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होली के वैदिक से लेकर बैज्ञानिक आधार, जिनसे हम अनभिज्ञ है ? : मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू) । होली वैदिक कालीन पर्व है। वेदों एवं पुराणों में भी इस त्यौहार के प्रचलित होने का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में होली की अग्नि में हवन के समय वेद मंत्र ‘रक्षोहणं बल्गहणम’ के उच्चारण का वर्णन आता है।

होली पर्व को भारतीय तिथि पत्रक के अनुसार वर्ष का अन्तिम त्यौहार कहा जाता है, क्योंकि यह वर्षांत पूर्णिमा है अत: आज के दिन सब लोग हँस-गाकर रंग-अबीर से खेलकर नए वर्ष का स्वागत करते हैं। यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को संपन्न होने वाला सबसे बड़ा त्यौहार है। इस अवसर पर बड़े-बूढ़े, युवा-बच्चे, स्त्री-पुरुष सबमें जो उल्लास व उत्साह होता है, वह वर्ष भर में होने वाले किसी भी उत्सव में दिखाई नहीं देता।

प्राचीन काल में इसी फाल्गुन पूर्णिमा से प्रथम चातुर्मास सम्बन्धी ‘वैश्वदेव’ नामक यज्ञ का प्रारंभ होता था, जिसमें लोग खेतों में तैयार हुई नई आषाढ़ी फसल के अन्न-गेहूँ, चना आदि की आहुति देते थे और स्वयं यज्ञ-शेष, प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। आज भी नई फसल को डंडों पर बाँधकर होलिका दाह के समय भूनकर प्रसाद के रूप में खाने की परम्परा ‘वैश्वदेव यज्ञ’ की स्मृति को सजीव रखने का ही प्रयास है।

संस्कृत में भुने हुए अन्न को “होलका” कहा जाता है। इसी के नाम पर होलिकोत्सव का प्रारंभ वैदिक काल के पूर्व से ही किया जाता है। यज्ञ के अंत में यज्ञ भष्म को मस्तक पर धारण कर उसकी वन्दना की जाती थी,  उसका ही परिवर्तित रूप होली की राख को लोगों पर उड़ाने का जान पड़ता है।

होली से पहले 8 दिनों का समय ‘होलाष्टक’ कहा जाता है। होली के 8 दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलाष्टक लग जाता है, जो पूर्णिमा तक जारी रहता है। ऐसे में इन 8 दिनों में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता। होलाष्टक के इन 8 दिनों को वर्ष का सबसे अशुभ समय माना जाता है।

समय के साथ साथ अनेक ऐतिहासिक स्मृतियाँ भी इस पर्व के साथ जुड़ती गईं। नारद पुराण के अनुसार परम भक्त प्रहलाद की विजय और हिरण्यकश्यप की बहन ‘होलिका’ के विनाश का स्मृति दिवस है। होलिका को अग्नि में नहीं जलने का आशीर्वाद प्राप्त था। हिरण्यकश्यप व होलिका राक्षक कुल के बहुत अत्याचारी थे। उनके घर में पैदा प्रहलाद, भगवान-भक्त था, उसको खत्म करने के लिए ही होलिका उसे गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी मगर प्रभु की कृपा से प्रहलाद बच गया और होलिका उस अग्नि में ही दहन हो गई। इसीलिए इस पर्व को होलिका दहन भी कहते हैं।

भविष्य पुराण के अनुसार कहा जाता है कि महाराजा रघु के राज्यकाल में ‘ढुन्दा’ नामक राक्षसी के उपद्रवों से निपटने के लिए महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार बालकों द्वारा लकड़ी की तलवार-ढाल आदि लेकर हो-हल्ला मचाते हुए स्थान-स्थान पर अग्नि प्रज्वलन का आयोजन किया गया था। वर्तमान में भी बच्चों का हो-हल्ला उसी का प्रतिरूप है।

होली को बसंत सखा ‘कामदेव’ की पूजा के दिन के रूप में भी वर्णित किया गया है। “धर्माविरुधोभूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ” के अनुसार धर्म संयत काम, संसार में ईश्वर की ही विभूति माना गया है। इस दिन कामदेव की पूजा किसी समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में की जाती थी। दक्षिण में आज भी होली का उत्सव, ‘मदन महोत्सव’ के नाम से ही जाना जाता है। वैष्णव लोगों के किये यह ‘दोलोत्सव’ का दिन है।

