्मीस्तान स्टूडियों के लिए बतौर गीतकार नियुक्त कर लिया । फिर तो नेपाली की दुनिया ही बदल गयी और वह फिल्मों के ही हो गये ।
फिल्म जगत में नेपाली ने अपने गीतों से सिनेमा संसार को काफी समृद्ध किया । लगभग द्धछ फिल्मों में उन्होंने गीत लिखे, जिसमें ‘मजदूर’ उनकी पहली थी ।’मजदूर’ फिल्म के संवाद लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क थे । नेपाली द्वारा लिखे गए ‘मजदूर’ फिल्म के लगभग सभी गीत हिट होकर काफी लोकप्रिय हुए । जिस पर बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने उन्हें उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार दिया । लगभग ४५ फिल्मों में उन्होंने ३००–४०० गीतों की रचना की जिसमें अधिकांश गीत लोकप्रिय हुए । मजदूर, सफर, नागपंचमी, नागचम्पा, बेगम, राजकन्या, शिवभक्त, तुलसीदास आदि फिल्मों में उनके द्वारा रचित गीतों से सिनेमा जगत में नेपाली का कद काफी ऊँचा हुआ । हिमालय फिल्मस तथा नेपाली पिक्चर्स के वह निर्माता–निर्देशक भी रहे । उनके द्वारा निर्देशित एवं निर्मित तीन फिल्में ‘नजÞराना’, सनसनी और खुशबू हिन्दी फिल्म के लिए मील का पत्थर बना । फिल्मों के लिए गीत लेखन में उन्होंने नये–नये प्रयोग किये, देशजÞ शब्दों जैसे–अंगना, नजरिया, चुनरिया, डगरिया, बदरिया का प्रयोग करके हिन्दी गीतों की लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाये । फिल्म जगत में प्रवेश के बाद गोपाल सिंह नेपाली की जिन्दगी का आर्थिक पक्ष मजबूत तो हुआ, किन्तु साहित्य संसार से उनके रिश्ते कमजोर हो गए । फिल्म जगत में नये–नये शौक परवान चढते गए । जिससे उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा । साहित्य जगत से रिश्ते टूटने से वे चिन्तित भी हुए । साहित्यकारों के बीच घटती लोकप्रियता के मद्देनजÞर सन् १९५९ में वह फिल्मों से अलविदा ले लिये ।
फिल्मों से साहित्य जगत में वापसी के बाद वह स्वतंत्र लेखन, जनजागरण, मंचों पर काव्य–पाठ करने के साथ चीन आक्रमण के समय ‘वन मैन आर्मी’ की भूमिका में अपने उद्बोधन गीतों से जनता को संगठित करने में सक्रिय हो गये । इसी समय ‘हिमालय ने पुकारा है’ शीर्षक कविता में इतिहास बोध को दोहराते हुए नेपाली ने जनता में जागृति लाने के लिए निम्नपंक्तियाँ लिखी–
इतिहास पढ़ो, समझो तो यह मिलती है शिक्षा
होती न अहिंसा से कभी देश की रक्षा,
क्या लाजÞ रही जब मिली प्राण की भिक्षा
यह हिन्द शहीदों की अमर देश है प्यारा
चालीस करोड़ को हिमालय ने पुकारा
साहित्य से सिनेमा तक के लम्बे सफर को तय करके नेपाली ने युग को बड़ी गहराई से जाँचा–परखा और खट्टे–मीठे अनुभवों से गीतों में ऐसी ताजÞगी भर दी, जिससे आज तक वे गीत बासी नहीं हुए । काव्य–मंचों पर जागरण का गीत गा–गाकर देश की जनता को जगाने वाले गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली १७ अप्रैल १९६३ को आखिरी काव्य–संध्या में भाग लेकर एकचारी गांव से ट्रेन द्वारा भागलपुर वापस आते समय भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर दो पर अचानक हृदयगति रूक जाने के कारण स्वयं ही चिरनिद्रा में सो गए । उनके लोकांतरण के लगभग पांच दशक बीत गये । किन्तु उनके गीत आज भी आवाज दे रही है । उनकी स्मृति को समर्पित है उन्हीं की काव्य पंक्तियाँ–
दूर जाकर न कोई इशारा करे
मन दुबारा–तिबारा पुकारा करे ।