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अमेरिकी लोकतंत्र का आईना : कैलिफ़ोर्निया की सड़कों पर इंसाफ़ की पुकार : प्रेमचन्द्र सिंह

प्रेमचन्द्र सिंह, लखनऊ । अमेरिका दुनिया के सामने खुद को “लोकतंत्र का प्रहरी” और “मानवाधिकारों का रक्षक” बताता है। पर आज जब हम कैलिफ़ोर्निया की सड़कों पर नज़र डालते हैं, तो यह दावा खोखला प्रतीत होता है। लॉस एंजिलिस, सैनडिएगो और अन्य शहरों में जो दृश्य उभर रहे हैं, वे एक ऐसे लोकतंत्र की तस्वीर पेश करते हैं, जो अपने ही नागरिकों की आवाज़ को दबाने में सैन्य बल का प्रयोग कर रहा है। अप्रवासियों के विरुद्ध चल रहे इस दमनचक्र के विरुद्ध हो रहे प्रदर्शन अब अमेरिका के 12 राज्यों के 25 शहरों तक फैल चुका है, जिसमें सैनफ्रांसिस्को, डलास, ऑस्टिन, टेक्सास और न्यूयार्क जैसे शहरों में प्रदर्शन जोरों पर है। ये प्रदर्शन लोगों के गुस्से, सामाजिक असमानता और मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ एक सामूहिक आवाज़ हैं, जो न्याय और बदलाव की मांग कर रहे हैं। इन अप्रवासियों की पीड़ा दोहरी है। एक तरफ वे अपने देश की त्रासदियों से भागकर अमेरिका में सुरक्षा और बेहतर जीवन की तलाश में आते हैं, दूसरी ओर उन्हें यहां कानूनी असुरक्षा, प्रशासनिक कठोरता और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। लॉस एंजिलिस की गलियों में उनकी आवाज़ आज भी “स्वतंत्रता” की गुहार लगा रही है, लेकिन सत्ता का डंडा बार-बार उस आवाज़ को कुचलने की कोशिश कर रहा है। यह समय है, जब मानवता को इन अप्रवासियों के साथ खड़ा होना चाहिए, न कि उनकी खामोशी से फायदा उठाने वाले दमनकारियों के साथ।
अमेरिकी दमन के शिकार कौन –
लॉस एंजिलिस, कैलिफ़ोर्निया सहित अमेरिकी अन्य शहरों में अभी जो अप्रवासी अत्याचार और दमन का सामना कर रहे हैं, उनके बारे में भी जान लीजिए। पहली कतार में मुख्यतः मेक्सिको, ग्वाटेमाला, होंडुरास, एल सल्वाडोर के लैटिन अमेरिकी प्रवासी हैं। यह सबसे बड़ा प्रवासी समुदाय है जो अक्सर गरीबी, गैंग हिंसा और भ्रष्ट शासन से बचकर अमेरिका में शरण लेने आता है। इन लोगों को कई बार अवैध अप्रवासी कहकर निशाना बनाया जाता है। आईसीई (इमिग्रेशन एंड कस्टम्स एनफोर्समेंट) द्वारा बिना वारंट के छापेमारी, गिरफ्तारी और जबरन निर्वासन जैसे कदम इन्हीं पर केंद्रित होते हैं।
दूसरी कतार में एशियाई मूल के विशेष रूप से फिलीपीन, चीन, भारत और वियतनाम  सरीखे देशों के प्रवासी हैं। इनमें से कुछ लोग वैध वीज़ा पर आए थे, लेकिन अप्रवासन नियमों के जटिल जाल में फंसकर ‘ओवरस्टे’ करने वालों में गिने जाते हैं। ट्रंप युग की नीतियों ने इन्हें भी गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इनके साथ नस्लीय भेदभाव और पुलिस की सख्ती आम बात है।
तीसरी कतार में इरीट्रिया, सूडान, इथियोपिया सरीखे अफ्रीकी देशों से आए शरणार्थी है, ये लोग अफ्रीका में चल रहे युद्ध, राजनीतिक अस्थिरता और मानवाधिकार हनन से बचकर अमेरिका में शरण मांगते हैं। लेकिन इनके आव्रजन आवेदन वर्षों तक लंबित रहते हैं और कई बार इन्हें डिटेंशन सेंटर्स में बंद कर दिया जाता है।
चौथी कतार में ईरान, सीरिया, अफगानिस्तान, यमन आदि जैसे मुस्लिम देशों से आने वाले प्रवासी हैं, जिन्हें ट्रंप प्रशासन की “मुस्लिम बैन” नीति के चलते खास तौर पर निशाना बनाया जाता है। आज भी इन्हें संदेह की निगाह से देखा जाता है और उन्हें सामाजिक व प्रशासनिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
अंतिम कतार में खड़े अनाधिकृत श्रमिक और निम्न-आय वाले अप्रवासी हैं, जो प्रवासी निर्माण, सफाई, होटल या कृषि जैसे क्षेत्रों में मेहनत करते हैं, उन्हें अक्सर श्रम कानूनों से वंचित किया जाता है और आईसीई की छापेमारी का मुख्य शिकार यही लोग होते हैं। इनकी हालत कोविड-19 के बाद और भी दयनीय हो गई है।
लोकतंत्र या दमनतंत्र-
