Wed. Dec 4th, 2024

अजयकुमार झा, हिमालिनी अंक ऑक्टोबर 024 । अदूरदर्शिता और उधार बौद्धिकता के सागर नेपाली राजनेता और पराश्रित तथाकथित थिंकटैंक के हठधर्मिता के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक प्रणाली का विकास हुआ और जिस प्रकार बन्दर के हाथों में नारियल जैसा हश्र नेपाल के संविधान और नेपालियों के अस्तित्व का होता दिख रहा है; यह अत्यधिक चिंतनीय और गंभीर विषय है । देश मात्र भौगोलिक सीमारेखा में ही सीमित नहीं रहता । उस सीमारेखा भीतर रह रहे नागरिक के सांस्कृतिक आस्था, सामाजिक संरचना, वैचारिक आदर्श, व्यवहारिक माधुर्य, ऐतिहासिक गौरव, वंशानुगत गरिमा, धार्मिक सहिष्णुता, आध्यात्मिक सूक्ष्मता और जीवन के परम उद्देश्य से संपोषित और संरक्षित संस्कार भी रहते हैं । इन सभी का समिश्रित और संतुलित स्वरूप ही किसी भी देश और राष्ट्र की असली पहचान होती है । उपर्य‘क्त तत्वों से शून्य सीमाक्षेत्र को देश नहीं कहा जा सकता । जरा विश्व इतिहासको पलटकर देखिए; अबतक जितने भीषण नरसंहारक युद्ध हुए हैं, उसके जड़ में कहीं न कहीं मुख्य कारक तत्वों के रूप में यही सब मिलेंगे । तत्काल के लिए इजरायल और इस्लामिक देशों के बीच हो रहे भीषण युद्ध इसके प्रचंड और ज्वलंत सर्वमान्य उदाहरण हैं । नेपाल जैसा कमजोर और दीनहीन देश जो विदेशियों की भिक्षा पर जीवित है; में अब किसी भी प्रकार के राजनैतिक अथवा सामरिक क्रान्ति को झेलने का सामर्थ्य नहीं है । ऊपर से देश बेचुआ चरित्र के अंधे नेताओं के हाथों में देश का नेतृत्व और देशवासियों का भविष्य है । जो टाइटेनिक जहाज की तरह प्रतिपल भीषण लहरों और चट्टानों से टकराता हुआ आगे बढ़ने की प्रयास करता है ।

नेपाल, एक ऐसा देश; जहाँ देशभक्त ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है । वहीं विदेशियों के डालर के आगे खुद को नतमस्तक रखनेवालों नव देशभक्तों का बोलबाला हर कदम पर दिखाई दे रहा है । हजारों नेपाली युवाओं और लाखों किसानों के जीवन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में बलि चढ़ानेवाली पार्टी माओवादी, जब संविधान निर्माण प्रक्रिया में प्रवेश करती है तब उसके भीतर भी खसबाद के आकर्षण और मधेशवाद का विकर्षण प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देने लगता है । आम नेपाली जनता को अधिकार सम्पन्न कराने और देश में गणतंत्रात्मक प्रणाली लागू कर सबका अधिकार सबका सम्मान जैसे उच्चस्तरीय संस्कारित विचार को प्रवाहित किया था; ने सत्ता के चासनी में इस कदर डूबा कि आज जनता के दृष्टि में दूध के मक्खी के समान अपमान का कड़वा घूंट पीने को मजबूर है । उधर कांग्रेस एमाले ने मिलकर माओवाद के त्याग को दो कौड़ी का साबित कर जनता के सामने कुशल राजनीतिज्ञ का चिलम फुक रहा है ।