 

ब्रह्मपुराण के अनुसार-

“नरो दोलागतं दृष्टा गोविंदं पुरुषोत्तमं।

फाल्गुन्यां संयतो भूत्वा गोविन्दस्य पुरं ब्रजेत।”

इस दिन झूले में झुलते हुए गोविन्द भगवान के दर्शन से मनुष्य बैकुंठ को प्राप्त होता है। वैष्णव मंदिरों में भगवान श्रीमद नारायण का आलौकिक शृंगार करके नाचते गाते उनकी पालकी निकाली जाती है। कुछ पंचांगों के अनुसार संवत्सर का प्रारंभ कृष्ण-पक्ष के प्रारंभ से और कुछ के अनुसार शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्णिमा पर मासांत माना जाता है जिसके कारण फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को वर्ष का अंत हो जाता है और अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से नव वर्ष आरम्भ हो जाता है। इसीलिए वहाँ पर लोग होली पर्व को संवत जलाना भी कहते है।

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इतिहास में होली का वर्णन :-

जैमिनी मीमांशा दर्शनकार ने अपने ग्रन्थ में “होलिकाधिकरण” नामक प्रकरण लिखकर होली की प्राचीनता को चिह्नित किया है। विन्ध्य प्रदेश के रामगढ़ नामक स्थान से 300 ईसा पूर्व का एक शिलालेख बरामद हुआ है जिसमें पूर्णिमा को मनाये जाने वाले इस उत्सव का उल्लेख है। वात्सायन महर्षि ने अपने कामसूत्र में “होलाक” नाम से इस उत्सव का उल्लेख किया है। इसके अनुसार उस समय परस्पर किंशुक यानी ढाक के पुष्पों के रंग से तथा चन्दन-केसर आदि से खेलने की परम्परा थी। सातवीं सदी में विरचित “रत्नावल” नाटिका में महाराजा हर्ष ने होली का वर्णन किया है।

होली पर्व का वैज्ञानिक आधार :-

भारतवर्ष ऋषि मुनियों का देश है। ऋषि-मुनि यानी उस समय के वैज्ञानिक जिनका सार चिंतन-दर्शन विज्ञान की कसौटी पर खरा-परखा, प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करता रहा है। विश्व में सनातन धर्म  ही है जिसके सारे त्यौहार, पर्व, पूजा-पाठ, चिंतन-दर्शन सब विज्ञान की कसौटी पर खरे-परखे हैं।

होली पर्व भी विज्ञान पर आधारित है। इसकी प्रत्येक क्रिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव स्वास्थ्य और शक्ति को प्रभावित करती है। एक रात में ही संपन्न होने वाला होलिका दहन, जाड़े और गर्मी की ऋतु संधि में फूट पड़ने वाली चेचक, मलेरिया, खसरा तथा अन्य संक्रामक रोग कीटाणुओं के विरुद्ध सामूहिक अभियान है। स्थान-स्थान पर प्रदीप्त अग्नि आवश्यकता से अधिक ताप द्वारा समस्त वायुमंडल को उष्ण बनाकर सर्दी में सूर्य की समुचित उष्णता के अभाव से उत्पन्न रोग कीटाणुओं का संहार कर देती है। होलिका प्रदक्षिणा के दौरान 140 डिग्री फारनहाईट तक का ताप शरीर में समाविष्ट होने से मानव के शरीरस्थ समस्त रोगात्मक जीवाणुवों को भी नष्ट कर देता है।

होली के अवसर पर होने वाले नाच-गान, खेल-कूद, हल्ला-गुल्ला, विविध स्वाँग, हँसी-मजाक भी वैज्ञानिक दृष्टि से लाभप्रद हैं। शास्त्रानुसार बसंत में रक्त में आने वाला द्रव आलस्य कारक होता है। बसंत ऋतु में निद्रा की अधिकता भी इसी कारण होती है। यह खेल – तमाशे इसी आलस्य को भगाने में सक्षम होते हैं।