वर्ष 2020 में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद शुरू हुए ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन में सिर्फ़ कैलिफ़ोर्निया में 10,000 से अधिक प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया था। अमन-शांति से विरोध कर रहे इन लोगों पर पुलिस ने आंसू गैस, रबर की गोलियों और गिरफ्तारी का सहारा लिया। रिपोर्टों के अनुसार, उस समय लॉस एंजिलिस में 20 से अधिक लोगों की जान गई और सैकड़ों घायल हुए। 2024 और 2025 में भी जब अप्रवासियों के अधिकारों, पुलिस सुधार और नस्लीय न्याय के लिए आंदोलन हुए, तो फिर से यही सबकुछ देखने को मिला – सत्ता का भयावह प्रदर्शन  हुआ और विरोध की आवाज़ों का गला घोटा गया।
प्रवासियों पर नीति या निर्ममता-
डोनाल्ड ट्रंप की “ज़ीरो टॉलरेंस” नीति के कारण 2018 में 2,600 से ज्यादा बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर ‘डिटेंशन केंद्रों’ में रखा गया। हयूमन राइट्स वॉच, यूएनएचसीआर और यूनिसेफ जैसी संस्थाओं ने इन डिटेंशन सेंटर्स को “अमानवीय” कहा है। आईसीई (इमिग्रेशन एंड कस्टम एनफोर्समेंट) द्वारा वर्ष 2019 में 1,40,000 से अधिक प्रवासियों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से करीब 70% के खिलाफ कोई गंभीर आपराधिक मामला नहीं पाया गया। कैलिफ़ोर्निया, जहां 27% लोग अप्रवासी मूल के हैं, वहां बिना वारंट घरों में घुसकर छापेमारी की घटनायें लोकतांत्रिक अधिकारों का खुला उल्लंघन हैं।
राज्य स्तरीय राजनीतिक नेतृत्व बनाम संघीय शक्ति –
कैलिफ़ोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूज़म और लॉस एंजिलिस के मेयर जब इन अत्याचारों के खिलाफ बोले, तो केंद्र सरकार ने बातचीत की जगह सैन्य बल का रास्ता चुना। 1,000 से अधिक नेशनल गार्ड और सैन्य बलों (यूएस मरीन) को तैनात किया गया, जिनकी उपस्थिति ने न केवल भय का माहौल बनाया, बल्कि एक लोकतांत्रिक राज्य में सैन्य तानाशाही की झलक दे रही है। तानाशाही यही तक होती तो कोई बात नहीं थी, ट्रंप की केंद्रीय सत्ता ने तो कैलिफोर्निया के गवर्नर की गिरफ्तारी की बात केवल इसलिए कर दी कि गवर्नर राज्य की कानून व्यवस्था में केंद्रीय सत्ता के अनावश्यक हस्तक्षेप का विरोध कर रहे है और इस बाबत उन्होंने न्यायपालिका के दरवाजे को खटखटाने की बात भी कही है।
मीडिया और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की चुप्पी –
अमेरिकी मीडिया, जो यूक्रेन, चीन, ईरान या भारत जैसे देशों में मानवाधिकार के सवालों पर मुखर होता है, अपने ही देश में हो रहे अत्याचारों पर अक्सर नरमी बरतता है। न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और सीएनएन जैसी मीडिया संस्थायें कभी-कभी आलोचना तो करती हैं, लेकिन समग्र रूप से एक संगठित सच्चाई लोगों के सामने लाने से कतराती है। संयुक्त राष्ट्र, जो विश्व के हर कोने में मानवाधिकार की दुहाई देता है, अमेरिका के मामले में अक्सर “रणनीतिक चुप्पी” अपनाता है। यह दोहरा मापदंड विश्व की न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
अतः समय है कि अमेरिका अपने आईना में झांखकर अपनी कथनी और करनी को देखे और समझे कि उसके खाने के दांत और दिखाने के दांत में फर्क क्या है। कैलिफ़ोर्निया की घटनायें अमेरिकी लोकतंत्र की कमजोरी को उजागर करती हैं, एक ऐसा सिस्टम जो अपने ही लोगों की आवाज़ से डरता है और उसे दबाने के लिए शक्ति का प्रयोग करता है। अमेरिका को आत्मनिरीक्षण करना होगा कि क्या वह वास्तव में लोकतंत्र का आदर्श है या अब वह सिर्फ़ एक महाशक्ति है जो दूसरों को पाठ पढ़ाना जानती है परंतु खुद अमल नहीं करती है। दुनिया को भी अब सवाल उठाना होगा – क्या हम सिर्फ़ शक्तिशाली देशों के डर से चुप रहेंगे या फिर सच्चाई के साथ खड़े होंगे? इंसानियत किसी सीमा, किसी मर्यादा की मोहताज नहीं होनी चाहिए। अगर आज कैलिफ़ोर्निया की सड़कों पर हो रही क्रूरता के खिलाफ दुनियां आवाज़ नहीं उठाएगी, तो कल यही अन्याय हर देश की देहलीज़ पर आ सकता है। अंत में निम्न शब्दों के साथ अपनी अभिव्यक्ति को यही विराम देते हैं –
     “ज़ुल्म की हर दीवार अब गिराई जाएगी,
     सच की आवाज़ फिर से दोहराई जाएगी।
     ये धरती, ये हवा, सबका अधिकार है,
    अब हक़ की फसल हर ओर उगाई जाएगी।”
प्रेमचन्द्र सिंह, लखनऊ

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