वर्तमान के मुट्ठीभर नेताओं के पद को सुरक्षित रहने का विश्वास दिलाया जाए तो संविधान संशोधन जैसे जटिल मामलों पर कांग्रेस, एमाले आदि सभी पार्टियों के नेताओं की लगभग समान अवधारणा सामने आएगी, जो वर्तमान में नेपाली राजनीतिक परिदृश्य का पहचान बन गयी है । “देश में न कोई राजनीतिक विचारधारा है न कोई राजनीतिक संस्कार ।” राजशाही और हिंदू राज्य की बहाली के मुद्दे को लेकर राजनीति कर रही राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को एक ओर दुर्गा प्रसाई तो दूसरी ओर बालेन ने पछाड़ दिया । उधर सोशल मीडिया ही नहीं बल्कि काठमांडू की सड़कें भी राजशाही को फिर से बहाल करने के लिए गर्म हो गईं है । टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाकर पुनः सुचारू करने पर बाध्य होना, सड़क नाटक प्रसारण, भ्रष्टाचार पर गीत प्रसारण पर प्रतिबन्ध करना, ऐसे अनेक लोकतंत्र विरोधी निर्णय सरकार द्वारा लिया जाना, ये सब दीन हीन सरकारी मानसिकता का द्योतक है । लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि कल कोई दूसरा किरदार ऐसे ही राजनीतिक स्टंट नहीं करेगा । चूंकि नेपाली राजनीति आज गंदे खेलों का और गंदे लोगों का अखाड़ा बन गयी है, ऐसे कृत्य और कुकृत्य नये नहीं हैं, नियमित हैं, होते रहते हैं । सावधान! आम नागरिक को होना चाहिए ।

संविधान, अपनेआप में कागजÞ का एक टुकड़ा है, परन्तु जब उसपर आम नागरिक अपनी स्वीकृति रूपी मोहर लगा देते हैं तब वह सर्वशक्तिशाली हो जाता है । संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो असंशोधनीय हो । सरकार और राजनीतिक दल ईमानदारी पूर्वक पहल करे तो राजशाही और हिंदू राज्य को भी संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से बहाल किया जा सकता है । इस संविधान के मुख्य निर्माता कांग्रेस, एमाले, माओवादी, संयुक्त समाजवादी पार्टियों के पास संघीय संसद में ७५ प्रतिशत से अधिक बहुमत है । यदि जन आंदोलन–२०६२÷६३ के साथियों, जनता समाजवादी और लोकतांत्रिक समाजवादी को शामिल करें तो यह संख्या ८० प्रतिशत से अधिक हो जाती है । अगर वे नहीं चाहेंगे तो संविधान कैसे बदला जा सकता है ? राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी का नारा राजतंत्र की बहाली और हिंदू राज्य की स्थापना कल इस संविधान को ही खत्म करने का अभियान की ओर जा सकता है । जिसका ज्वलंत उदाहरण अभी के सरकार स्वयं है । मुठ्ठीभर माओवादी लड़ाकुओं ने नेपाल जैसे वीर बहादुर के देश को बंधक बना लिया । और ये कांग्रेस एमाले गुलामाें की तरह देखते रह गए । माओवादी के भय से प्रकम्पित हजारों नेताओं ने राजनीति ही त्याग दिया । अब इन तीनो प्रमुख दलों का राजनैतिक सिद्धांत सामानांतर रूप में लुढ़कता दिख रहा है । कितनी विडंबना है, कि आज तीनों प्रमुख पार्टी एक ही राजनैतिक सिद्धांत पर आरूढ़ हो गतिशील है । परिणाम में जनता इनसे खफा है । कार्यकर्ता को छोड़कर आम नेपाली जनता का इन पर थोड़ा सा भी विश्वास नहीं रहा । जिसका उदाहरण अकेला बालेन के समर्थक के सामने बौने और नतमस्तक होते नजर आना है । अतः प्रतिक्रान्ति की प्रतीक्षा करना अथवा सामनेवाले को तुच्छ समझकर उकसाना दुर्घटना का कारक सिद्ध हो सकता है । समय रहते आम जनता के भावनाओं को सम्मान करते हुए समझदारीपूर्वक निर्णय लेना ही नेपाल और नेपाली नागरिक के लिए शुभ माना जाएगा । गणतंत्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, समानुपातिक प्रतिनिधित्व और समावेशिता, जो इस संविधान के मूल और विशिष्ट मूल्य और संरचनाएं हैं, संवैधानिक प्रक्रिया के माध्यम से तथा लोकतांत्रिक भावनाओं को उच्च सम्मान करते हुए जनता के हित में संविधान को संशोधित किए जा सकते हैं ।