महर्षि सुश्रुत ने बसंत को कफ पोषक ऋतु माना है।

“कफश्चितो हि शिशिरे बसन्तेअकार्शु तापित:।

हत्वाग्निं कुरुते रोगानातस्तं त्वरया जयेतु।।”

अर्थात शिशिर ऋतु में इकट्ठा हुआ कफ, बसंत में पिघलकर कुपित होकर जुकाम, खाँसी, श्वास, दमा आदि रोगों की सृष्टि करता है।इसके उपाय के लिए-

“तिक्ष्नैर्वमननस्याधैर्लघुरुक् षैश्च भोजनै:।

व्यायामोद्वर्तघातैर्जित्वा श्लेष्मान मुल्बनं।।”

अर्थात तीक्ष्ण-वमन, लघु-रुक्ष भोजन, व्यायाम, उद्वर्तन और आघात आदि काफ को शांत करते हैं। ऊँचे स्वर में बोलना, नाचना, कूदना, दौड़ना-भागना सभी व्यायामिक क्रियाएँ हैं जिससे कफ कोप शांत हो जाता है।

 

यज्ञ मधुसुदन में कहा गया है –

“एतत्पुष्प कफं पितं कुष्ठं दाहं तृषामपि।

वातं स्वेदं रक्तदोषं मूत्रकृच्छं च नाशयेत।।”

 

अर्थात ढाक के फूल कुष्ठ, दाह, वायु रोग तथा मूत्र कृच्छादी रोगों की महा औषधि हैं। दोपहर तक होली खेलने के पश्चात स्नानादि से निवृत होकर नए वस्त्र धारण कर होली मिलन का भी विशेष महत्त्व है।

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इस मौसम में बजेस जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।

 

होली पर शरीर पर ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं।

 

परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।

 

दक्षिण भारत में जिस प्रकार होली मनाई जाती है, उससे यह अच्छे स्वस्थ को प्रोत्साहित करती है। होलिका दहन के बाद इस क्षेत्र में लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं।

 

कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं। पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है।

 

होली के मौके पर लोग अपने घरों की भी साफ- सफाई करते हैं जिससे धूल गर्द, मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है। एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है।

 

होली में प्रयोग के लिए रंग बनाने की विशेष प्रक्रिया है।

 

हरा रंग :- गुलमोहर के पेड़ की मेहंदी और सूखे पत्ते, वसंत फसलों और जड़ी बूटियों के पत्ते, पालक के पत्ते, लालीगुरास के पत्ते और देवदार से बनते है। जबकि आज के सिंथेटिक रंग में कॉपर सल्फेट होता है और आंखों की एलर्जी और अस्थाई अंधापन जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

 

पीला:- हल्दी पाउडर, बेल फल, अमलतास, गुलदाउदी की प्रजाति, और गेंदा, सिंहपर्णी, सूरजमुखी, गेंदा, डैफोडील्स और डाहलिया, बेसन के कुछ प्रकार से बनते है।

 

लाल:- गुलाब या सेब के पेड़ों की छाल, लाल चंदन की लकड़ी का पाउडर, लाल अनार का फूल, टेसू का फूल (पलाश), सुगंधित लाल चंदन की लकड़ी, सूखे हिबिस्कस के फूल, मड के पेड़, मूली और अनार से बनते है। जबकि आज के सिंथेटिक रंग में पारा सल्फाइड हो सकता है, जिससे त्वचा कैंसर, मानसिक मंदता, पक्षाघात और  दृष्टि दोष हो सकता है।

 

केशरिया रंग:- टेसू के पेड़ (पलाश) के फूल, हल्दी पाउडर के साथ चूना मिलाकर नारंगी पाउडर, बारबेरी का एक वैकल्पिक स्रोत के रूप में जाना जाता है।

 

नीला:- जामुन, अंगूर की प्रजाति, नीले हिबिस्कस और जेरकंडा फूल से बनते है। जबकि आज के सिंथेटिक रंग में प्रशिया नीला हो सकता है, जो सूजन का कारण बन सकता है।

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बैंगनी:- चुकंदर से बनते है।जबकि आज के सिंथेटिक रंग में क्रोमियम आयोडाइड हो सकता है जिससे ब्रोंकियल अस्थमा और एलर्जी जैसी स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं।

