नागरिकता नहीं तो राष्ट्रीयता कैसी ?
दीपेन्द्र झा ,कानून व्यवसायी,देश के न्यायप्रणाली को अगर देखा जाय तो इसमें मधेश शून्य है । ३१६ न्यायाधीश में २५७ न्यायाधीश ब्राह्मण और क्षत्रीय हैं । इस असमानता का देश पर असर पड़ेगा या नहीं ? और यह असमानता देश के हर निकाय में है । यानि मधेश शक्तिविहीन है । नागरिकता और राष्ट्रीयता इन दोनों सवालों पर मधेशी हमेशा शंका की निगाह से देखा जाता रहा है । एक सबसे बड़ी बात यह है कि हमें यह सोचना है कि न्यायालय की संरचना कैसे बदली जाय । विश्व में कोई ऐसा देश नहीं होगा जिसमें किसी भी निकाय में एक ही समुदाय के लोगों की ९९ प्रतिशत सहभागिता हो । आज अगर संघीयता मिल भी जाय पर न्यायायिक प्रक्रिया यही है तो उस संघीयता का कोई अर्थ नहीं है । कोई शक्ति फिर मधेश को प्राप्त नहीं होगी । इसलिए अलग संवैधानिक अदालत की आवश्यकता है । यह जो एकक्षेत्र राज है इसे नियन्त्रित करने के लिए हमें यह चाहिए ही । ताकि एक नई नीति नियम बने जो क्षेत्र विशेष के हित के लिए हो । जहाँ तक नागरिकता का सवाल है तो आज भी यह बहुत ही उलझनपूर्ण है । राजा महेन्द्र ने यह नियम बनाया कि जो नेपाली मूल के हैं वो नागरिकता प्राप्त करने के अधिकारी हैं । किन्तु नेपाली मूल को कहीं व्याख्यायित नहीं किया गया । नागरिकता देने के लिए दूसरी आवश्यकता यह थी कि नेपाली बोलना आना चाहिए और लिखना आना चाहिए । जबकि उस समय शिक्षा की क्या अवस्था थी यह सभी को ज्ञात है और यही वजह है कि आज भी मधेश में हजारों की संख्या में व्यक्ति नागरिकता विहीन हैं । ४७ साल के संविधान में भी इसी नियम को लागू कर दिया गया । आज के प्रस्ताव में भी उसी बात को दुहराया जा रहा है समस्या इस बात की है । आज जो नागरिकता देने का नियम बन रहा है वह नागरिकता का अधिकार देने से अधिक वंचित करने का है । मधेशी को केन्द्रीत कर के ही आज के नागरिकता का प्रावधान है । आज वंशज के आधार पर नागरिकता देने का प्रावधान किया जा रहा है यानि माता और पिता दोनों को नेपाली होना पड़ा । अब बताइए कि मधेश में ६० प्रतिशत शादी भारतीय मूल से होती है तो वो तो इस प्रावधान में नहीं आते हैं तो क्या उसकी संतान नेपाली नहीं है ? नागरिकता हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है यह आज के प्रावधान से हटा दिया गया है । अंगीकृत का भी वही हाल है । यानि हर तरह से मधेश को इससे वंचित करने का षड्यंत्र है । नागरिकता नहीं देंगे और राष्ट्रीयता की अपेक्षा करेंगे ? ऐसा कैसे हो सकता है ? अधिकार दीजिए तो अपेक्षा कीजिए ।
संविधान के सम्बन्ध में तो मैं स्पष्ट कहूँ कि विजेता और पराजित के बीच कोई समझौता या सहमति की सम्भावना ही नहीं है, यह हो ही नहीं सकता है । जो जीते हैं उसकी बात हारे हुए को माननी ही होगी । मान लिया तो सही नहीं तो बाहर का रास्ता देखिए । इसलिए जो हारे हैं उन्हें सड़क पर आना ही होगा । समझौता का कोई औचित्य नहीं है आज अगर औचित्य है तो सिर्फ आन्दोलन का, आज आपके पास संख्या नहीं है पर, कल जरुर होगी यह मान कर चलिए ।
एक बात और आज पाँच जिलों की जो बात आ रही है । काँग्रेस एमाले का कहना है कि हम जनमत संग्रह करेंगे । अगर आज यह परिपाटी आप शुरु करते हैं तो यह तो हर विषय पर होना चाहिए । चाहे एक मधेश प्रदेश पर हो चाहे स्वशासन और स्वतंत्रता पर हो । आप आज कमीशन को नहीं मानेंगे नई बनाने की बात करेंगे पर यह हो ही नहीं सकता क्योंकि यह असंवैधानिक है । राज्यपुनर्संरचना की बात अंतरिम संविधान में शामिल है और आज आप उसी से हटना चाह रहे हैं तो ये कहाँ मान्य होगा । यह तो मानने वाली बात ही नहीं है । आज संघीयता के नाम पर जो खेल सत्ता पक्ष खेल रहा है उससे ये मधेशी नहीं पहाड़ियों के ही प्रति विभेद कर रहे हैं । यदि झापा, मोरंग, सुनसरी आप ऊपर से जोड़ेंगे तो पहाड़ अल्पसंख्यक हो जाएँगे । यह किसके लिए विभेद हुआ ? इसके पीछे सत्ता की यही चाल है कि किस तरह कोशी, कर्णाली, नारायणी को और जंगल को ऊपर ले जाऊँ और उसपर अधिकार पहाड़ी का हो पर यह तो सोचिए कि जो नीचे पहाड़ी हैं आप उनके साथ क्या कर रहे हैं । इसलिए स्रोत संसाधन का सही उपयोग करने की बात सोचिए । स्थानीय निर्वाचन का भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि जब नई राज्य संरचना नहीं बनी है तो स्थानीय निर्वाचन हो ही नहीं सकता । इसका कोई अर्थ ही नहीं है । सत्ता हर जगह चाल चल रही है और यह चाल अब मधेश समझ चुका है और सत्ता को अब कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि अब उनकी मनमानी चलने वाली है ।