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देश से पलायन होने को मजबूर युवा शक्ति और नेपाली मेधा यह प्रमाणित करता है कि नेपाल में अब नेपालियों का भविष्य सुरक्षित नहीं है । दलाल, ठेकेदार, भ्रष्ट कर्मचारी, अयोग्य नेता, दुष्ट व्यापारी और देश बेचुवा अधिकारी के कारण नेपाल अपनी अस्तित्व को मटियामेट करने के लिए बाध्य है । जिस प्रकार हिन्दुस्तान में हिन्दुओं को दलित बनाने और कमजोर करने का वैश्विक षडयंत्र सन २०१४ से पहले तक पूर्ण सफल रहा और आज भी कांग्रेस लगायत के अनेकों पार्टियां भोट के राजनीति के लिए हिन्दुओं को कमजोर करने पर आमादा है । वही हालत बि.स.२०६३ के वाद दिखाई देने लगा । साथही जनता के मांग के बिना ही संविधान से हिन्दू राष्ट्र हटाना उसमे भी ८४% हिन्दुओं की भावना को दरकिनार कर जबरदस्ती संविधान लादना अलोकतांत्रिक चरित्र तथा विकाऊ संस्कार का प्रमाण है ।

मान लीजिए कि संविधान में संशोधन के जरिए संघीयता और धर्मनिरपेक्षता को खारिज कर दी गईं तो फिर इस संविधान का क्या स्वरूप बचेगा ? और देश में कैसा राजनीतिक माहौल बनेगा ? वर्ष २०१७ में राजा महेंद्र ने जो किया उससे भी भयंकर प्रतिक्रांति हो सकती है । सवाल उठता है– क्या यह संभव है ? क्या नेपाल की राजनीति और जनमत उसी ओर उन्मुख है ? क्या दुर्गा प्रसाई, राजेंद्र लिंगदेन, रवीन्द्र मिश्र को उत्तराधिकारी बनाकर राजनीतिक नेतृत्व की कमान ज्ञानेंद्र शाह को दे दी गयी है ? कहावत है कि नदी बारह साल बाद लौट आती है, क्या राजनीति भी वैसी ही है ? राजनीति में कुछ रुझान उतार–चढ़ाव वाले होते हैं, लेकिन इतिहास उलटा नहीं चलता । मनुष्य का न केवल शारीरिक विकास, बल्कि उसकी चेतना एवं चिंतन की गति भी निरंतर प्रगतिशील है । एक समय था जब दुनिया में सिर्फ राजतंत्र था । तो क्या आज भी यह संभव है कि राजशाही को दुनियां स्वीकार कर ले ? यह मै आप पर छोड़ता हूं ।

राजशाही और लोकतांत्रिक राजनैतिक प्रणाली में जमीन आसामान का भेद होता है । इसके बीच समता करने का प्रयास भले ही नेपाल जैसे छोटे देशों में संभव हो सके परंतु वैश्विक स्तर पर कदापि संभव नहीं होगा । ऐसी परिस्थिति में नेपाल में राजनीतिक प्रणाली के जमीन आसामान को एक होने में भी वैश्विक दबाव ही प्रभावकारी होगा । और वैश्विक दबाव संबंधित शक्ति के निजी राजनीतिक स्वार्थ लिप्सा से प्रभावित होगा, जिसका दुष्परिणाम हम सभी को भुगतना पड़ेगा । नेताओं का क्या है; वो तो “जिधर खीर उधर फिर” बाली नीति में जीते हैं । वो तत्काल पलट जाएंगे । नतमस्तक हो जाएंगे । विदेशियों के एजेंट बन जाएंगे । लेकिन आम नेपाली जनता को खून का आंसू रोना पड़ेगा । और माओवादी जनक्रांति में यह पीड़ादायक दृश्य हम सबने देखा और भोगा भी है । अतः नेपाली जनता पुनः आत्मविनाशकारी माओवादी सशस्त्र क्रान्ति को दोहराना नहीं चाहती है । क्योंकि विगत में कांग्रेस, एमाले, माओवादी लगायत के राजनीतिक विचारधारा के नेताओं में देश को लूटते वक्त देखे गए वैचारिक, व्यवहारिक एकता और प्रशासनिक सुरक्षा के कारण विक्षुब्ध देशभक्त नेपाली युवाओं में इनके प्रति घृणा और आक्रोश के ज्वाला का विस्फोट होना प्राकृतिक है । और ध्यान रहे! हरेक विद्रोह अपनी लक्ष्य और आम भावनाओं के अनुसार अपना नेता चुन लेते हैं । आज बालेन, प्रसाईं, अमरेश सिंह, साही ये सब उसी रास्ते के खिलते हुए कमल हैं ।