 

भूरा:-सूखे हुए चाय के पत्ते, लाल मेपल के पेड़, कत्था से बनते है।

काला:-अंगूर की कुछ प्रजातियाँ, आंवले का फल से बनते है। जबकि आज के सिंथेटिक रंग से गुर्दे ख़राब हो सकते हैं , और सीखने की अक्षमता जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के लिएऑक्साइड हो सकता है। इसलिए प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की कोशिश करें।  यह अचानक संभव नहीं है।

 

आप कुछ आसान उपायों का पालन करके सिंथेटिक रंगों के दुष्प्रभावों को कम कर सकते हैं। होली खेलने से पहले आपकी त्वचा के सीधे संपर्क में आने से रंगों को रोकने के लिए अपने चेहरे और शरीर के अन्य उजागर भागों पर मॉइस्चराइज़र, पेट्रोलियम जेली या नारियल तेल की एक मोटी परत लगाना एक अच्छा विकल्प है।

 

बाल: अपने बालों और सर (खोपड़ी) को जैतून, नारियल या अरंडी के तेल से साफ़ करें। रासायनिक रंगों से उत्पन्न रूसी और संक्रमण को रोकने के लिए नींबू के रस की कुछ बूँदें उसमे मिला सकते हैं।

 

कपड़े: आप जो भी पहनना चाहते हैं उसे आपके शरीर के अधिकतम हिस्सों को ढंकना चाहिए। गहरे रंग के फुल स्लीव वाले सूती कपड़े पहनें। सिंथेटिक कपड़ा चिपचिपा होगा और डेनिम भारी होगा जब आपके पास रंगों से भरा एक बाल्टी / पानी आप पर छिड़क दिया जाएगा। इसलिए सूती कपड़े पहनें।

 

होंठ और आंखें: लेंस न पहनें। अधिकतर लोग आपके चेहरे पर मजाकिया रंग को लगाने में रुचि रखते हैं और जिससे आपकी अपनी आँखें लेंस से चोटिल हो सकती हैं। अपनी आंखों को रंग से भरे डार्ट्स या वॉटर जेट के मिसफायर से बचाने के लिए सन ग्लास का इस्तेमाल करें। अपने होठों के लिए एक लिप बाम ज़रूर लगाएं।

पानी: होली खेलना शुरू करने से पहले खूब पानी पिएं। इससे आपकी त्वचा हाइड्रेट रहेगी। साथ ही होली खेलते समय पानी को सावधानी से बहायें और पियें।

 

होली खेलने के बाद साबुन से रंग को साफ़ न करें। साबुन में एस्टर होते हैं जो त्वचा की परतों को मिटाते हैं और ये अक्सर चकत्ते का कारण बनते हैं। क्रीम-आधारित क्लीन्ज़र का उपयोग करें या आप रंगों को हटाने के लिए तेल का उपयोग भी कर सकते हैं, और फिर स्नान कर सकते हैं। त्वचा को हाइड्रेट रखने के लिए बहुत सारी मॉइस्चराइजिंग क्रीम लगाएं। यदि आपकी त्वचा पर रंग अभी भी बाकी हैं तो आप रंगों को हटाने के लिए अपने शरीर पर दूध / दूध की मलाई के साथ बेसन लगा सकते हैं। अपना चेहरा साफ़ करने के लिए मिट्टी के तेल, स्प्रिट या पेट्रोल का प्रयोग न करें। क्रीम बेस्ड क्लींजर या बेबी ऑयल ट्राई करें।

 

गर्म पानी का उपयोग न करें, यह आपके शरीर पर रंग चिपका देगा। सामान्य पानी का उपयोग करें। रंग निकलने तक धूप से दूर रहें। आंखों में खुजली या लालिमा सामान्य हो सकती है लेकिन अगर यह कुछ घंटों से अधिक समय तक जारी रहे।

जिस प्रकार का वातावरण समाज में व्याप्त है और सनातन परम्पराओं को चुनौती मिल रही है, ऐसी स्थिति में हमारे उत्सवों के पौराणिक और वैज्ञानिक महत्व को समाज में स्थापित करने की आवश्यकता है।

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

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