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अब एक बात साफ हो गया है कि वर्तमान के नेपाली राजनीति के इन भेड़ों से कुछ भी आशा नहीं किया जा सकता है । यहां के किसी पार्टी का कोई सिद्धांत नहीं है । सब मिल जुलकर लूटने में माहिर हैं । यहां न पक्ष है न विपक्ष । सबके सब मतलब के यार हैं । जिस देश में सत्ताधारी और विपक्ष दोनों मिलकर देश लूटता हो; उस देश में राजनीतिक आदर्श की बात करना ही मूर्खता है । अतः अब व्यक्तित्व की पहचान किया जाय । और अच्छे व्यक्तियों को सम्मान के साथ राजनीति में आगे बढ़ाया जाए ।

अब जरा गम्भीरता पूर्वक मनन किया जाय, क्या नेपाली नागरिक ने २०४६ साल के क्रांति में स्थापित प्रजातंत्र और २०६२ में माओवादी क्रांति के पश्चात स्थापित गणतंत्र में उपरोक्त राजनीतिक नैतिकता और आदर्श का भनक भी मिल पाया है ? क्या आम नागरिक के हित और कल्याण के लिए एक भी ऐसा निर्णय और योजना कार्यान्वयन किया गया जिसमें देश के साथ साथ आम नागरिक के जीवन में दीर्घकालीन समृद्धि प्राप्त हो ? उत्तर में नहीं के अलावा और कुछ आ ही नहीं सकता । ऐसी हालत में आम आदमी द्वारा नए नए विचारों और संभावनाओं की ओर अपनी रुख को मोड़ना स्वाभाविक ही है । कोई भी जीवित प्राणी ऐसा ही करेगा । हम तो ठहरे विश्व के सर्वोत्तम प्राणी मनुष्य । बस इतना ख्याल रखना ही क्रांति के लिए कदम में उर्जा का संचार होना आरंभ कर देता है । आज नेपाली युवा इसी मोड़ पर तरंगायित है । जिसके कारण सत्ताधीशों की नींदे हराम हो गई है । छटपटाहट और घबराहट बढ़ती जा रही है । अहंकार के इमारत की ईंटें खिसकती जा रही है । सारे पाप एकत्रित होकर त्रासदी में डालने लगा है । त्राहिमाम की स्थिति निर्माण होती जा रही है । आम जनता या तो विरोध में सड़कों पर तांडव नृत्य करते हुए दिख रहे हैं कि मजे में अपनी घरों में मोबाइल में व्यस्त हैं । सरकार और सत्तासीनों के प्रति किसी में कोई रुझान ही नहीं है । राजनीतिक अपराधों और जन विरोधी निर्णयों के पहाड़ तले दबे इस सरकार के प्रति किसी में कोई रुचि नहीं दिखाई देती है । यह एक प्रकार से जनता के भावनाओं को कुचलते रहने के कारण अभिशप्त हो गई है । अभिशप्तों से कल्याण की आशा दुखदायी सावित होता है । और इस तरह के मास निराशा किसी भी राष्ट्र, धर्म, समाज और संस्कृति के पतन के लिए पर्याप्त होता है ।

पौराणिक काल से अपनी अस्तित्व को संजोए रखने में सफल नेपाल, आज अपने ही लोगों द्वारा अपनी ही प्रांगण में अस्तित्वहीनता की ओर बढ़ रहा है । नेपाल का प्रामाणिक इतिहास लिच्छवी काल से प्रारंभ हुआ और इसलिए नेपाल का ऐतिहासिक काल इसी युग से प्रारंभ हुआ माना जाता है । लिखित साक्ष्य प्राप्त होने के बाद ऐतिहासिक युग प्रारंभ होता है, इस मान्यता के आधार पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या शक संवत १०७ अर्थात १८५ ई. के जय वर्मा के अभिलेखों के आधार पर यह माना जाए कि प्रामाणिक इतिहास इसी काल से प्रारंभ हुआ है । चूँकि लिच्छविकल से पहले के इतिहास को सिद्ध करने के लिए कोई पुरातात्विक साक्ष्य और ऐतिहासिक आधार नहीं है, इसलिए उस युग को पौराणिक इतिहास कहा जाता है (दिवाकर आचार्य, नीपजन और नेपालः एक संक्षिप्त प्रारंभिक इतिहास) ।

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पौराणिक एवं पुरातत्व विद्वानों का तर्क है कि गोपाल, महिषापाल एवं किरात काल को पौराणिक काल कहा जाना चाहिए क्योंकि इनकी पुष्टि के लिए कोई पुरातात्विक आधार नहीं है (दिनेशचंद्र रेग्मी एवं रामनिवास पांडे, नेपाल का पौराणिक इतिहास) । ऐसा माना जाता है कि किरात से पहले ही गोपाल वंश, महिषपाल वंश की जातियों और कुलों ने शासन व्यवस्था शुरू की और सभ्यता की नींव रखी । हालाँकि, इस तर्क को साबित करने के लिए कोई पुरातात्विक आधार नहीं है । पारंपरिक और कथा–आधारित पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर इस बात पर चर्चा की जा सकती है कि आर्य वंशज कहे जाने वाले गोपाल–महिषपाल को नेपाली सभ्यता का पहला आदिवासी माना जाना चाहिए या नहीं । कोल–निषाद–किन्नर, किरंत, काश, खश और अष्ट्रोल–नीग्रो मूल की दाराद जैसी जातियाँ लिच्छ से पहले अस्तित्व में थीं (रेग्मी और पांडे, नेपाल का पौराणिक इतिहास, पृष्ठः ३०–४०) । इसलिए, नेपाल में लिच्छवियों ने प्रवेश के साथ उन्होंने स्थानीय जनजातियों और उनकी सामाजिक–सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ समझदारी पूर्वक समायोजन करके अपनी अस्तित्वको निष्कंटक बनाया । लिच्छवि–गुप्तों ने वैष्णव संस्कृति, गुप्त लिपि और संस्कृत भाषा का उपयोग करके अपना सांस्कृतिक आधिपत्य बनाए रखने की कोशिश की, जो वे मूल रूप से अपने साथ लाए थे । इस तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता कि लिच्छवियों ने राज्य प्रशासन, भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति और विरासत में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।

लिच्छवी काल की सैकड़ों मूर्तियां इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि परिष्कृत पत्थर की मूर्तिकला निर्माण पद्धति से उनकी कारीगर संस्कृति का पता चलता है । बुढानीलकंठ में नारायण नारायण की मूर्ति, हनुमानढोका में कालीदमन की मूर्ति, राष्ट्रीय संग्रहालय में पद्म हाथ वाली लक्ष्मी की मूर्ति, मौद्रिक और आर्थिक इतिहास का अस्तित्व उस काल में प्रचलित मुद्रा, कृषि व्यवस्था, पशुपालन और विभिन्न उद्योग जैसे पत्थर, धातु, लकड़ी, कपड़ा आदि लिच्छवी कलात्मकता, सभ्यता और गुणवत्ता की भव्यता को साबित करती है । इसलिए यह माना जाता है कि लिच्छवी सभ्यता की शुरुआत सांस्कृतिक संलयन और राजनीतिक दूरदर्शिता के साथ हुई थी । इसलिए लिच्छविकाल को स्वर्ण युग माना जाता है । लेकिन, उन्हीं महापुरुष के वंशज आज अपने पूर्खाओं के धरोहरों को विदेशियों के हाथों चंद पैसों के लालच में बेच रहा है । विश्व के तीन तीन महान् धर्म ( सनातन हिंदू, बौद्ध और किरात ) के उद्गम स्थल नेपाल, जिसे विश्व आस्था, सभ्यता और प्रज्ञा का केंद्र होना चाहिए, विश्व मानवता का प्रेरक होना चाहिए, वैश्विक सहिष्णुता का श्रोत होना चाहिए, मानवीय बौद्धिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आधार बिंदु होना चाहिए; वह खुद को दो कौड़ी में बेच रहा है । अपने गरिमावन युवाओं को विदेशों में पशुवत बेच रहा है । सभ्यता, संस्कृति और संस्कार के संवाहक नारी शक्ति को विदेश में पेट भरने के लिए पलायन को मजबूर कर रहा है । विश्व को गणतंत्र और ज्ञान का शिक्षा देनेवाला आज शत्रुओं से शिक्षा का भिक्षा मांग रहा है । समग्र ब्रह्माण्ड के पाठ्यक (वेद) के निर्माता नेपाल आज अपने लिए प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रम की भीख मांग रहा है । खाने के लिए भिक्षाटन, पीने के लिए भिक्षाटन, जीने हेतु दवा के लिए भिक्षाटन, अंतिम संस्कार हेतु कफÞन के लिए भिक्षाटन! तो मेरे प्रिय नालायकों अब भीख मांगने को बाकी ही क्या रह गया ? धत् ! थोड़ा सा भी शर्म करो यार!

    अजय कुमार झा
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